गुरुवार, 29 सितंबर 2011

नवरात्रि क्यों मनाई जाती है और माँ दुर्गा की आराधना क्यों की जाती है

नवरात्रि क्यों मनाई जाती है और माँ दुर्गा की आराधना क्यों की जाती है;............. इसको लेकर दो कथाएँ प्रचलित हैं.... एक कथा के अनुसार लंका युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण-वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा और विधि के अनुसार चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ 108 नीलकमल की व्यवस्था भी करा दी, वहीं दूसरी ओर रावण ने भी अमरत्व प्राप्त करने के लिए चंडी पाठ प्रारंभ कर दिया. यह ...बात पवन के माध्यम से इन्द्रदेव ने श्रीराम तक पहुँचवा दी, इधर रावण ने मायावी तरीक़े से पूजास्थल पर हवन सामग्री में से एक नीलकमल ग़ायब करा दिया जिससे श्रीराम की पूजा बाधित हो जाए। श्रीराम का संकल्प टूटता नज़र आया। सभी में इस बात का भय व्याप्त हो गया कि कहीं माँ दुर्गा कुपित न हो जाएँ,,,,,तभी श्रीराम को याद आया कि उन्हें ..कमल-नयन नवकंज लोचन.. भी कहा जाता है तो क्यों न एक नेत्र को वह माँ की पूजा में समर्पित कर दें। श्रीराम ने जैसे ही तूणीर से अपने नेत्र को निकालना चाहा तभी माँ दुर्गा प्रकट हुईं और कहा कि वह पूजा से प्रसन्न हुईं और उन्होंने विजयश्री का आशीर्वाद दिया।दूसरी तरफ़ रावण की पूजा के समय हनुमान जी ब्राह्मण बालक का रूप धरकर वहाँ पहुँच गए और पूजा कर रहे ब्राह्मणों से एक श्लोक ..जयादेवी..भूर्तिहरिणी.. में हरिणी के स्थान पर करिणी उच्चारित करा दिया। हरिणी का अर्थ होता है भक्त की पीड़ा हरने वाली और करिणी का अर्थ होता है पीड़ा देने वाली। इससे माँ दुर्गा रावण से नाराज़ हो गईं और रावण को श्राप दे दिया। रावण का सर्वनाश हो गया। एक अन्य कथा के अनुसार महिषासुर को उसकी उपासना से ख़ुश होकर देवताओं ने उसे अजेय होने का वर प्रदान कर दिया था। उस वरदान को पाकर महिषासुर ने उसका दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और नरक को स्वर्ग के द्वार तक विस्तारित कर दिया। महिषासुर ने सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण और अन्य देवतओं के भी अधिकार छीन लिए और स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा,, देवताओं को महिषासुर के भय से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा था। तब महिषासुर के दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने माँ दुर्गा की रचना की। महिषासुर का वध करने के लिए देवताओं ने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र माँ दुर्गा को समर्पित कर दिए थे जिससे वह बलवान हो गईं, नौ दिनों तक उनका महिषासुर से संग्राम चला था और अन्त में महिषासुर का वध करके माँ दुर्गा महिषासुरमर्दिनी कहलाईं,, शारदीय नवरात्रि के रूप में मनाया जाने वाला पर्व दुर्गा-पूजा और दशहरे के रूप में मशहूर है जबकि चैत्र में मनाया जाने वाला पर्व रामनवमी और बसंत नवमी के रूप में प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था।नवमी के दिन लोग श्रीराम की झाँकियाँ भी निकालते हैं। दक्षिण भारत में पहले दिन विशेष पूजा होती है। आम पल्लव और नारियल से सजा हुआ कलश दरवाजे पर रखा जाता है। इस वर्ष 16 मार्च से चैत्र नवरात्रि का शुभारंभ हुआ जबकि पिछले वर्ष यह 27 मार्च से शुरू हुआ था। नवरात्रि में हम शक्ति की देवी माँ दुर्गा की उपासना करते हैं। इस दौरान कुछ भक्त नौ दिन का उपवास रखते हैं तो कुछ सिर्फ़ प्रथम और अन्तिम दिन फलाहार का सेवन करते हैं। शेष दिन सामान्य भोजन करते हैं लेकिन मांसाहार नहीं करते। अपनी-अपनी श्रद्धा और शक्ति के अनुसार ही उपासना की जाती है। अधिकतर श्रद्धालु दुर्गासप्तशती का पाठ करते हैं। दरअस्ल नवरात्रि में उपासना और उपवास का विशेष महत्व है। उप का अर्थ है निकट और वास का अर्थ है निवास। अर्थात् ईश्वर से निकटता बढ़ाना। कुल मिलाकर यह माना जाता है कि उपवास के माध्यम से हम ईश्वर को अपने मन में ग्रहण करते हैं- मन में ईश्वर का वास हो जाता है। लोग यह भी मानते हैं कि आज की परिस्थितियों में उपवास के बहाने हम अपनी आत्मिक शुद्धि भी कर सकते हैं- अपनी जीवनशैली में सुधार ला सकते हैं। हिन्दू धर्म में उपवास का सीधा-सा अर्थ है आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अपनी भौतिक आवश्यकताओं का परित्याग करना............
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः |
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ||
 
