रविवार, 4 नवंबर 2012

वैदिक सन्ध्या


दिन और रात्रि के, रात्रि और दिन के तथा पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में एकाग्रचित्त होकर जो उपासना की जाती है, उसे संध्या कहते हैं। अथवा उपर्युक्त संधिकाल में विहित उपासना में किए जानेवाले कार्यकलाप को भी संध्या कहते हैं। इस प्रकार सायंकाल, प्रात:काल और मध्यान्हकाल में यह उपासना की जाती है। इन्हीं नामों से तीन संध्याएँ प्रचलित हैं। सूर्यास्त के समय से नक्षत्रोदय पर्वत सायंकाल की संध्या का, अरुणोदय से सूर्योदय पर्यंत प्रात:काल की संध्या का और पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में मध्याह्लकाल को संध्या का समय प्रशस्त है। विधि यह उपासना प्रति दिन करनी चाहिए। द्विजमात्र(ब्रा० क्ष० वैश्य) को इस उपासना का अधिकार है। इस अनुष्ठान से अनजाने में भी किए गए पाप का लोप होता है। उपर्युक्त किसी तरह का पाप यदि दिन में विहित हो तो सायंकाल की संध्या से दूर होता है। प्रत्येक वेद की संध्या का विधान विभिन्न गृह्यसूत्रों द्वारा प्रतिपादित है। इस अनुष्ठान के द्वारा दिव्यज्योति, सूर्य या ब्रह्म की उपासना की जाती है। इसका प्रारंभ करने से पूर्व उषाकाल में निद्रा का विसर्जन कर उठ बैठना चाहिए। सर्वप्रथम अपने इष्टदेव का स्मरण ओर वंदन करना चाहिए। अनंतर दैनिक दैहिक कृत्य से निवृत्त होकर संविधि स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करे। पवित्र आसन पर बैठकर तिलक लगावे और शिखाबंधन करे। सायंकाल की संध्या पश्चिम दिशा की ओर और प्रात:काल, मध्यान्हकाल की संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। जिस दिन यज्ञोपवीत होता है उसी दिन से इसका अनुष्ठान प्रारंभ होता है। यह उपासना प्रति दिन और यावज्जीवन अनुष्ठेय है। संध्या के अंग इस संध्या की उपासना के प्रकरण में इसके आठ अंग महत्वपूर्ण बतलाए गए हैं। उनके नाम तथा क्रम इस प्रकार हैं - प्राणायाम, मंत्र आचमन, मार्जन, अघमर्षण, सूर्यार्घ, सूर्योपस्थान, गायत्रीजप और विसर्जन। प्राणायाम एक प्रकार का श्वास का व्यायाम है। इसके तीन अंग बतलाए हैं - पूरक, कुंभक और रेचक। पूरक करते समय दाहिने हाथ की दो अँगुलियों से नाक के बाँए छिद्र का बंद करके दाहिने छिद्र से धीरे-धीरे श्वास खींचना चाहिए। गायत्री मंत्र का जप करते रहना चाहिए। साथ ही अपने नाभिप्रदेश में ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए। कुंभक करने के समय दाहिने हाथ की दो अँगुलियों से नाक के बाएँ छिद्र को और हाथ के अँगूठे से नाक के दाहिने छिदे का बंद करके पूरक द्वारा भरे हुए श्वास को अपने शरीर में रोकना चाहिए। साथ-साथ अपने हृदयप्रदेश में विष्णु का ध्यान करना चाहिए। रेचक करने में दाहिने हाथ के अँगूठे से नाक के दाहिने छिद को बंद करके बाएँ छिद्र से रोके हुए श्वास को धीरे-धीरे अपने शरीर में से बाहर निकालना चाहिए। इन तीनों ही क्रियाओं को करते हुए एक बार, कुंभक करते हुए चार बार और रेचक करते हुए दो बार मंत्र का आवर्तन करना चाहिए। इस प्रकार किया हुआ कृत्य प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम करने से शरीर के भीतरी अंगों की शुद्धि तथा पुष्टि होती है। बुद्धि निर्मल होकर शांति मिलती है। इसको करनेवाले सभी प्रकार के रोगों से मुक्त रहते हैं। प्राचीन काल में ऋषि लोग इसी प्राणायाम के सेवन से अनेकविध अलौकिक कार्यो को करने में समर्थ होते थे। आचमन - दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर मंत्र का पाठ करके हथेली का जल पीना मंत्र आचमन है। इस मंत्र का तात्पर्य यह है कि मैंने मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और जननेंद्रिय के द्वारा जो कुछ पाप किया हो वह सकल पाप नष्ट हो। जल में गंदगी दूर करने की स्वाभाविक शक्ति है। इसमें सकल प्रकार की औषधियों का जीवन निहित है। अन्न के लिए यही प्राण है। इससे विद्युत् की उत्पत्ति देखी जाती है। दुर्भावना, दुर्वासना एवं हर प्रकार के पाप को यह दूर करता है। इसी उद्देश्य से यहाँ पर मंत्र विहित हैं। मार्जन - जिस क्रिया में वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए शारीरिक अंगों पर जल छिड़का जाता है उसे मार्जन कहते हैं। मार्जन करने से शारीरिक अंगों की शुद्धि होती है। अघमर्षण - इसके द्वारा मानव शरीर में विद्यमान दूषित वासनारूपी पापपुरुष को शरीर से पृथक् करना है। इसका विधान इस प्रकार है - दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए जलपूर्ण दाहिने हाथ को नाक के निकट ले जाना चाहिए। इसके साथ ही यह ध्यान करना चाहिए कि नाक के दक्षिण छिद्र से निकलकर पापपुरुष ने हथेली के जल में प्रवेश किया। इसके अनंतर हाथ का जल अपनी बाईं ओर भूमि पर फेंक देना चाहिए। इस क्रिया का लक्ष्य अपने शरीर से पापपुरुष को बाहर निकालकर मन को पवित्र करना और अपने को उपासना करने के योग्य बनाना है। इस विधान का विस्तार "भूत शुद्धि" प्रकरण में देखना चाहिए। सूर्यार्ध - इस क्रिया के द्वारा अंजलि में जल लेकर गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए खड़े होकर सूर्य को अर्ध दिया जाता है। यह अर्ध तीन बार देना आवश्यक है। यदि संध्या की उपासना का समय बीत चुका हो और यह उपासना विलंब से की जा रही हो तो प्रायश्चित्त के रूप में एक अर्ध अधिक देना चाहिए। किसी विशिष्ट व्यक्ति के आगमन के उपलक्ष में अर्ध देने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आती है। इसका मूल यही सूर्यार्ध है। "सूर्योपस्थान" - इस क्रिया में वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए खड़े होकर सूर्य का उपस्थान किया जाता है। प्रात:काल की सूर्य की किरणें मानव शरीर में प्रविष्ट होकर मानव को स्फूर्ति तथा आरोग्य प्रदान करती हैं। इन किरणों में अनेक रोग दूर करने की शक्ति विद्यमान है। विशेषकर हृदयरोग के लिए ये अत्यंत लाभ करनेवाली सिद्ध हुई हैं। इस समय विद्यमान सूर्यकिंरणचिकित्सा का यही मूल स्रोत है। गायत्रीजप - किसी मंत्र के निरंतर अवर्तन को जप कहते हैं। कायिक, वाचिक और मानसिक भेदों से जप तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें मानसिक जप उत्तम कहा है। जप करते हुए मन को एकाग्र और शरीर को निश्चत्त रखना आवश्यक है। जप करते समय मंत्र के देवता का ध्यान करते रहने से देवता के साथ उपासक की तन्मयता हो जाती है। जप के अनंतर सूर्य देवता को जप का समर्पण करना चाहिए। अंत में अपनी उपासना के निमित्त आवाहित देवता का विसर्जन करना चाहिए। इस प्रकार की हुई उपासना को सर्वव्यापी ब्रह्म को अर्पित कर देना चाहिए। इस विधान के अनुसार निरंतर उपासना करते रहने से मानव अपने शरीर में उत्पन्न होनेवाले समस्त रोगों से दूर रहता है, समस्त सुख प्राप्त करता है और अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करता है।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

