शनिवार, 2 नवंबर 2013

शुभ दीपावली (लक्ष्मी आराधना )

श्री सूक्त माता लक्ष्मी की आराधना के मंत्र हैं. यह ऋग्वेद में है.धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्ति के लिए ऋग्वेद में वर्णित श्रीसूक्त का पाठ एक ऐसी साधना है जो कभी बेकार नहीं जाती है.महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए ही शास्त्रों में नवरात्रि, दीपावली या सामान्य दिनों में भी श्रीसूक्त के पाठ का महत्व और विधान बताया गया है .दरिद्रता और आर्थिंक तंगी से छुटकारे के लिए यह अचूक प्रभावकारी माना जाता है.

इस सूक्त की ऋचाओं में से 15 ऋचाएँ मूल 'श्री-सूक्त’ माना जाता है.यह सूक्त ऋग्वेद संहिता के अष्टक 4, अध्याय 4 के अन्तिम मण्डल 5 के अन्त में ‘परिशिष्ट’ के रुप में आया है . इसी को ‘खिल-सूक्त’ भी कहते हैं .मूलतः यह ऋग्वेद में आनंदकर्दम ऋषि द्वारा श्री देवता को समर्पित काव्यांश है.निरुक्त एवं शौनक आदि ने भी इसका उल्लेख किया है. इस सूक्त की सोलहवीं ऋचा फलश्रुति स्वरुप है . इसके पश्चात् 17 से 25 वीं ऋचाएँ फल-स्तुति रुप ही हैं, जिन्हें ‘लक्ष्मी-सूक्त’ कहते हैं . सोलहवीं ऋचा के अनुसार श्रीसूक्त की प्रारम्भिक 15 ऋचाएँ कर्म-काण्ड-उपासना के लिए प्रयोज्य है.अतः ये 15 ऋचाएं ही लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के आगम-तन्त्रानुसार साधना में प्रयुक्त होती हैं .

।।श्री सूक्त।।

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो मऽआवह।।1

हे अग्निदेव, आप मेरे लिए उस लक्ष्मी देवी का आवाहन करें जिनका वर्ण स्वर्णकान्ति के समान है ,जो स्वर्ण और रजत की मालाओं से अलंकृत हैं ,जो परम सुंदरी दारिद्र्य का हरण करती हैं और जो चन्द्रमा के समान स्वर्णिम आभा से युक्त हैं.

तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।2

हे जातवेदा अग्निदेव,आप मेरे लिए उन जगत-प्रसिद्ध वापस नहीं लौटने वाली (सदा साथ रहनेवाली ) लक्ष्मी जी को बुलाएं जिनके आगमन से मैं स्वर्ण,गौ,अश्व,बंधू-बांधव ,पुत्र-पौत्र को प्राप्त कर सकूँ.

अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।3

जिस देवी के आगे घोड़े और मध्य में रथ है,ऐसे रथ पर आरूढ़ गज-निनाद से प्रमुद्कारिणी देदीप्यमान लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ जिससे वे मुझ पर प्रसन्न हों.

कां सोऽस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।4

मुखारविंद पर मधुर स्मिति से जिनका स्वरुप अवर्णनीय है,जो स्वर्ण से आविष्ट ,दयाभाव से आर्द्र देदीप्यमान हैं और जो स्वयं तृप्त होते हुए दूसरों के मनोरथ को पूरा करने वाली हैं कमल पर विराजमान कमल-सदृश उस लक्ष्मी देवी का मैं आवाहन करता हूँ.

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।5

चन्द्रमा के समान प्रभावती ,अपनी यश-कीर्ति से देदीप्यमती, स्वर्गलोक में देवों द्वारा पूजिता ,उदारहृदया ,कमल-नेमि (कमल-चक्रिता/पद्म-स्थिता ) लक्ष्मी देवी, मैं आपका शरणागत हूँ. आपकी कृपा से मेरी दरिद्रता दूर हो.

आदित्यवर्णे तपसोधिsजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथबिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु या अन्तरा याष्च बाह्या अलक्ष्मीः।।6

हे सूर्यकांतियुक्ता देवी , जिस प्रकार आपके तेज से सारी वनसम्पदाएँ
उत्पन्न हुई हैं,जिस प्रकार आपके तेज से बिल्ववृक्ष और उसके फल उत्पन्न हुए हैं,उसी प्रकार आप अपने तेज से मेरे बाह्य और आभ्यंतर की दरिद्रता को विनष्ट कर दें.

उपैतु मां देवसखः कीर्तिष्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।। 7

हे लक्ष्मी देवी ,देवसखा अर्थात् महादेव के सखा कुबेर के समान मुझे मणि ( संपत्ति ) के साथ कीर्ति प्राप्त हो , मैं इस राष्ट्र में उत्पन्न हुआ हूं ,मुझे कीर्ति और समृद्धि प्रदान करें.

क्षुत्पिपासामलां जयेष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। 8

क्षुधा और पिपासा (भूख-प्यास) रूपी मलिनता की वाहिका आपकी ज्येष्ठ बहन अलक्ष्मी को मैं ( आपके प्रताप से ) नष्ट करता हूँ . हे लक्ष्मी देवी ,आप मेरे घर से अनैश्वर्य अशुभता जैसे सभी विघ्नों को दूर करें.

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।9

सुगन्धित द्रव्यों के अर्पण से प्रसन्न होने वाली, किसी से भी नहीं हारनेवाली ,सर्वदा समृद्धि देने वाली ( इच्छाओं की पुष्टि करनेवाली ), समस्त जीवों की स्वामिनी लक्ष्मी देवी का मैं यहां आवाहन करता हूं.

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥10

हे लक्ष्मी देवी , आपकी कृपा से मेरी सभी मानसिक इच्छा की पूर्ति हो जाए, वचन सत्य हो जाय ,पशुधन रूप-सौन्दर्य और अन्न को मैं प्राप्त करूं तथा मुझे संपत्ति और यश प्राप्त हो जाय.

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥11

हे कर्दम ऋषि (लक्ष्मी-पुत्र ) , आप मुझ में निवास कीजिये और आपके सद्प्रयास से जो लक्ष्मी देवी आविर्भूत होकर आप-सा प्रकृष्ट पुत्र वाली माता हुई उस कमलमाला-धारिणी लक्ष्मी माता को मेरे कुल में निवास कराइए .

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥ 12

जिस प्रकार वरुणदेव स्निग्ध द्रव्यों को उत्पन्न करते है ( जिस प्रकार जल से स्निग्धता आती है ), उसी प्रकार, हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत , आप मेरे घर में निवास करें और दिव्यगुणयुक्ता श्रेयमान माता लक्ष्मी को मेरे कुल में निवास कराकर इसे स्निग्ध कर दें.

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ 13

हे अग्निदेव, आप मेरे लिए कमल-पुष्करिणी की आर्द्रता से आर्द्र शरीर वाली ,पुष्टिकारिणी,पीतवर्णा,कमल की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान स्वर्णिम आभा वाली लक्ष्मी देवी का आवाहन करें.