 
. (जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रता रूप से,शुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुषों के ह्रदय में बुद्धि रूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धा रूप से तथा कुलीन मनुष्यों में लज्जा रूप से निवास करती हैं, उन (आप) भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं | हे देवि आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये |)
 
 
 
लेखक- सुरेश मिश्रा

मां दुर्गा

मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। हिमालय के वहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही देवी प्रथम दुर्गा हैं। ये ही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। उनकी एक मार्मिक कहानी है। एक बार जब प्रजापति ने य...ज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, भगवान शंकर को नहीं। सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है।
सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव है। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। पार्वती और हेमवती भी इसी देवी के अन्य नाम हैं। शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है
वंदे वाद्द्रिछतलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम |
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्‌ ||
दुर्गा पूजा के प्रथम दिन माता शैलपुत्री की पूजा-वंदना इस मंत्र द्वारा की जाती है.
मां दुर्गा की पहली स्वरूपा और शैलराज हिमालय की पुत्री शैलपुत्री के पूजा के साथ ही दुर्गा पूजा आरम्भ हो जाता है. नवरात्र पूजन के प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ इनकी ही पूजा और उपासना की जाती है. माता शैलपुत्री का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प रहता है. नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं और यहीं से उनकी योग साधना प्रारंभ होता है.

नवदुर्गा के नाम बखाने

पहली शेलपुत्री कहलाये..दूसरी ब्रह्मचारणी मन-भाये..तीसरी चन्द्रघंटा-सुखदा..चौथी कुशमंडा-सुखला..पाँचवी देवी स्कंदमाता..छटी कत्यानी-विख्याता..सातवीं कालरात्रि-महामाया..आठवीं माँ गौरी-जगजाया..नोवीं सिध्दात्री-जगजान्नी ||

‘नवरात्रि' किसे कहते हैं ?

नव अर्थात ब्रह्मांडमें विद्यमान ईश्वरके प्रत्यक्ष कार्य करनेवाले आदिशक्तिस्वरूपका तत्त्व ,, स्थूल जगत्की दृष्टिसे रात्रिका अर्थ है, प्रत्यक्ष तेजतत्त्वात्मक प्रकाशका अभाव ,, तथा ब्रह्मांडकी दृष्टिसे रात्रिका अर्थ है, संपूर्ण ब्रह्मांडमें ईश्वरीय तेजका प्रक्षेपण करनेवाले मूल पुरुषतत्त्वका अकार्यरत होनेका कालावधि ,,,जिस कालावधिमें ब्रह्मांडमें शिवतत्त्वककी मात्रा, कार्य एवं उसकी कार्यमात्रा घटती है और उसके शिवतत्त्वके कार्यकारी स्वरूपकी अर्थात शक्तिकी मात्रा का कार्य एवं उसके कार्य की मात्रा अधिक होती है, उस कालावधिको ‘नवरात्रि' कहते हैं .,,,,,,,,,,,,