भारत विश्वगुरु

।ॐ।।पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।- ईश उपनिषद ऋग्वेद को संसार की सबसे प्राचीन और प्रथम पुस्तक माना है। इसी पुस्तक पर आधारित है हिंदू धर्म। इस पुस्तक में उल्लेखित 'दर्शन' संसार की प्रत्येक पुस्तक में मिल जाएगा। माना जाता है कि इसी पुस्तक को आधार बनाकर बाद में यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। दरअसल यह ऋग्वेद के भिन्न-भिन्न विषयों का विभाजन और विस्तार था। विश्व की प्रथम पुस्तक : वेद मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। हिन्दू शब्द की उत्पत्ति : हिन्दू धर्म को सनातन, वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है। भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है। इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है। ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति ‍इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' कहने लगे। आर्य शब्द का अर्थ : आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था। हिन्दू इतिहास की भूमिका : जब हम इतिहास की बात करते हैं तो वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: कृष्ण के समय में वेद व्यास द्वारा पूरी तरह से वेद को चार भाग में विभाजित कर दिया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्‍य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5500 वर्ष पूर्व होने के तथ्‍य ढूँढ लिए गए। हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू. (आज से 6500 वर्ष पूर्व) मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। कहते हैं कि आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म 2 हजार ई.पू.। बौद्ध धर्म 500 ई.पू.। ईसाई धर्म सिर्फ 2000 वर्ष पूर्व। इस्लाम धर्म 14 सौ साल पहले हुए। लेकिन धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और धारणाएँ भी हैं। मान्यता यह भी है कि 90 हजार वर्ष पूर्व इसकी शुरुआत हुई थी। दरअसल हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रंगारिक होता गया। वह दौर ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर। जब हम हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ते हैं तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वायंभव मनु था और प्रथम ‍स्त्री थी शतरूपा। पुराणों में हिंदू इतिहास की शुरुआत सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है, ऐसा कहना की यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी वेद-पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से और भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का इसमें उल्लेख मिलता है। किसी भी धर्म के मूल तत्त्व उस धर्म को मानने वालों के विचार, मान्यताएँ, आचार तथा संसार एवं लोगों के प्रति उनके दृष्टिकोण को ढालते हैं। हिंदू धर्म की बुनियादी पाँच बातें तो है ही, (1.वंदना, 2.वेदपाठ, 3.व्रत, 4.तीर्थ, और 5.दान) लेकिन इसके अलावा निम्न ‍सिद्धांत को भी जानें:- 1. ब्रह्म ही सत्य है: ईश्वर एक ही है और वही प्रार्थनीय तथा पूजनीय है। वही सृष्टा है वही सृष्टि भी। शिव, राम, कृष्ण आदि सभी उस ईश्वर के संदेश वाहक है। हजारों देवी-देवता उसी एक के प्रति नमन हैं। वेद, वेदांत और उपनिषद एक ही परमतत्व को मानते हैं। 2. वेद ही धर्म ग्रंथ है : कितने लोग हैं जिन्होंने वेद पढ़े? सभी ने पुराणों की कथाएँ जरूर सुनी और उन पर ही विश्वास किया तथा उन्हीं के आधार पर अपना जीवन जिया और कर्मकांड किए। पुराण, रामायण और महाभारत धर्मग्रंथ नहीं इतिहास ग्रंथ हैं। ऋषियों द्वारा पवित्र ग्रंथों, चार वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य की दिव्यता एवं अचूकता पर जो श्रद्धा रखता है वही सनातन धर्म की सुदृढ़ नींव को बनाए रखता है। 3. सृष्टि उत्पत्ति व प्रलय : सनातन हिन्दू धर्म की मान्यता है कि सृष्टि उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अनंत प्रक्रिया पर चलती है। गीता में कहा गया है कि जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अदृश्य से दृश्यमान हो जाता है और जैसे ही रात होने लगती है, सब कुछ वापस आकर अदृश्य में लीन हो जाता है। वह सृष्टि पंच कोष तथा आठ तत्वों से मिलकर बनी है। परमेश्वर सबसे बढ़कर है। 