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥ 14

हे अग्निदेव , आप मेरे लिए दयाभाव से आर्द्रचित्त, क्रियाशील करनेवाली ,शासन-दंड-धारिणी ( कोमलांगी ) , सुन्दर वर्णवाली,स्वर्णमाला-धारिणी सूर्य के समान स्वर्णिम आभामयी लक्ष्मी देवी का आवाहन करें.

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्या हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वन्विन्देयं पुरुषानहम् ।।15


हे अग्निदेव , आप मेरे लिए स्थिर ( दूर न जानेवाली ) लक्ष्मी देवी का आवाहन करें जिनकी कृपा से मुझे प्रचुर स्वर्ण-धन ,गौ ,घोड़े और संतान प्राप्त हों.

ll ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ll

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श्री सूक्त के पंद्रह ऋचाओं के बाद सोलवें ऋचा में इसका फल वर्णित है जिस से स्पष्ट है कि इस सूक्त से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है.....

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥16

जो नित्य पवित्र होकर इस पंचदश ऋचा वाले सूक्त से भक्तिपूर्वक घी की आहुति देता है और इसका पाठ ( जप ) करता है उसकी श्री ( लक्ष्मी ) की कामना पूर्ण होती है.

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शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

भगवान् परशुराम

भगवान् परशुराम -

श्रीपरशुरामजी के विषय मेँ कालिका पुराण भागवत महाभारत तथा

पद्मपुराण आदि मे बहुत प्रकाश डाला गया है |...


कालिका पुराण के अनुसार -

इक्ष्वाकुपुत्रविदर्भनरेश रेणु की पुत्री रेणुका से महर्षि जमदग्नि ने विवाह किया ।

जिससे इनके रुमण्वान् सुषेण आदि चार पुत्र हुए तत्पश्चात् सहस्रबाहु के वध

की इच्छा से इन्द्रादि देवताओ द्वारा प्रार्थना किये जाने पर स्वयँ भगवान्

विष्णु ने इन जमदग्निजी के यहाँ रेणुका के गर्भ से परशुराम जी के रूप मे

जन्म लिया ।


सबसे बड़ी विशेषता यह कि ये अपने फरसे (परशु)। के साथ ही प्रकट हुए -


भारावतारणार्थाय जातः परशुना सह ।

सहजःपरशुस्तस्य तं जहाति कदा च न । ।


... यह इनका प्रमुख आयुध है इसे कभी नही त्यागते ।

इसीलिए इहेँ परशुराम कहा जाता है ।


पद्मपुराण के अनुसार जमदग्नि जी ने स्वयं देवराज इन्द्र को यज्ञ से प्रसन्न

करके महाबलशाली परमतेजस्वी और शत्रुसंहारक पुत्रप्राप्त किया जो

सर्वलक्षणसम्पन्न एवं भगवान् विष्णु का अवतार था -


विष्णोरंशाँशभागेन सर्वलक्षणलक्षितम् । प.उ.ष.अ.241/10.


पररशुरामजी गण्डकी नदी के तट पर महर्षि कश्यप से मन्त्रग्रहण करके

अनेक वर्षो तक तप किये । विष्णु भगवान् ने प्रसन्न होकर इहेँ शत्रुसंहारक

फरसा तथा दिव्य वैष्णव धनुष एवं अनेक अस्त्र शस्त्र देकर दुष्ट राजाओँ के


विनाश का निर्देश दिया ।


जब ये बाहर गये हुए थे उसी समय सहस्रार्जुन आकर इनके ध्यानस्थ पिता

जमदग्नि जी की गौ न देने के कारण निर्मम हत्या कर डाली ।

माँ रेणुका छाती पीट पीट कर जोरजोर से रोने लगीँ । रुदन सुनकर परशुरामजी

शीघ्र दौड़ कर आये और प्रतिज्ञा करते हुए बोले - मातः आपने 21 बार छाती

पीटा है ।

अतः मैँ 21बार इन दुष्ट राजाओँ कासंहार करूँगा ।


ध्यान देने की बात यह है कि परशुरामजी के पिता का वध एक पापी राजा ने

किया था इधर भगवान् विष्णु ने भी उन्हे दुष्ट राजाओँ के वध की ही

आज्ञा दी है -


जहि दुष्टान् नृपोत्तमान् - पद्मपुराण उत्तरखण्ड 241वाँ अध्याय श्लोक 41.


अत एव उन्होने मात्र दुष्ट राजाओँ का ही संहार किया सामान्य सज्जन क्षत्रियो

का नही । अतः उन्होने पापी राजवंश का नाश किया।


सहस्रार्जुन जैसे हजारो राजा उनके हाथ से दण्ड पाकर पापमुक्त हुए।


रावण का अत्याचार बढ़ने पर भी इन्होने उसेअनाचार न करने का सन्देश भेजा

था। जिसे सुनाने के बाद सेनापति प्रहस्त ने लड़्केश से कहा -


परशुरामजी को केवल ब्राह्मण समझकर उनकी आज्ञा का उल्लड़्घन नही

करना चाहिए इसी मे आपका कल्याण है अन्यथा आपके मित्र जमदग्निनन्दन

का मन खिन्न हो जायेगा -


ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये ।

जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते । ।



इसलिए ये धारणा मन से निकाल देनी चाहिए कि परशुरामजी किसी जातिविशेष

के विरोधी थे ।


वर्तमान काल मेँ जाति पाँति का भेदभाव न रखकर अत्याचारियों आतड़्कवादियों

और भ्रष्टाचारियो के विरुद्ध अस्त्र उठाने की प्रेरणा देने वालो मे सर्वश्रेष्ठ

मूलपुरुष श्रीपरशुराम जी को आदर्श मानते हुए एकजुट होकर हम सबको

अत्याचार भ्रष्टाचार और आतड़्कवाद से लोहा लेने के लिए कृतसड़्कल्प

होना है ।


हम इन्हे आदर्श मानकर इनका स्मरण करते हुए रण का बिगुल बजा देँ --


>>>>>जय जय महबली दुर्धर्ष भगवान् श्रीपरशुराम<<<<<<


>>>>>आचार्य सियारामदास नैयायिक<<<<<<

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

ब्राह्मण को समझे

-महर्षि मनु के अनुसार
विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥
अर्थात- शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं'' (मनु; 11-35)।

-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार
"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो"
(सन्दर्भ ग्रन्थ - महाभारत)

-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार
"जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे."
(सन्दर्भ ग्रन्थ - शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति)

-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार
"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे"

-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार
"ब्राह्मण वही हे जो "पुंस्त्व" से युक्त हे. जो "मुमुक्षु" हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे"
(सन्दर्भ ग्रन्थ - शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक)
.
किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन शकता हे यह भी उतना ही सत्य हे.
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे.....

(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
.
मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी. वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.
"कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम" साकारित करे.
सर्वं खल्विदं ब्रह्मं. ओम.
-समर्पण त्रिवेदी.