लेखक-संतोष तिवारी

तारक शब्द का अर्थ कुछ इस प्रकार है

तृ+णिच्+ण्वुल्-अक- तारने या तैरानेवाला। २. भव-सागर से उद्धार करने वाला। जैसे–तारक मंत्र। पुं० १. आकाश का तारा। नक्षत्र। २. आँख की पुतली। ३. आँख। ४. राम का छः अक्षरों का यह मंत्र ‘ओं रामाय नमः’ जिसे सुनने से मनुष्य का मोक्ष होना माना जाता है। ५. इंद्र का शत्रु एक असुर जिसे नारायण ने नपुंसक का रूप धरकण मारा था। ६. एक असुर जिसे कार्तिकेय ने मारा था जो तारकसुर के नाम से प्रसिद्ध था। ७. भिलावाँ। ८. नाविक। मल्लाह। ९. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार सगण और एक गुरु होता है। १॰. एक संकेत या चिन्ह जो ग्रन्थ, लेख आदि में किसी शब्द, पद या वाक्य के साथ लगाया जाता है

लेखक-विनोद कुमार चौबे

मनुष्य जन्म

संसार मे जितनी भी प्रकृति है जितने जीव जन्तु कीडे, मकोडे, पषु पक्षी, जल चर, आदि यहा तक कि वृक्ष, पत्थर भी प्रकृति के रूप है । देवता, किन्नर गन्धर्व आदि जितनी भी योनियां इस भव सागर मे है उन सब में मनुष्य को जितने भी आज तक सन्त महापुरूश हुए है या वेद पुराण हुए सबने सर्वोपरि माना है । कुछ हम भी अपने विवके द्वारा थोडी देर संसारी जीवो को देखें तो लगता है कि मनुश्य मे सभी षक्तियां मौजूद है... अगर वह अपने मे प्रकट कर लेता है तो हर षक्ति उसके अन्दर है । अब प्रष्न उठा कि ये षक्ति क्या है और कैसे प्रकट हों, तो बडी सीधी बात है कि हर प्रकार की कला उस कला के माहिर से प्राप्त की जा सकती है । जैसे इंजीनियर बनने के लिए इंजीनियर के पास जाना पडेगा , डाक्टर के लिए डाक्टर के पास जाना पडेगा, अतः इसी प्रकार हर क्षेत्र मे उसी क्षेत्र के माहिर से षिक्षा लेनी पडेगी ।
ये ज्ञान केवल मनुश्य जीवन मे ही सम्भव है इसके लिए अन्य कोई योनि नही है । इसी लिए मनुश्य जन्म को सभी योनियों मे सर्वोपरि माना है ।
उत्पति:
संसार के सभी जीवो की उत्पति को चार वर्गो मे बांटा गया है ।
1. अन्डज - जो जीवों की उत्पति अन्डा से पैदा होते है ।
2. सेतज - जो जीव पसीने से पैदा होते है ।
3. जेरज - जो जीव जेर या झीली से पैदा होते है ।
4. उद्भिज - जो जीव जमीन से या गर्मी से पैदा होते है ।
इनको चार खाने भी बताया गया है क्योंकि पूर्ण उत्पति इन्हीं चार खानो की देन है । इन चार खानो मंे फिर अलग-अलग योनियां है जो तत्वो के आधार पर चैरासी लाख प्रकार की है ।
1. एक तत्व की प्रवलता: 30 लाख वृक्ष पौधो आदि
2. दो तत्वो की प्रवलता: 27 लाख कीडे मकोडे आदि
3. तीन तत्वो की प्रवलता: 14 लाख पक्षी, जल के जीव आदि
4. चार तत्वो की प्रवलता: 9 लाख पषु जानवर आदि
5. पांच तत्वो की प्रवलता: 4 लाख मनुश्य, देवता, किन्नर गन्धर्व आदि ।
अतः इसी प्रकार विवेचना से लगता है कि पूर्ण पांचो तत्वो के आधार पर भी मनुश्य इस संसार मे देह धारियों मे सबसे प्रथम स्थान पर है ।
अब प्रष्न उठा के मनुश्य जन्म सबसे उपर है तो इसका क्या काम है इसका काम तो केवल प्रकृति के रचियता मे अभेद होना है लेकिन काल रूपी परमात्मा जो दयाल षक्ति का दूसरा रूप है उसकी माया के जाल में फंसा रहता है और पूरा जीवन ऐसे ही निकल जाता है उसे अस्ल परमात्मा का बोध नही हो पाता है । क्योंकि से भवसागर केवल भोगने का स्थान है यहां कोई भी वस्तु सत्य नही है अर्थात सदा सदा के लिए टिकने वाली हर चीज कुछ दिनो साल आदि मे समाप्त हो जाती है और फिर दुबारा आ जाती है । अतः ये चक्र चलता रहता है ये कभी समाप्त नही होता । इसको माया चक्र कहते है । अब इस माया जाल से निकलने का रास्ता क्यां है तो हर युग मे पूर्ण सन्त माहत्मा आते है । और आकर जीवो को दया मेहर करके उपदेष भी देते है कि भाई तुम क्या कर कहे ये देष तुम्हारा नही है । यहां तुम थोडे समय के लिए ये समय परमात्मा ने अपने से मिलाव को दिया है । आओ परमात्मा से मिले लेकिन काल का ऐजेन्ट मन जो वृहम का रहने वाला है वह कहता है कि से संसार ही सब कुछ है सन्तो के पास कुछ नही है । क्यांेकि अगर मन का कहना न मानो तो वह सन्तो के पास चला जाएगा और काल से दूर हो जाएगा । अतः फिर भी सन्तो को दया आती है और जीव को चैरासी के जेल खाने से छुडाने हर युग समय मे आते है