4. कर्मवान बनो : सनातन हिन्दू धर्म भाग्य से ज्यादा कर्म पर विश्वास रखता है। कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है। कर्म एवं कार्य-कारण के सिद्धांत अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के लिए पूर्ण रूप से स्वयं ही उत्तरदायी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन, वचन एवं कर्म की क्रिया से अपनी नियति स्वयं तय करता है। इसी से प्रारब्ध बनता है। कर्म का विवेचन वेद और गीता में दिया गया है। 5. पुनर्जन्म : सनातन हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की प्रक्रिया से गुजरती हुई आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने से ही यह चक्र समाप्त होता है। 6. प्रकति की प्रार्थना : वेद प्राकृतिक तत्वों की प्रार्थना किए जाने के रहस्य को बताते हैं। ये नदी, पहाड़, समुद्र, बादल, अग्नि, जल, वायु, आकाश और हरे-भरे प्यारे वृक्ष हमारी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं अत: इनके प्रति कृतज्ञता के भाव हमारे जीवन को समृद्ध कर हमें सद्गति प्रदान करते हैं। इनकी पूजा नहीं प्रार्थना की जाती है। यह ईश्वर और हमारे बीच सेतु का कार्य करते हैं। यही दुख मिटाकर सुख का सृजन करते हैं। 7.गुरु का महत्व : सनातन धर्म में सद्‍गुरु के समक्ष वेद शिक्षा-दिक्षा लेने का महत्व है। किसी भी सनातनी के लिए एक गुरु (आध्यात्मिक शिक्षक) का मार्ग दर्शन आवश्यक है। गुरु की शरण में गए बिना अध्यात्म व जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ना असंभव है। लेकिन वेद यह भी कहते हैं कि अपना मार्ग स्वयं चुनों। जो हिम्मतवर है वही अकेले चलने की ताकत रखते हैं। 8.सर्वधर्म समभाव : 'आनो भद्रा कृत्वा यान्तु विश्वतः'- ऋग्वेद के इस मंत्र का अर्थ है कि किसी भी सदविचार को अपनी तरफ किसी भी दिशा से आने दें। ये विचार सनातन धर्म एवं धर्मनिष्ठ साधक के सच्चे व्यवहार को दर्शाते हैं। चाहे वे विचार किसी भी व्यक्ति, समाज, धर्म या सम्प्रदाय से हो। यही सर्वधर्म समभाव: है। हिंदू धर्म का प्रत्येक साधक या आमजन सभी धर्मों के सारे साधु एवं संतों को समान आदर देता है। 9.यम-नियम : यम नियम का पालन करना प्रत्येक सनातनी का कर्तव्य है। यम अर्थात (1)अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5)अपरिग्रह। नियम अर्थात (1)शौच, (2)संतोष, (3)तप, (4)स्वाध्याय और (5)ईश्वर प्राणिधान। 10. मोक्ष का मार्ग : मोक्ष की धारणा और इसे प्राप्त करने का पूरा विज्ञान विकसित किया गया है। यह सनातन धर्म की महत्वपूर्ण देन में से एक है। मोक्ष में रुचि न भी हो तो भी मोक्ष ज्ञान प्राप्त करना अर्थात इस धारणा के बारे में जानना प्रमुख कर्तव्य है। 12 संध्यावंदन : संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पाँच या आठ वक्त (समय) की मानी गई है, लेकिन सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। 13 श्राद्ध-तर्पण : पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का सनातन हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है। 14.दान का महत्व : दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, ‍जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्व का वर्णन किया गया है। 15.संक्रांति : भारत के प्रत्येक समाज या प्रांत के अलग-अलग त्योहार, उत्सव, पर्व, परंपरा और रीतिरिवाज हो चले हैं। यह लंबे काल और वंश परम्परा का परिणाम ही है कि वेदों को छोड़कर हिंदू अब स्थानीय स्तर के त्योहार और विश्वासों को ज्यादा मानने लगा है। सभी में वह अपने मन से नियमों को चलाता है। कुछ समाजों ने माँस और मदिरा के सेवन हेतु उत्सवों का निर्माण कर लिया है। रात्रि के सभी कर्मकांड निषेध माने गए हैं। उन त्योहार, पर्व या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा, व्यक्ति विशेष या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथों, धर्मसूत्रों और आचार संहिता में मिलता है। ऐसे कुछ पर्व हैं और इनके मनाने के अपने नियम भी हैं। इन पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है। 16.यज्ञ कर्म : वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-(1) ब्रह्मयज्ञ (2)देवयज्ञ (3)पितृयज्ञ (4)वैश्वदेव यज्ञ (5)अतिथि यज्ञ। उक्त पाँच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं। 17.वेद पाठ : कहा जाता है कि वेदों को अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है।