ब्राह्मण  वैदिक  किताबों से  और उसका अर्थ

वैदिक सनातन धर्म में मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों को “ वेद ”-नाम

से कहा गया है—

“ मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ”—कात्यायन+आपस्तम्ब |

ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति है—“ ब्रह्मणो—मन्त्रात्मकस्य वेदस्य इदम्—

यज्ञक्रियादितद्बोधकमन्त्र व्याख्यानस्वरूपप्रतिपादकं प्रवचनं ब्राह्मणम् “ |


ब्रह्म अर्थात मन्त्रामक जो संहिता भाग है उससे सम्बद्ध अर्थात् यज्ञादि कर्मों

एवं उनके बोधक मन्त्रों  के व्याख्यानात्मक स्वरूप का प्रतिपादक प्रवचन ब्राह्मण

कहा जाता है |


ब्रह्म का अर्थ “ मन्त्र ” वेद से ही ज्ञात होता है—ब्रह्म वै मन्त्रः

                                       —शतपथ ब्राह्मण-७/१/१/५,


भट्टभास्कर जैसे भाष्यकार कहते हैं कि जिस ग्रन्थ में यज्ञादि कर्म

और उनसे सम्बद्ध मन्त्रों का व्याख्यान हो उसे ब्राह्मण कहते हैं—


“ ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणांच व्याख्यानग्रन्थः “—तै०सं०—१/५/१,


अब प्रकृत में आयें |


स्वामी दयानंद ब्राह्मण भाग के वेदत्व का खंडन करने के लिए

लिखते हैं—

“लौकिकास्तावद् गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति |

वैदिकाः खल्वपि “ शन्नो देवीरभीष्टये , इषे त्वोर्जे वा ,अग्निमीले

पुरोहितम्,अग्न आयाहि वीतये इति | यदि ब्राह्मणभागस्यापि

वेदासंज्ञाsभीष्टाभूत्तर्हि तेषामप्युदाहणणमदाद् महाभाष्यकारः |

--“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि

तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “|

              --------------ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका—वेदसंज्ञाविचारप्रकरण, 


  स्वामी जी यहाँ कह रहे हैं कि महाभाष्यकार पतंजलि ब्राह्मण भाग को वेद

नही मानते ,क्योंकि उन्होंने लिखा है कि लौकिक लोग गौः, अश्वः, पुरुषः,

हस्ती, शकुनिः,मृगः,ब्राह्मणः—ऐसा प्रयोग करते हैं और वैदिक लोग –

“ शन्नो देवी---वीतये “ ऐसा प्रयोग |


यदि महाभाष्यकार को ब्राह्मणभाग की वेदसंज्ञा अभीष्ट होती तो उसका

भी उदाहरण ऋग्वेद आदि के मन्त्रों की तरह देते, किन्तु दिए नही, अतः

महाभाष्यकार को मन्त्रभाग की ही वेदसंज्ञा अभिमत है,इसीलिये उन्होंने

मन्त्रभाग के ही प्रथम मंत्र के प्रतीक को लेकर उदाहरण के रूप में प्रस्तुत

किया |


आचार्य सियारामदास नैयायिक—वाह स्वामी जी ! आपकी तर्कोपस्थापनकला

अद्भुत है और महाभाष्य का अध्ययन भी गजब |

क्योंकि “ महाभाष्य के पस्पशाह्निक में ही महाभाष्यकार ब्राह्मणभाग के उन

वाक्यों को प्रस्तुत करते हैं जिन पर आप जैसे महामनीषी की दृष्टि ही नही गयी—

“ वेदे खल्वपि –‘ पयोव्रतो ब्राह्मणः-यवागूव्रतो राजन्यः-आमिक्षाव्रतो वैश्यः ‘

इत्युच्यते |---बैल्वः खादिरो वा यूपः स्यात् |

--अग्नौ कपालान्यधिश्रित्याभिमन्त्रयते “|

--यहाँ भगवान भाष्यकार ने “ वेदे “ इस शब्द से वेद का नाम लेकर

“ पयोव्रतो ब्राह्मणः—इत्यादि से जिन वाक्यों को प्रस्तुत किया है वे

ब्राह्मणभाग के ही तो हैं | मन्त्रभाग में तो उनका दर्शन ही दुर्लभ है |

और स्वामी जी ! आपकी पुस्तक “ संस्कार विधि “ के पृष्ठ ७९ के अनुसार

“ पयोव्रतः “ शतपथ ब्राह्मण का वचन है | “ बैल्वाः खादिरो वा “—ऐतरेय

ब्राह्मण की द्वितीय पंचिका के आरम्भ में है |


यदि ब्राह्मणभाग महाभाष्यकार को वेद मान्य नही होता, तो वे वेद का

नाम लेकर ब्राह्मणभाग के वाक्यों को क्यों उद्धृत करते ?


ऐसे ही अनेक स्थलों में महाभाष्यकार ने ब्राह्मणभाग के वाक्यों को

उद्धृत किया है, हम “ स्थालीपुलाक ” न्याय से एक स्थल को दिखाकर

आगे बढ़ेंगे-–


आचारे नियमः—आचारे पुनर्ऋषिर्नियमं वेदयते –“ तेsसुरा हेलयो हेलय

इति कुर्वन्तः पराबभूवुः “ इति |--पस्पशाह्निक,


यहाँ ऋषिः का अर्थ महावैयाकरण कैयट वेद लिखते हैं –ऋषिः –वेदः—प्रदीप |


  और यह वाक्य आप कहीं भी मन्त्रभाग में नहीं दिखा सकते | ऐसे बहुत से

ब्राह्मणभाग के वाक्य महाभाष्यकार द्वारा वेदत्वेन उल्लिखित हैं |


अतः महाभाष्यकार भी ब्राह्मणभाग को वेद मानते हैं |


स्वामी दयानन्द पर आपत्ति—आपने ब्राह्मणभाग के वेदत्व का खण्डन करते

हुए जो यह लिखा—


“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि

ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “ |


-- जो गौः अश्वः इत्यादि लौकिक उदाहरण दिए गए हैं वे ब्राह्मण आदि

ग्रन्थों में ही घटते हैं, क्योंकि उन्ही में ऐसे शब्दप्रयोग देखे जाते हैं |


यहाँ “ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते “—वाक्य में एवकार का प्रयोग

आपके मानसिक इलाज की और संकेत कर रहा है , क्योंकि महाभाष्यकार

ने जिन ७ गौः आदि प्रयोगों का नाम लिया है क्या उतने ही  लोक में प्रयुक्त

होते हैं? या उससे अधिक ?