लेखक- संतोष तिवारी

""" जीवन का दिव्य अभिप्राय """

हम सब के अन्दर परमेश्वर बोलते हैँ, परमेश्वर सुनते और देखते हैँ। हमारे अणु-परमाणुओँ मेँ ईश्वर की निस्सीम सत्ता का निवास स्थान है। जहाँ तुम हो वहाँ परमात्मा हैँ, जहाँ परमात्मा हैँ वहाँ तुम हो। तुम्हारा जीवन तथा व्यवहार परमेश्वर के दिव्य प्रबन्ध से सुव्यवस्थित है। परमात्मा तुमसे प्रेम करते है, इसीलिए वे सदैव तुम्हारा मार्ग दर्शन किया करते हैँ।
तुम कभी दुःखी, भ्रान्त या... निराश नहीँ हो सकते, क्योँकि तुम्हारे जीवन के संचालक परमात्मा हैँ। परमेश्वर की आनन्दमयी सत्ता मेँ विकारोँ को स्थान नहीँ है। वह तो सरल,सुखद, निर्विकार, उदार, प्रेममय सत्ता है। परमेश्वर सत्य और शिव संकल्पमय हैँ, तुम्हारे चेतन-अचेतन के साक्षी हैँ। जब परमेश्वर से तुम्हारा इतना निकट का सम्बन्ध है तब संसार के क्षुद्र थपेड़े तुम्हे कैसे उद्विग्न, अशांत और अप्रसन्न कर सकते है।
परमात्मा मंगलमय हैँ। तुम्हारे अन्दर रहकर वे तुम्हारे ही द्वारा शुभ कार्य कराते रहते है। तुम्हे वहीँ जाना चाहिए जहाँ तुम्हारे ईश्वरीय अंश को संतुष्टि प्राप्त हो। तुम्हे वही पवित्र दृश्य देखने चाहिये जिनसे तुम्हारे नेत्रोँ के पृष्ठ भाग मेँ रहने वाले परमात्मा को प्रसन्नता हो। जिसे तुम सुनते हो, वो ईश्वर की दिव्य वाणी है। अतः तुम्हे स्नायुओँ , रक्तकोशोँ तथा रग रग मेँ दिव्य स्फूर्ति का सँचार करने वाली वाणी ही श्रवण करनी चाहिए।
समग्र विश्व मेँएक तत्व ही निज कार्य नाना रूपोँ मेँ प्रकट होकर सम्पन्न कर रहा है ।- एक ही आत्मा , एक ही विराट सत्य वर्तमान है। अन्य तत्व इसी से जीवन शक्ति ले रहे हैँ। यह वही दैवीय तत्व है, जिसकी ओर हम स्वतः खिँचे चले जा रहे हैँ। वही सनातन परमेश्वर हैँ। हम परमेश्वर के पुत्रोँ का कलुषिता, गंदगी, अभद्रता से कोई सम्बन्ध नहीँ हो सकता। यदि आज हम संसार के माया, मोह , वासना के कीचड़ मेँ फंसे हुए हैँ तो इसका अभिप्राय ए नहीँ कि हमेँ कभी दैवी तत्व का ज्ञान ही न हो। अवश्य ही एक दिन उस महाप्रभावशाली तथा जीवनप्रद दैवीतत्व का अनुभव होगा। हमारे जीवन का इससे दिव्य अभिप्राय क्या कुछ और हो सकता है।