तुलसी का महत्तव

"नमामि शिरसा देवीं तुलसीम" भारतीय जीवन शैली में सुख-समृद्धि के लिए आवश्य बहुतसे कार्यों तथा वस्तुओं को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है,ताकि हमर सनातन धर्म भी सुरक्षित और उन्नयन रहे और प्रकृति प्रदत्त वस्तुएं भी l सनातन धर्म का मुख्य प्रयोजन दैहिक,दैविक एवं भौतिक शांति एवं उन्नयन को माना गया है l विष्णुपुराण, स्कन्दपुराण,सही हमारे सभी पुराणों सहित श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों में "तुलसी" की महत्ता का विस्तृत वर्णन की गया है l भारतीय सनातन परंपरा में तुलसी को देवी का स्थान प्राप्त है वे भगवान की प्रिय एवं नित्य सहचरी हैं इसीलिए विष्णुप्रिया,हरिप्रिया,वृंदा आदि नामों से अभिहित होती हैं l नारायण स्वरुप शालग्राम का पूजन तुलसी के बिना अपूर्ण और किसी भी वस्तु के बिना केवल तुलसी से सम्पूर्ण माना गया है l तुलसीदल (पत्ता) पधराये बिना अर्पित नैवेद्य को भगवान आरोगते नहीं और उसके अर्पण मात्र से वह हमारे लिए भगवान द्वारा आरोगित प्रसाद बन जाता है l जहां तुलसी का पवित्र पौधा या तुलसीवन होता है वह स्थान वृन्दावन धाम के समान पवित्र तीर्थस्थल हो जाता है l तुलसी के पौधे के मूल (जड़) से उसकी छाया तक में देवताओं एवं समस्त तीर्थों का निवास होता है l साधारण जल में तुलसीदल डाल देने वह जल गंगा के समान तीर्थरूप हो जाता है l तुलसी के स्थान की मृत्तिका(मिट्टी)अत्यंत पुण्यदायी होती है l तुलसी के समीप क्या गे जप-तप महान फलदायी होता है l आसन्नमृत्यु अथवा मृत्यु प्राप्त व्यक्ति तुलसी के सन्निधान से परम मोक्ष गति प्राप्त करता है l पद्मपुराण में बताया गया है कि तुलसी के पत्ते,फूल(मंजरी),मूल(जड़),शाखा,छाल,तना,और मिट्टी आदि सभी पावन हैं - पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखात्व्क्स्कन्ध संज्ञिताम l तुलसीसंभवम सर्वं पावनम मृत्तिकादिकम l l (पद्म पुराण २४/२) श्री पुण्डरीककृत तुलसी स्तोत्र में तुलसीदेवी की स्तुति में कहा गया है कि मैं प्रकाशमान विग्रह वाली भगवती तुलसी को मस्तक झुका कर प्रणाम करता हूँ , जिनके दर्शन मात्र से पातकी मनुष्य भी सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं l तुलसी के द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत रक्षित है ये पापियों के पापों का भी नाश कर देती हैं l इस पृथ्वीतल पर तुलसी से बढ़ कर कोई देवता नहीं है,जिनके द्वारा यह जगत उसी तरह पवित्र कर दिया गया है जैसे भगवान विष्णु के प्रति भक्ति एवं अनुराग भाव से कोई वैष्णव पवित्र हो जाता है :- नमामि शिरसा देवीम तुलसीम विलसत्तनुम l यां दृष्ट्वा पापिनो मर्त्या मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषात l l तुलस्या रक्षितं सर्वं जग्देतच्चराचरम l या विनिहन्ति पापानि दृष्ट्वा वा पापिभिर्नरै: l l तुलस्या नापरं किंचिद दैवतं जगतीतले l यथा पवित्रितो लोको विष्णु संगेन वैष्णव:l l इस प्रकार आध्यात्मिक तथा धार्मिक क्षेत्र में तो तुलसी की महत्ता सर्व विख्यात है ही,आरोग्य की दृष्टी से भी एक औषधि के रूप में इसका विलक्षण महात्म्य है l इसके परिपक्व पत्ते एक से ढाई इंच तक के होते नेत्राकर तथा सुगन्धित होते हैं,इसकी मंजरी भगवान को अति प्रिय है l वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार पृथ्वी पर तुलसी की लगभग २२ प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें रामतुलसी,श्यामतुलसी या कृष्ण तुलसी,गंधातुलसी,बनतुलसी,कपूरीतुलसी,सफ़ेदतुलसी आदि उल्लेखनीय हैं l कार्तिक मास में तुलसी पूजन और संध्या काल में तुलसी के समक्ष दीप प्रज्वलन का अत्यंत महत्व है, इस पवित्र मास में तुलसी-शालग्राम स्वरुप भगवान के विवाह का भी धार्मिक महत्व है l ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, जयश्री कृष्णा