प्रथम कल्प अंगीकार्य नही हो सकता ,क्योंकि उनसे भिन्न घटः, पटः,

राजा ,रक्षान्सि,पिशाचाः,इन्द्रः,हव्यवाहम्,आदि बहुत से प्रयोग हैं जो लोक में

प्रयुक्त होते हैं |


यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार करें,तो उनका प्रयोग मन्त्रभाग में भी प्रचुर मात्रा

में मिलने से

“ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “

कथन की धज्जी उड़ जायेगी |


देखें उनकी कुछ झलक-- “ रक्षान्सि,पिशाचाः—अथर्ववेद—१/६/३४/२,

इन्द्रः-ऋग्वेद—५/७/९/१,हव्यवाहम्—ऋग्वेद-८/१/१२,  ,हिरण्यम्,दुहिता—

शुक्ल यजुर्वेद-१९/४, आदि --ये प्रयोग मन्त्रभाग में भी मिलते हैं |


इतना ही नही महाभाष्यकार द्वारा प्रदर्शित सभी लौकिक प्रयोग मन्त्रभाग

में मिलते हैं | देखें—गौः+अश्वः –ये दोनो शब्द यजुर्वेद में आये है | पुरुषः+ब्राह्मण

—शब्द यजुर्वेद, हस्ती शब्द –अथर्ववेद-३/४/२२/३,, शकुनि+मृग--शब्द–ऋग्वेद,


अतः केवल अहंकार से आक्रान्त आपके अनुसार अब तो मन्त्रभाग भी वेद नही

कहा जा सकता क्योंकि वे प्रयोग यहाँ भी मिल रहे हैं |


चले थे ब्राह्मणभाग के वेदत्व  का खंडन करने, उलटे संहिताभाग के वेदत्व से ही

हाथ धो बैठे—“ चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनकर लौटे “ कहावत चरितार्थ हो गयी |


>>>>>जय श्रीराम, जय वैदिक सनातन धर्म<<<<<  


 --ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का क्रमशः खण्डन-- आचार्य सियारामदास नैयायिक

शुक्रवार, 14 जून 2013

भगवान परशुराम जीवन दर्शन

परशुराम रामायण काल के मुनी थे। भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि-यज्ञ से प्रसन्न देवराज इंद्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववंद्य महाबाहु परशुरामजी का... जन्म हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्निका पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए। आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीकके आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यपजीसे विधिवत अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ। तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंगस्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरूभी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्पान्त पर्यंत तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्रम्भी लिखा। वे पुरुषों के लिए आजीवन एक पत्नी-व्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि-पत्नी अनसूया,अगस्त्य-पत्नी लोपामुद्राव प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से नारी-जागृति-अभियान का विराट संचालन भी किया। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर शस्त्रविद्या प्रदान करना शेष है।

परशुरामजी का उल्लेख बहुत से ग्रंथों में किया गया है - रामायण, महाभारत, भागवत पुराण, और कल्कि पुराण इत्यादि में। वे अहंकारी और धृष्ठ हैहय-क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है की भारत के अधिकांश भाग और ग्राम उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी संतानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं किया करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाए रखना था। वे चाहते थे की यह सारी सृष्टि पशु-पक्षियों, वृक्षों, फल-फूल औए समूचि प्रक्र्ति के लिए जीवंत रहे। उनका कहना था की राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकी अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।

यह भी ज्ञात है कि परशुरामजिइ नें अधिकांश विद्याएं अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीखीं थीं (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वह पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक की कई खूंखार वनीय पशु भी उन्के स्पर्श मात्र से उनके मित्र बन जाते थे। उन्होंने सैन्यशिक्षा के ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण।

पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।

श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी। अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।

कथानक है कि हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। कुपित परशुरामजी ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के दस हजार पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में ध्यानस्थ जमदग्निका वध कर डाला। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गई। क्षुब्ध परशुरामजी ने प्रतिशोधवश महिष्मती नगरी पर अधिकार कर लिया, इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और हैहयों के रुधिर से स्थलंतपंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। तब उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ कर सप्तद्वीपयुक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और इंद्र के समक्ष शस्त्र त्यागकर सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेंद्र पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुंच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रिय कुलद्रोही बताते हुए बहुत क्रोधित हुए और फिर वैष्णवी शक्ति का हरण होने पर संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा-याचना कर तपस्या के निमित्त वन-गमन कर गए वाल्मीकी रामायण में दशरथनंदन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया, और परशुराम ने श्रीरामचंद्रजी की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविंदों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की। भीष्म द्वारा स्वीकार ना किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुरामजी के पास आई। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा और उनके बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला| किंतु परशुराम उन्हें हरा ना सके।

परशुराम अपने जीवनभर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किंतु दुर्भाग्यवश वे तब तक सबकुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा| तब चतुर द्रोणाचर्य ने कहा की मैं आपके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके मंत्रो समेत चाहता हूँ, जब भी उनकी आवश्यक्ता हो। परशुरामजी ने कहा ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।

परशुरामजी कर्ण के भी गुरु थे। उन्होने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षा दी और ब्र्ह्मास्त्र चलाना भी सीखाया। लेकिन कर्ण एक सुत पुत्र था और फीर भि ये जानते हुए भि के परशुरामजी सिर्फ ब्राह्मणों को अपनी विधा दान करते है कर्ण फरेब करके परशुरामजी से विधा लेने पहोच गया। परशुरामजी ने उसे ब्राह्मण समजकर उसे बहुतसारी विधा सिखाइ , लेकिन एक दिन जब परशुरामजी एक पेड के निचे कर्ण की गोदी मे सर रखके सो रहे थे , तब एक भौरा आकर कर्ण के पैर पर काट ने लगा , अपने गुरुजी कि निद मे कोइ अवरोध ना आये इसलिये वो भौरे को सेहता रहा, भौरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काट रहा था , भौरे के काट ने के कारण कर्ण का खुन बहने लगा , वो खुन बहेता हुवा परशुरामजी के पैरो के पास पहुचा , परशुरामजी की नीन्द खुल गइ और वे इस खुन को तुरन्त परख गए इस घटना के कारण कर्ण जैसे महायोद्धा को अपनी अस्त्र विद्या का लाभ नहीं मिल पाया। कर्ण के मिथ्याभाषण पर उसे ये श्राप दे दिया की जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यक्ता होगी, तब वह उसके काम नहीं आयेगी। वर्षों बाद महाभारत के युद्ध में एक रात कर्ण ने अपने गुरु का स्मरण किया और उनसे उनके दिये श्राप को केवल एक दिन के लिये वापस लेने का आग्रह किया। किंतु धर्म की विजय के लिये गुरु परशुराम ने कर्ण को ये श्राप स्वीकार करने के लिये कहा, क्युंकि कर्ण अधर्म के प्रतीक दुर्योधन की ओर से युद्ध कर रहा था, और परिणाम स्वरुप अगले दिन के युद्ध में कर्ण को अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त होना पडा़।

भगवान की आरती का विधान

हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म-कांड के बाद भगवान की आरती उतारने का विधान है। देखने में आता है कि प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी इच्छानुसार भगवान की आरती उतारता है। जबकि भगवान की आरती उतारने के भी कुछ विशेष नियम होते हैं।

आरती के दो भाव है जो क्रमश: 'आरात्रिक अथवा ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके।

दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है। ‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।

आरती कैसे करे

आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में धृत से या कपूर से विषम संख्या की (1,5,7,11,21,101) अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये-विषम संख्याओ में तीन की संख्या वर्जित है.