।। आचार्य कश्यप ।।।

स्वर से ‘अक्षर’ की अनुभूति

पुराणों में एक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने एक बार लंबे समय तक यह जानने के लिए प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है ? वे जहाँ भी गए, प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये, जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् से पूछकर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चल पड़े।
आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्टसाध्य हैं, भगवन् ! नारद ने वहाँ पहुँचकर विष्णु से प्रश्न किया-ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें ?
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
नारद संहिता
हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।

इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहाँ गाँव गाँव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था

मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो

जय माँ जगदम्बे
दैत्य संघारन वेद उचारन दुष्टन को तुम्ही खलती हो,
खड्ग त्रिशूल लिये धनुबान औ सिंह चढ़े रण में लड़ती हो,
दास के साथ सहाय सदा सो दया करि अनी फते करती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

आदि की ज्योति गणेश की मातु क्लेश सदा जन के हरती हो,
की कहूँ दैत्यन युद्ध भयो तहं शोणित खप्पर लै भरती हो,
की कहूँ देवन याद कियो तहं धाय त्रिशूल सदा धरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

सेवक से अपराध परयो कछु अपने चित्त में ना धरती हो,
दास के काज सवारन को निज जन जानि दया की मया करती हो,
शत्रु के प्राण संघारन को जग तारन को तुम सिन्धु सती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

मारि दियो महिषासुर को हरि केहरि को तुमही पलती हो,
मधु कैटभ दैत्य विध्वंस कियो नर देवन को तुम्हीं तरती हो,
दुष्टन मारि आनंद कियो निज दासन के दुःख को हरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

साधु समाधि लगावत है तिन तिन का तुम्हीं तरती हो,
जो जन ध्यान धरै तुम्हरो, तिनको प्रभुता दै सकती हो ,
तेरो प्रताप तिहूँ पुर में तुलसी जन की मनसा भरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

देव तुम्हारी करै विनती उनका तुम काज तुरत करती हो,
ब्रम्हा विष्णु महेश कि हो रथ हाँकि सदा जग में फिरती हो,
चंडहि मुंडहि जाय बधेव तब जायकै शत्रु निपात गती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,


लेखक -यतिंदर  चतुर्वेदी

जहां पांडवों ने की थी शास्त्रों की पूजा

जहां पांडवों ने की थी शास्त्रों की पूजा
करनाल में नीलोखेडी का पूजम गांव महाभारत की यादें समेटे हुए है। यह वह ऐतिहासिक गांव है जहां महाभारत युद्ध से पहले पांडवों ने कौरवों पर विजय हासिल करने के लिए शस्त्रों की पूजा की थी। इसी पूजा से ही इस स्थान का नामकरण पूजम हुआ।

महाभारत काल की स्मृतियों से जुडा होने के कारण गांव के मंदिर में स्थापित शिवलिंग के प्रति लोगों की गहरी आस्था है। यहां पर प्राचीन ताल...ब ने आधुनिक रूप ले लिया है। ग्रामीणों का कहना है कि इस गांव की धरती पर कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों का युद्ध शुरू होने से पहले पांडवों ने शस्त्रों की पूजा की थी। गांव के बाहर एक शिवलिंग स्वयं प्रकट हुआ। बाद में इसको उखाडने की कोशिश की गई तो यह टस से मस नहीं हुआ। ग्रामीणों का कहना है कि प्राचीनकाल में यहां कुम्हार मिट्टी लेने आया करते थे। एक दिन मिट्टी निकालते समय यहां शिवलिंग निकला। किसी ने कस्सी व कुल्हाडी से शिवलिंग को काटने का प्रयास किया किंतु विफल रहा। इन औजारों के लगने के निशान आज भी शिवलिंग पर दिखाई देते हैं।
लोगों के अनुसार इस स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने चरण रखे थे। इस स्थान पर कई वर्ष पूर्व बाबा राम गिर आकर रहने लगे। बाबा राम गिर सर्दियों में तालाब में पूजा करते थे और गर्मियों में अपने चारों ओर धुना लगाकर तपस्या करते थे। बाद में ग्रामीणों ने इस स्थान पर मंदिर बनवाया। मंदिर के साथ ही महाभारत कालीन प्राचीन तालाब है। तालाब का जीर्णोद्धार करके इसे आधुनिक रूप दिया गया है। बाबा राम गिर की याद में अप्रैल महीने में तथा शिवरात्रि पर्व पर यहां विशाल मेला लगता है। मंदिर के महंत बाबा पवन गिर का कहना है कि दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग यहां मन्नत मांगने आते हैं। मेले में काफी भीड लगती है।