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

हिन्दू शब्द कितना प्राचीन


"हिन्दू" शब्द हमारे शास्त्रों में कहा आया है ?यह प्रश्न कई विद्वानों ने मुझसे किया । लोकमान्य तिलक जी ने "हिन्दू" शब्द की परिभाषा एक श्लोक में प्रस्तुत की है कि सिन्धु नदी के उद्गम स्थान से लेकर हिन्दमहासागर तक जिसकी पवित्र मातृभूमि और भारतभूमि है उसे हिन्दू कहा जाता है-- आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका । पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः । । पर यह श्लोक किस ग्रन्थ का है उन्होने नाम नहीं लिया । अस्तु । किन्तु मेरुतन्त्र मे "हिन्दू"शब्द का उल्लेख मिलता है ---- पञ्चखाना सप्तमीरा नवसाहा महाबलाः । हिन्दूधर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिनः । । हीनञ्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये । जो धर्म कर्म से हीन को दूषित अर्थात् दोषी = अपराधी ठहराने की हिम्मत रखता हो वह "हिन्दू" है । --मेरुतन्त्र /33वाँ प्रकरण । पर इस पुस्तक मे खान मीर और साह शब्द को देखकर कतिपय विद्वानों ने इसे अर्वाचीन माना है । किन्तु उनका यह तर्क ठीक नही ;क्योंकि ऐसा मानने पर भागवतमहापुराण मे ---कल्किः प्रादुर्भविष्यति --इस प्रकार कल्कि भगवान जो कि अभी अवतरित ही नही हुए उनका नाम आने से भागवत को उनके प्रकट होने के बाद की रचना मानना पड़ेगा जो कि कई हजार वर्ष पूर्व से ही विद्यमान है । अतः उनका तर्क ठीक नही । हमारे ऋषि मुनि हजारो वर्ष पूर्व और पश्चात् की घटनाओं को अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा से देखकर लिख देते थे । भारत मे मुसलमानो के आने से पूर्व ही "हिन्दू" शब्द की प्रसिद्धि थी । पारसी लोगो का मूल धर्मग्रन्थ "अवेस्ता" है । जिसका वेद से घनिष्ठ सम्बन्ध है । दोनो के अनेक देवता और धार्मिक कृत्यों में साम्य है । जैसे अहुमज्द का वरुण एवं सोम का हओम से । "अवेस्ता" के भाग 1 वन्दिदाद में "हिन्दू" शब्द का प्रयोग - पञ्चदसँम् असड़्हाँम् च षोडथ्रनाम् च बहिश्लम् फ्राथ्वरसम् अजम् यो अहुरोमज्दाओ यो हप्त हिन्दुम् । --1/18. यहाँ पारसियों के मान्य देवता अहुरमज्द द्वारा निर्मित 16 देशों की गणना मे 15 वाँ देश "हप्त हिन्दु" बताया गया है पारसियों के ग्रन्थ मे स को ह बोला गया है । हप्तहिन्दु = सप्तसिन्धु। हमारा भारत पूर्व से सिन्धु झेलम रावी सतलज और पश्चिम से सुवास्तु (स्वात) कुभा (काबुल) तथा गोमती(गोमल) इन छह प्रधान नदियों से सिञ्चित होने के कारण "सप्तसिन्धु"कहा जाता है । इन सात नदियों वाला यह भारत देश सप्तसिन्धु है पारसी में इसका उच्चारण "हप्तहिन्दु" है। यही "हिन्दु" शब्द आज "हिन्दू" शब्द के रूप में बोला जाता है । पर हिन्दुस्तान मे तो "हिन्दु"शब्द ही है । "अवेस्ता" में अन्य स्थान पर भी "हिन्दु" शब्द दृष्टिगोचर होता है । ------------- यत् चित् उसस्त इरे हिन्द्वो आगउर्वयेइले यत् चित् दओषतइरे निघ्ने । । --11/27 अर्थ --- इसके पश्चात् पूर्व की ओर हिन्दुस्तान की तरफ अपना मार्ग लेता है तथा फिर पश्चिम की ओर नीचे उतरता है । यहां भी "हिन्दु" शब्द आया है । "अवेस्ता" के रचयिता 'जरथुस्त्र' का काल साधारणतया 6400 से 7000 वर्ष ईसा पूर्व माना गया है । अतः "हिन्दु" शब्द का प्रयोग लगभग 7000 वर्ष से हो रहा है यह सुनिश्चित है। जब पारसियों पर मुसलमानों का प्रभाव पड़ा तब से फारसी भाषा में हिन्दुओं के लिए प्रयुक्त "हिन्दू" शब्द काफिर (नास्तिक) आदि अर्थो मे द्वेषवशात् कहा जाने लगा । ------------जय श्रीराम —---------