तत्श्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:।।
प्रज्वलयेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम्।।

साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है-

कुंकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता:
वर्तिका: सप्त वा पंच कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यकै:।

‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा दिये की (रुई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।’

‘आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाये, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाये’इl तरह चौदह बार आरती घुमानी चाहिये.
जिस देवता की आरती करनी होती है, उस देवता का बीज मंत्र, स्नान थाली, नीराजन थाली, घण्टिका और जल कमण्डलु आदि पात्रों पर चन्दन आदि से लिखना चाहिए और फिर आरती द्वारा भी बीज मंत्र को देव प्रतिमा के सामने बनाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति तत्तद देवताओं के बीज मंत्रों का ज्ञान न रखता हो तो सभी देवताओं के लिए 'ऊं' को लिखना चाहिए। अर्थात आरती को इस प्रकार घुमाना चाहिए, जिससे 'ऊं' के वर्ण की आकृति बन जाए।

आदौ चतु: पादतले च विष्णो-
र्द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चांग्ङेषु च सप्तवारा-
नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।
आरती के अंग
आरती के पाँच अंग होते हैंअर्थात केवल आरती करना अकेला नहीं आता बल्कि उसके साथ साथ कुछ और क्रियाए भी होती है जिसे आरती के अंग कहा जाता है -

पंच नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्चत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पंचमं प्रणिपातेन साष्टांकेन यथाविधि।।

अर्थात - ‘प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करे।’

१. दीपमाला के द्वारा - साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।

२. सोदकाब्ज – जल युक्त शंख चौदह बार प्रज्वलित ज्योतियो द्वारा आरती करने से इष्ट देव के श्री अंगों को जो ताप पहुँचता है उसके निवारण शीतलीकरण के लिए शंख में जल भरकर बार बार घुमाया जाता है,और बीच बीच में थोडा थोडा जल भूमि पर छोड़ा जाता है शंख के अभाव में शुद्ध पात्र द्वारा भी निर्मच्छन किया जाता है .
३.धौतवास - अर्थात धुला हुआ वस्त्र, दाये हाथ में शुद्ध स्वच्छ मुलायम और सुखा वस्त्र लेकर उसी प्रकार घुमाया जाता है इसका भाव यह है कि जल से शीतलीकरण करते हुए जो भावमय जल बिंदु इष्ट के श्री अंगों पर पड़ गए हो उन्हें पोछना .
४. चमर – मयूरपिच्छ का पंखा लेकर श्री विग्रह से ऊपर हवा में लहराते हुए धीरे धीरे घुमाना इस प्रकार शीतल मंद पवन से इष्ट को आराम पहुँचाना चमर को जोर से तीव्र गति से पंखे कि भांति नहीं चलाना चाहिये .
५. दंडवत – साष्टांग प्रणाम इसका भाव स्वतः स्पष्ट है आत्म निवेदन–समर्पण और क्षमा प्रार्थना करना.
आरती लेने का अर्थ –
ऐसे कहा जाता है कि प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- उनकी ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। आरती के साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गाये जाते हैं।
आरती देखने का महत्व –
आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-

नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।१
धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां च प्रवन्दते।
कुलकोटि समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।२
१. अर्थात - ‘जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान् की आरती (सदा) देखता है, वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परमपद को प्राप्त होता है।’
२. अर्थात - ‘जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है
और भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।’

ध्यान रखने योग्य बाते – १. - पंच नीराजन में जलते हुए दीप युक्त दीप पात्र को आरती से पूर्व और आरती से बाद खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये ,लकड़ी या पत्थर कि चौकी या किसी पात्र में आरती पात्र को रखना चाहिये.
“भूमौ प्रदीप यो र्पयति सोन्ध सप्तजन्मसु “
२. – निर्मच्छन हेतु शंख में जल भरने के लिए शंख को जल में डुबोकर कभी नहीं भरना चाहिये.ऊपर से जल डालकर शंख में भरना चाहिये .बजाने वाले (छिद्रयुक्त)शंख में जल भरकर निर्मच्छन नहीं करना चाहिये .शंख चाहे रिक्त हो या जल से भरा कभी खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये.
३. – निर्मच्छन में उपयुक्त वस्त्र स्वच्छ शुद्ध कोमल हो,उसे अन्य कार्य में ना लिया जावे यहाँ तक कि श्री विग्रह के स्नानोपरांत अंग पोछने के कार्य में भी ना लिया जावे .
४. – आरती में बजाई जाने वाली घंटी को भी भूमि पर नहीं रखनी चाहिये .

आरती के महत्व को विज्ञानसम्मत भी माना जाता है। आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएँ तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं को निर्मूल करता है। इसे आज का विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है।