शिवलिङ्ग (शिवलिंग)

दो अक्षरों का मंत्र शिव परब्रह्मस्वरूप एवं तारक है।
तारकंब्रह्म परमंशिव इत्यक्षरद्वयम्। नैतस्मादपरंकिंचित् तारकंब्रह्म सर्वथा॥
शिवलिङ्ग (शिवलिंग), का मतलब है भगवान शिव का यौन अङ्ग। शिवलिंग के पूजन के प्रारम्भ के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है। दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिव जी का भाग नहीं रखा, जिससे कुपित होकर जगज्जननी सती दक्ष के यज्ञ मण्डप में योगाग्नि द्वारा जल कर भस्म हो गई। माता सती के शर...ीर त्याग की सूचना प्राप्त होते ही भगवान शिव अत्यन्त क्रुद्ध हो गए और वे नग्न हो कर पृथ्वी में भ्रमण करने लगे। एक दिन वह उसी अवस्था में ब्राह्मणों की बस्ती में पहुंच गए। शिव जी को उस अवस्था में देख कर वहाँ की स्त्रियां मोहित हो गईं। यह देख कर ब्राह्मणों ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनका लिंग तत्काल शरीर से अलग हो कर भूमि पर गिर जाए। ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से शिव का लिंग उनके शरीर से अलग होकर गिर गया, जिससे तीनों लोकों में उत्पात होने लगा। समस्त देव, ऋषि, मुनि व्याकुल हो कर ब्रह्मा की शरण में गए।
ब्रह्मा ने योगबलसे शिवलिंग के अलग होने का कारण जान लिया और वह समस्त देवताओं, ऋषियों और मुनियों को अपने साथ लेकर शिव जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा ने शिव जी की स्तुति वन्दना की और उन्हें प्रसन्न करते हुए उनसे लिंग धारण करने का निवेदन किया। तब भगवान शिव ने कहा कि आज से सभी लोग मेरे लिंग की पूजा प्रारम्भ कर दें तो मैं पुनः उसे धारण कर लूंगा। शिव जी की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम स्वर्ण का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा की। तत्पश्चात् देवताओं, ऋषियों और मुनियों ने अनेक द्रव्यों के शिवलिंग बनाकर पूजन किया। तभी से शिवलिंग के पूजन की परिपाटी प्रारम्भ हो गई। शिवलिंग के महात्म्यका वर्णन करते हुए शास्त्रों ने कहा है कि जो मनुष्य किसी तीर्थ की मृत्तिका से शिवलिंग बना कर उनका हजार बार अथवा लाख बार अथवा करोड बार विधि-विधान के साथ पूजा करता है, वह शिवस्वरूप हो जाता है। जो मनुष्य तीर्थ में मिट्टी, भस्म, गोबर अथवा बालू का शिवलिंग बनाकर एक बार भी सविधि पूजन करता है, वह दस हजार कल्पों तक स्वर्ग में निवास करता है। शिवलिंग का सविधि पूजन करने से मनुष्य सन्तान, धन, धन्य, विद्या, ज्ञान, सद्बुद्धि, दीर्घायु और मोक्ष की प्राप्ति करता है। जिस स्थान पर शिवलिंग की पूजा होती है, वह तीर्थ न होने पर भी तीर्थ बन जाता है। जिस स्थान पर सर्वदा शिवलिंग का पूजन होता है, उस स्थान पर मृत्यु होने पर मनुष्य शिवलोक जाता है।
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