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

धर्म के देवता


»»»»»»»»»»» हिन्दू (सनातन) धर्म के देवता«««««««« हमारे सनातन हिन्दू धर्म में कितने देवता हैं ? इसे सप्रमाण बतलाना चाहिए । कुछ लोग 33 करोड़ तो कुछ 33 प्रकार के बतलाते हैं । इस विषय में हम वेदों का शिरोभाग जिसे उपनिषद् कहते हैं उससे इस विषय को प्रस्तुत करते हैं ------बृहदारण्यक उपनिषद् में शाकल्य ऋषि ने याज्ञवल्क्य महर्षि से पूछा --देवता कितने हैं ---कति देवाः ? याज्ञवल्क्य जी ने अन्तम उत्तर देते हुए कहा -------33 ही देवता हैं -----त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवाः। अब प्रश्न हुआ --वे 33 देवता कौन कौन हैं ? इसका उत्तर दिया गया ------ 8 वसु 11 रुद्र 12 आदित्य 1इन्द्र 1प्रजापति कुल योग = 33 यही 33 देवता हैं । -----बृहदारण्यकोपनिषद्9/3/1-2. इस प्रकार वेद में 33 ही देवता कहे गये हैं । यहां कहीं भी --33 कोटि देवता --ऐसे शब्द का प्रयोग ही नहीं है। जिससे हमें कोटि शब्द के अर्थ को बतलाने के लिए बाध्य होना पड़े । ये 33 देवता भी एक ही देवता = परमात्मा =ब्रह्म =भगवान् के विभिन्न रूप हैं । वस्तुतः एक ही देव है जो भिन्न भिन्न प्रकार से अनेक नामों से कहा गया है---एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति --ऋग्वेद,वही एक देव सर्वत्र व्याप्त (समाया) हुआ है ---एको देवः सर्वभूतेषु गूढः ----श्वेताश्वतरोपनिषद्-6/11. हमारा सनातन हिन्दू धर्म मुस्लिम या इशायियों की भांति छुद्र विचारधारा वाला नहीं है । यहां तो यह उस समय ही विनिर्णीत हो चुका कि जो कुछ दिखायी या सुनायी देता है वह सब वही एक देव है ---सर्वं खल्विदं ब्रह्म---3/14/1. अतः हमारे सनातन धर्म में मूलतः एक ही देव हैं जिन्हे हम इन 33 देवताओं की बात क्या , सम्पूर्ण विश्व को उन्ही का रूप देखते हैं । इसलिए आज तक हिन्दुओं में किसी ने भी अन्य धर्मानुयायी को धर्मपरिवर्तन के लिए बाध्य क्या प्रेरित भी नही किया । जैसा कि इशाई और मुस्लिम कर रहे हैं । जिन्हें अभी भी इस विषय में सन्देह हो उन्हें अपनी विमल मेधा का प्रयोग करके ब्रह्मसूत्र के "देवताधिकरण" -अध्याय 1/पाद 3/अधिकरण 8/सूत्र 27. का शांकर भाष्य एवं उसकी भामती टीका जैसे ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए । >>>>>>>>जय श्रीराम<<<<<<<<<<< »»»»»»»»»»»आचार्य सियारामदास नैयायिक««««««««««««