रविवार, 19 मई 2013

ब्रह्मरिशी देवरहा बाबा


 वह बबूल का पेड नहीं मेरा शिष्‍य है, न कटेगा, न छांटा जाएगा
प्रधानमंत्री का कार्यक्रम टल गया, मगर पेड को आंच न आने दी
न उम्र का पता, न इतिहास का, लेकिन हरदिल अजीज रहा दिगम्‍बर
पूरा जीवन नदी के किनारे मचान पर ही काट दिय...ा देवरहा बाबा ने
अमरकंटक में तो आंवले के पेड ने उन्‍हें अमलहवा बाबा बना दिया
प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मथुरा के माठ इलाके में यमुना के किनारे एक साधु के दर्शन करने आना था। एसपीजी के साथ जिला और प्रदेश का सुरक्षा बल तैनात हो गया। प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गयी। आला सुरक्षा अफसरों ने हेलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड की डाल छांटने के निर्देश दिये। भनक लगते ही साधु ने एक बडे पुलिस अफसर को बुलाया और पूछ लिया- यह पेड क्‍यों छांटोगे।
जवाब मिला- पीएम की सुरक्षा के लिए जरूरी है।
बाबा- तुम यहां अपने पीएम को लाओगे और प्रशंसा पाओगे, पीएम का भी नाम होगा कि वह साधुसंतों के पास जाता है। लेकिन इसका दंड तो इस बेचारे पेड को ही भुगतना होगा। वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्‍या जवाब दूंगा। नहीं, यह पेड नहीं छांटा जाएगा।
प्रशासन में हडकंप मच गया। अफसरों ने अपनी मजबूरी बतायी कि दिल्‍ली से आये आला अफसरों ने यह फैसला लिया है, इसलिए इसे छांटा ही जाएगा। अब कुछ नहीं हो सकता। और फिर, पूरा पेड तो कटना है नहीं, केवल उसकी कुछ डाल काटी जाएगी।
मगर साधु टस से मस नहीं हुआ। बोला- यह पेड होगा तुम्‍हारी निगाह में, मेरा तो सबसे पुराना शिष्‍य है। दिनरात मुझसे बतियाता है। यह पेड नहीं कटेगा।
उधर अफसरों की घिग्‍घी बंधी हुई थी। साधु का दिल पसीज गया। बोले- और अगर यह कार्यक्रम टल जाए तो।
तयशुदा कार्यक्रम को टाल पाने में अफसरों ने भी असमर्थता व्‍यक्‍त कर दी। आखिरकार साधु बोला- जाओ चिंता मत करो। तुम्‍हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं। और, आश्‍चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि पीएम का प्रोग्राम टल गया है। कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आये, लेकिन इस बार यह पेड नहीं छांटा गया।
यह थे देवराहा बाबा। न उम्र का पता और न अंदाजा। न कपडा पहनना और ना भोजन करना। उन्‍हें न तो किसी ने खाते देखा और ना ही पानी पीते। शौचादि का तो सवाल ही नहीं। हां, दिन में चार-पांच बार वे नदी में सीधे उतर जाते थे और प्रत्‍यक्षदर्शी बताते हैं कि आधा-आधा घंटा तक वे पानी में रहते थे। इसपर उठी जिज्ञासाओं पर उन्‍होंने शिष्‍यों से कहा- मैं जल से ही उत्‍पन्‍न हूं।
उनके भक्‍त उन्‍हें दया का महासमुंद बताते हैं। और अपनी यह सम्‍पत्ति बाबा ने मुक्‍त हस्‍त से लुटाई। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वितरण में कोई विभेद नहीं। वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा। मान्‍यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है। कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्‍या है। दिव्‍यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कडक आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याददाश्‍त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्‍यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्‍प्‍यूटर की तरह। हां, बलिष्‍ठ कदकाठी भी थी। लेकिन देह त्‍यागने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे।
ख्‍याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लावलश्‍कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियरा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया। दरअसल, इंग्‍लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्‍या वास्‍तव में इंडिया के साधुसंत महान होते हैं। प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन १९११ की बात है। जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्‍वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बिरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी। उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्‍यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं। डॉक्‍टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने मातापिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे। बाबा देखते ही बोल पडे- यह बच्‍चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्‍ट्रपति बनने के बाद उन्‍होंने बाबा का एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन ५४ के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया। बाबा के भक्‍तों में लालबहादुर शास्‍त्री, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी बाजपेई जैसी हस्तियां भी थीं। पुरूषोत्‍तम दास टंडन को तो उन्‍हें राजर्षि की उपाधि तक दे डाली।
तो शुरूआत फिर बाबा से ही। वे कब, कहां और किसके यहां जन्‍मे, कोई नहीं जानता। यह भी नहीं कोई नहीं जानता कि बाबा ने वस्‍त्र त्‍याग कर कब दिगम्‍बर चोला अपनाया। वरिष्‍ठ आईपीएस अधिकारी शैलजाकांत मिश्र बताते हैं कि उनकी परदादी के समय तक भी बाबा वैसे ही थे, जैसे सन १९९० में। हां, दियरा इलाके में रहने के चलते ही शायद उनका नाम देवरहा बाबा पडा होगा। लेकिन नर्मदा के अमरकंटक में आंवले के पेड होने के नाते वहां उनका नाम अमलहवा बाबा भी पड गया।
उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। मइल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के माठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्‍तगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्‍तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी।
और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्‍होंने दर्शन देना बंद कर दिया। लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का मिजाज बदल गया। यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे। डॉक्‍टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर आमादा है।१९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी। आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं। यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी। लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा। और इन्‍हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्‍पंदनरहित हो गया। भक्‍तों की अपार भीड भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी। बर्फ की सिल्लियां लगा कर बाबा की पार्थिव देह को सुरक्षित रखने का प्रयास कर दिया गया। अब तक देश-विदेश तक में बाबा के ब्रह्मलीन हो जाने की खबर फैल चुकी थी। लेकिन अचानक ही बाबा के सिर पर स्‍पंदन महसूस किया गया। कि अचानक ही बाबा का ब्रह्मरंध्र खुल गया। उनके शिष्‍य देवदास ने उस ब्रह्मरंध्र को भरने के लिए फूलों का सहारा लिया, लेकिन वह भर नहीं पाया।
आखिरकार, दो दिन बाद बाबा की देह को उसी सिद्धासन-त्रिबंध की स्थिति में यमुना में प्रवाहित कर दिया गया।

शुक्रवार, 17 मई 2013

श्री आदि शंकराचार्य

अद्वेत दर्शन के महान् आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव ७८० ईस्वी में हुआ। केरल प्रदेश में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में महान् भक्त शिव गुरु के घर माता विसिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया। शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा। आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया। गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले। तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे। मणिकर्णिका पर यह बाल-आचार्य वृद्ध शिष्यों को 'मौन व्याख्यान' देता था। काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें 'अद्वेत' का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे। सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।

प्रयाग में कुमारिल भ से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।

भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है। उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था। अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। धर्म संस्थापना के उनके इस कार्य को देख कर यह विश्वास दृढ़ हो उठता है कि वे साक्षात् शंकर के अवतार थे -

"शंकरो शंकर: साक्षात्"।

उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वेतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वेतवाद का प्रवर्त्तक माना जाता है। ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है। उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए और ३२ वर्ष की आयु में तिरोहित हुए। उनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल ५ को हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।

उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है। पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये। वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।

एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया। माँ हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा। माँ ने आज्ञा दे दी। जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा। घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये। गुरु की आज्ञा से वे काशी आये। यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।

बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे। वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे। उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भट्ट से भेंट की। कुमारिल भट्ट के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये। उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया। अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।

उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिखे हैं। उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं - ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।

ज्ञान का भंडार कभी भी भरता नहीं
एक बार स्वामी शंकराचार्य समुद्र किनारे बैठकर अपने शिष्यों से वार्तालाप कर रहे थे कि एक शिष्य ने चाटुकारिता भरे शब्दों में कहा, ''गुरुवर! आपने इतना अधिक ज्ञान कैसे अर्जित किया, यही सोचकर मुझे आश्चर्य होता है। शायद और किसी के पास इतना अधिक ज्ञान का भंडार न होगा!''

''मेरे पास ज्ञान का भंडार है, यह तुझे किसने बताया? मुझे तो अपने ज्ञान में और वृद्धि करना है।''-शंकराचार्य बोले।

फिर उन्होंने अपने हाथ की लकड़ी को पानी में डुबाया और उसे उस शिष्य को दिखाते हुए बोले, ''अभी-अभी मैंने इस अथाह सागर में यह लकड़ी डुबायी, किंतु उसने केवल एक बूंद ही ग्रहण की। बस यही बात ज्ञान के बारे में है। ज्ञानागार कभी भी भरता नहीं, उसे कुछ न कुछ ग्रहण करना ही होता है। मुझसे भी बढ़कर विद्वान् विद्यमान हैं। मुझे भी अभी बहुत कुछ ग्रहण करना है।''

तरुण संन्यासी के पाँव पर मत्था टेका

"देवी! इस नगरी में मण्डन मिश्र कहाँ रहते हैं?"
मार्ग में जा रही कुछ स्त्रियों को देखकर एक पथिक ने प्रश्न किया। पथिक युवा है, काषायवेषधारी संन्यासी। ब्रह्मचर्य का तेज उसके भव्य मुखमंडल पर दीप्त हो रहा है। ऑंखों में आत्मतेज का प्रकाश। उस स्वस्थ, सुशील, सुदर्शन युवक की वाणी मे जैसे चमत्कार मुखर था। मार्ग चल रहीं वे स्त्रियाँ विरम गयीं। वे मण्डन मिश्र के घर की ही सेविकाएं थीं। एक ने प्रसन्न हो राही के प्रश्न का उत्तर दिया-

''स्वत:प्रमाणं परत:प्रमाणं
कीरांगना यत्र गिरागिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर-सन्निरुद्धा
जानीहि तन्मंडन पण्डितौक:॥''
(वेद अपने आप में स्वयंप्रमाण हैं या उन्हें अन्य प्रमाण अपेक्षित हैं- यह तर्क जहाँ पिंजरस्थ मैनाएं करती हों, आप समझ जाइएगा, वही पं. मण्डन मिश्र का आवास है।)
संन्यासी को हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ। अच्छा, तो इस मनीषी के द्वार पर टँगी मैनाएं भी शास्त्रार्थ करती हैं! और ये महिलाएं यद्यपि देखने में सेविकाएं जैसी प्रतीत होती हैं, ऐसी सुन्दर छन्दोबद्ध संस्कृत बोल सकती हैं! पूछा- 'भद्रे! आप का परिचय?'

