स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -
"हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं है, यह एक उत्तम
जीवन पद्धति है" ।
सोमवार, 4 जुलाई 2011
त्रिदेव वास्तव में एक देव ही है,
सृष्टिस्थित्यन्त करणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम्.
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दन:
(विष्णु पुराण 1-2-66)
वह एक ही भगवान् जनार्दन जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव ‒ इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं.
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा
कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास:
साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च.
(श्वेताश्वतरोपनिषद्)
समस्त प्राणियों में स्थित एक देव है, वह सर्वव्यापक, समस्त भूतों का अन्तरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बसा हुआ, सबका साक्षी, सबको चेतनत्व प्रदान करने वाला, शुद्ध और निर्गुण है
ब्रह्मा की पूजा क्यों नहीं की जाती ?
सर्जक के रूप में ईश्वर को ब्रह्मा या प्रजापति कहा जाता है. इस नाम से उसकी स्तुति वेद में की गयी है. वैदिक काल में मन्दिरों का र्निमाण नहीं होता था. बाद में विष्णु, शिव और शक्ति के रूप को महत्व देते हुए वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदाय खड़े हो गये और इन सम्प्रदायों ने ही मन्दिरों का र्निमाण कराया. ब्रह्मा के नाम से कोई सम्प्रदाय नहीं खड़ा हुआ, अत: न तो ब्रह्मा के मन्दिर बने और न उनकी पूजा ही होती है. एक बार सृजन हो जाने के बाद क्रिया और प्रतिक्रिया का कर्म का सिद्धान्त लागू हो जाता है तथा विश्व की प्रत्येक शक्ति या विश्व के प्रत्येक तत्त्व को नियम का पालन करना होता है. पैदा होने के बाद मनुष्य को संरक्षण, धन, शक्ति अथवा मृत्यु-भय से मुक्ति चाहिए और वह विकल्प होने पर अपने प्रिय नामों को चुन लेता है. इसीलिए संरक्षण के लिए विष्णु नाम, धन के लिए लक्ष्मी नाम, शक्ति के लिए दुर्गा नाम आदि अधिक लोकप्रिय हो गये हैं. महाभारत का शान्ति पर्व कहता है कि ब्रह्मा सब प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं. दण्ड या वध का भय न होने से कोई उन्हें नहीं पूजता
महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का संदर्भ आता है जैसे चीन का गोबी मरुस्थल मिस्र की नील नदी , लाल सागर तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है, जो निम्नलिखित है-:
“ सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।
”
—वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत
अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है
RAM (राम)
मेरे मन मन्दिर मे राम बिराजे।
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
अधिष्ठान मेरा मन होवे।
जिसमे राम नाम छवि सोहे ।
आँख मूंदते दर्शन होवे
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
मेरे मन ...
सांस सांस गुरु मन्त्र उचारूं।
रोमरोम से राम पुकारूं ।
आँखिन से बस तुम्हे निहारूं।
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
मेरे मन ...
औषधि रामनाम की खाऊं।
जनम मरन के दुख बिसराऊं ।
हंस हंस कर तेरे घर जाऊं।
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
मेरे मन ...
बीते कल का शोक करूं ना।
आज किसी से मोह करूं ना ।
आने वाले कल की चिन्ता।
नहीं सताये हम को स्वामी ॥
मेरे मन ...
राम राम भजकर श्री राम।
करें सभी जन उत्तम काम ।
सबके तन हो साधन धाम।
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
मेरे मन ...
आँखे मूंद के सुनूँ सितार।
राम राम सुमधुर झनकार ।
मन में हो अमृत संचार।
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
मेरे मन ...
मेरे मन मन्दिर मे राम बिराजे।
ऐसी जुगति करो हे स्वामी ॥
सामवेद संहिता
" सामवेद संहिता "
सामवेद की अधिकांश ऋचाएं ऋग्वेद से ही ली गयी हैं। यह वेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है। इसकी प्रतिस्ठा अधिक होने का एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा 'वेदाना सामवेदोऽस्मि' कहना भी है।
सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीय, (२) राणायनीय और (३) जैमिनीय। सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि। (गीता-अ० १०, श्लोक २२)। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है- सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। (म०भा०,अ० १४ श्लोक ३२३)। सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को एसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है। उदाहरणतः- इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है। (सामवेद,ऐन्द्र काण्ड,मंत्र १२१), चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं। (सामवेद, ऐन्द्र काण्ड, मंत्र १४७)। साम मन्त्र क्रमांक २७ का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है। अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)