'हम उन्हीं पंडितप्रवर की परिचारिकाएं हैं।'

और वह पथिक पंडितजी के मकान की खोज में चल पड़ा। क्यों कर रहा है वह उन कर्मकाण्डी पंडितजी की तलाश?
कुमारिल भट्ट ने प्रयाग में तुषाग्रि में जीवित जलने की तैयारी करते हुए उसे इन पंडितजी का पता-ठिकाना बताया था, बड़ी प्रशंसा की थी और कहा था, 'वैदिक धर्म-तत्पर, सुकर्म-निरत, प्रवृत्ति शास्त्र के समर्थक वे मण्डन मिश्र लोगों में 'विश्वरूप' नाम से विख्यात हैं।''

''सदावदन योगभंद च साम्प्रतं
स विश्वरूप: प्रथितो महीतले।
महागृही वैदिक धर्म-तत्पर:
प्रवृत्तिशास्त्रे निरत: सुकर्मत:॥''

वे महान गृहस्थ निवृत्तिमार्ग के घोर विरोधी हैं, इसीलिए वह संन्यासी उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें अपने पथ का पथिक बनाना चाहता है। कारण, संपूर्ण भारत में वैचारिक-सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का महाव्रत उसने इतनी अल्पायु में ही लिया है।

इसी उद्देश्य से महान मीमांसक कुमारिल भट्ट से भी भेंट करने गया था प्रयाग, परन्तु वे स्वेच्छया देह-त्याग के लिए भूसी की आग की चिता सजा कर बैठे मिले।

कहा, 'हम तो जा रहे हैं, आप यदि इस अद्वैत का प्रसार दिग्दिगन्त में करने के आग्रही हैं तो सुधीश्वर मण्डन मिश्र को अवश्य जीतिए क्योंकि उन्हें जीत लेने पर सभी को आप ने जीत लिया है, यह माना जायेगा।
''अयं च पन्था यदि ते प्रकाश्य:
सुधीश्वरो मण्डन मिश्र नामा।
दिगन्तविश्रान्त यशो विजेयो
यस्मिन् जिते सर्वमिदं जितं स्यात्।।"

किन्तु वे पंडितजी महाराज निवृत्तिमार्ग (संन्यास) को तनिक भी सम्मान या समर्थन नहीं देते; इसीलिए आप पहले उन्हें अपना अनुवर्ती-वशवर्ती बनाइए, तभी आप सफल-मनोरथ हो सकेंगे अन्यथा वह आप के विरोध में लगा रहेगा और अद्वैत मत के प्रसार में बाधा आयेगी। आज शीघ्र ही उन से जाकर मिलिए।
"निवृत्तिशास्त्रे न कृतादर: स्वयं
केनाप्युपायेन वशं स नीयताम्।
वशं गते तत्र भवेन्मनोरथ-
स्तदन्तिकं गच्छतु मा चिरं भवान्।"

और फिर उन पंडितजी को घेरने की एक युक्ति भी संकेत में उन्हें बता दी। कहा, जब मंडन मिश्र से आपका शास्त्रार्थ हो तो उसका निर्णायक बनाइए उनकी विदुषी भार्या भारती को। पंडितजी की उसी प्रियतमा, प्रेयसी को आप साक्षी बनायें, मध्यस्थ।
''सर्वासु शास्त्रसरणीषु स विश्वरूपो,
मत्तोऽधिक: प्रियतमश्च मदाश्रयेषु।
तत्प्रेयर्सी रामधनेन्द विधाय साक्ष्ये,
वादे विजित्य तमिमं कुसुमं विदेहि।''

तभी उस संन्यासी ने कुमारिल भट्ट को तारक मंत्र का उपदेश दिया और वह मीमांसक तुषाग्नि की चिता में देह-त्याग करने के लिए जा बैठा। संन्यासी ने मण्डन मिश्र की खोज में माहिष्मती नगरी का पथ पकड़ा। ये मण्डन मिश्र कुमारिल भट्ट के शिष्य थे।
माहिष्मती पहुँचकर वह तरुण माहिष्मती नगर के बहिरंग में अवस्थित एक अमराई में टिक गया। अपराह्न में वह पंडित के घर की तलाश में चला और फिर राह चलती दासियों से उस घर का पता पाकर वह एक ऐसे ही मकान के आगे ठहर कर क्या सुनता है कि पिंजड़ों में छ: मैनाएं परस्पर शास्त्रार्थ कर रही हैं कि 'वेद स्वत: प्रमाण हैं या परत:प्रमाण्य?'

परंतु फिर देखा, पंडितजी के घर श्राद्धकर्म संपन्न हो रहा है। ऐसे में संन्यासी का घर में प्रवेश वे वर्जित मानते होंगे, अत: पिछवाड़े से वह मकान में प्रविष्ट हुआ और आंगन में जहाँ पंडित मण्डन मिश्र खड़े थे, जा पहुँचा। पंडितजी कुपित। उसकी प्रत्यक्ष अवमानना करते पूछा-''कुत्तो मुण्डी? (अरे ओ मुण्डित मस्तक!) यहाँ कैसे घुस आये? देखते नहीं, श्राद्ध हो रहा है?''

और बस, वहीं दोनों में तर्क-वितर्क (शास्त्रार्थ) प्रारंभ हो गया। शर्त रखी गयी कि कौन जीता और कौन हारा। पंडितजी को उस में क्या आपत्ति हो सकती थी! भारती आखिर उनकी प्राणोपम प्रेयसी थी, प्रणयिनी। उन दोनों में पूर्व-प्रणयभाव प्रतिष्ठित रहने से ही विवाह-बंधन में बँधे थे और सद्गृहस्थ के रूप में प्रख्यात थे।

प्रणय भी इसलिए हो सका उनमें कि पं. विष्णुमित्र की बेटी भारती सर्वशास्त्र-निष्णाता परम विदुषी के नाते चतुर्दिक प्रशंसित थी और मंडन मिश्र भी अच्छे शास्त्रज्ञ तथा तर्कशास्त्री थे। दोनों बिहार में जन्मे। मण्डन मिश्र के पिता हिम मिश्र राजगृह में रहते थे, भारती का राजगृह के समीप सोन नदी-तटवर्ती एक ग्राम में वास था। दोनों परस्पर प्रणयपाश में आबद्ध हुए तो घर वालों ने भी खुशी-खुशी उनका विवाह संपन्न करा दिया। भारती जैसे सरस्वती का प्रतिरूप हो, वह मंडन मिश्र की प्रेरणा, पथ का स्फुरण बनी रही। दोनों एक ही पथ के पथिक, एक ही कर्म-विचार में निष्ठावान। न कभी कलह, न क्लेश। एकरस सुखी जीवन बीत रहा था। ऐसे में वह संन्यासी बीच में आ गया है। भारती सोच रही है: प्रभु की इच्छा से शायद कुछ अघटित घटने वाला है, तभी तो यत ने मुझे ही निर्णायिका बना दिया। यह कठिन कर्तव्य मैं पूरी सच्चाई से निभा सकूँ, हे भगवान्! वह शक्ति मुझे प्रदान करना।

मण्डन मिश्र प्रौढ़वयी हैं, संन्यासी अभी उनके सामने बालकतुल्य, फिर भी शास्त्रार्थ जब पूर्ण हो गया तो भारती ने निर्णय उस संन्यासी के पक्ष में दिया- पति को पराजित घोषित करने में उसने किंचित् भी हिचक नहीं अनुभव की। श्रोतागण चकित-स्तंभित कि भारती ने पति का तनिक भी पक्ष नहीं लिया। पूर्ण निष्पक्षता आचरित की उसने। वह जानती थी, शास्त्रार्थ की निर्धारित शर्त के अनुसार पति को हार जाने पर संन्यासी जीवन ही जीना-बिताना होगा, घर-गृहस्थी त्याग देनी होगी। तभी भारती ने टोका,

'यतिवर! आपने पति को तो जीत लिया परंतु वह विजय अपूर्ण है अभी, क्योंकि मैं उनकी अर्धांगिनी अभी अपराजिता ही हूँ। मुझे भी जीत सको तो यह विजय पूर्णता प्राप्त कर सकेगी।'

संन्यासी संकट में पड़ गया। संन्यास व्रत लेकर स्त्री से कैसे उलझे? परंतु भारती मानी नहीं। भारती ने गृहस्थ जीवन के कुछ ऐसे रहस्यात्मक निगूढ़ प्रश्न किये थे जिनसे वह बाल-ब्रह्मचारी नितान्त अनभिज्ञ था। अत: उसने भारती से मोहलत ली और अमरुक नाम के एक मृत नरेश की देह में प्रवेश कर राजमहलों के गृहस्थाश्रम के अनुभव प्राप्त किये। तब तक अपनी देह एक नीरव गुहा में डाल रखी। जानकारी लेकर राजा अमरुक के शरीर से उस संन्यासी का जीवात्मा पुन: अपनी देह में स्थित हुआ और माहिष्मती आकर भारती के प्रश्नो के उत्तर देकर उसे भी पराजित किया। भारती ने हार मान ली।

मण्डल मिश्र ने संन्यासी के पाँवों पर माथा टेक कर कहा, ''गुरुदेव! आपके करुणा-कटाक्ष से मैं धन्य हुआ।''

साथ ही उन्होंने गृहस्थी त्याग दी, संन्यासी के अनुगामी होकर अद्वैत के प्रचार-प्रसार में शेष जीवन खपाया। वे विजेता संन्यासी थे आद्य शंकराचार्य।

विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) कृत 'शंकर दिग्विजय' के अनुसार संन्यासी जीवन में मण्डन मिश्र का नाम 'सुरेश्वराचार्य' प्रसिद्ध हुआ-इन्होंने एक 'वार्तिक' लिखा, जिसमें १२ सहस्र श्लोक हैं। यह वार्तिक शंकराचार्य के 'बृहदारण्यक भाष्य' पर है। अन्य ग्रंथ का नाम है 'नैष्कर्म्य सिद्धि', जो गृहस्थ जीवन में प्रवृति मार्ग के समर्थन में लिखे गये इनके अपने पूर्व-ग्रंथ 'ब्रह्मसिद्धि' के नितान्त विपरीत मत का है और जो सिद्ध करता है कि संन्यासी होकर इन्होंने अपने सभी पूर्वाग्रह तथा मतवाद तिनके की भाँति त्याग दिये।

सात साल की उम्र में वेदों के ज्ञाता
आदि गुरू शंकराचार्य भारतीय दर्शन जगत के सबसे प्रमुख स्तंभों में माने जाते हैं। उन्हें हिंदू धर्म को पुन: स्थापित एवं प्रतििष्ठत करने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने न केवल हिंदू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया बल्कि जनमानस में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य भी साबित करने का प्रयास किया।
शंकराचार्य असाधारण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने केवल सात साल की उम्र में वेदों के अध्ययन-मनन में पारंगता हासिल कर ली थी। उनका जन्म विक्रम संवत ७८८ को श्रृंगभेटी में हुआ था। यह जगह तुंगभद्रा नदी के किनारे है। केवल तीन साल की उम्र में उनके पिता शिवगुरू का निधन हो गया। इसके बाद माता आर्याम्बा ने उनका लालन-पोषण किया। जन्म के बाद उनके परिवार की हालत ठीक नहीं थी इसलिए उनका बचपन विपरीत परिस्थितियों में बीता। शंकराचार्य यज्ञोपवीत के बाद गुरू घर में पढ़ने चले गए। इसी समय धर्म के प्रति उनकी दिलचस्पी जगी। वे छोटी-सी उम्र में ही संन्यास लेना चाहते थे किंतु माता इस बात की अनुमति नहीं देतीं। माता द्वारा संन्यास की अनुमति देने के संबंध में एक कथा भी प्रचलित है। माना जाता है कि एक दिन बालक शंकर नदी स्नान को गए। इस दौरान माता भी उनके साथ थीं। नदी में बालक शंकर का पांव मगरमच्छ ने पकड़ लिया और गहरी धारा में उन्हें खींचने लगा। उनके जीवित रहने की आशा बिल्कुल न थी। तब बालक शंकर ने कहा कि माता यदि तुम मुझे संन्यास की अनुमति दे दो तो शायद मुझे जीवनदान मिल जाए। इस विकट परिस्थिति में माता ने उन्हें संन्यास की अनुमति दे दी और आश्चर्य कि इसके बाद मगर ने भी पैर छोड़ दिये। उस समय उनकी उम्र केवल आठ साल थी। संन्यास के बाद वे गुरू की खोज में मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात गोविन्द भगवता प्रसाद भट्ट से हुई जिनसे उन्होंने गुरूदीक्षा ली। गुरू दीक्षा के बाद उन्होंने भारत की पदयात्रा शुरू की। शंकराचार्य केवल १२ साल की उम्र में सारे शास्त्रों में पारंगत हो चुके थे और १६ साल की आयु में उन्होंने ब्रह्मसूत्र-भाष्य रच दिया। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और सद्भाव के लिए देश के चार कोनों में चारधाम तथा द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की। उन्होंने चार पीठ की भी स्थापना की। केवल ३२ साल की अल्पायु में केदारनाथ में उनका देहावसान हुआ लेकिन उनके जैसा दार्शनिक और धर्मज्ञानी विरले ही देखने में आते हैं।