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

ब्रह्मण कर्म से नहीं जन्म से ही होता है


भले ही ब्राह्मणों में कई भेद हो . जैसे ........... देवो मुनिर्द्विजो राजा वैश्यः शुद्रो निषादकः I पशुमलेच्छेअपि चांडालो विप्रः दस्विधाह स्मृताः I I अर्थात ,देव,मुनि,द्विज,राजा( क्षत्रिय ) ,वैश्य शुद्र, निषाद ,पशु ,म्लेक्छ ,और चंडाल ,ये दस प्रकार के ब्रह्मण होते है I........ १.देव ब्रह्मण===स्नान संध्या, जप, होम, देवपूजन ,अतिथि शेवा आदि नित्य कर्म करने वाला ब्रह्मण देव ब्रह्मण कहलाता है I २.मुनि ब्रह्मण ==कंदमूल खाने वाला, वनवासी, पित्रिश्रध्पारायण ब्रह्मण, मुनि ब्रह्मण कहलाता हैI ३.द्विजब्रह्मण===वेदांत का अनुशीलन करने वाला, शक्तिरहित, सांख्य योग ब्रह्मण द्विज कहलाता है I ४.क्षत्रिय ब्रह्मण ==संग्राम में सबके सामने शत्रु को अस्त्र से रोकने वाला ,संग्राम विजयी ,धनुर्धर ब्रह्मण, क्षत्रिय ब्रह्मण कहलाता है I ५.वैश्य ब्रह्मण ==कृषि ,वाणिज्य ,और गोरक्षा करने वाला ब्रह्मण विषय ब्रह्मण कहलाता है I ६.शूद्र ब्रह्मण ===लाख ,नमक , दुध ,घी ,मधु (मदिरा )और मांस विक्रेता ब्रह्मण शूद्र ब्रह्मण कहलाता है I ७.निषाद ब्रह्मण ==चोरी डकैती करने वाल ईर्ष्यालु ,परपीड़क,मछली मांस का लोभी निषाद ब्रह्मण कहलाता हैI ८.पशु ब्रह्मण ===ब्रह्मण तत्व को कुछ न जनता हो ,फिर भी जनेऊ के गर्व में चूर रहता हो, वो पशु ब्रह्मण कहलाता हैI ९.मलेक्ष ब्रह्मण ===जो ब्रह्मण कूवा तालाब आदि जलाशयों से पानी भरने या स्नान करने में अवरोध उत्पन्न करता हो वो मलेक्ष ब्राह्मन कहलाता है I १०.चांडाल ब्राह्मन ===ब्राह्मण क्रिया से हीन, महामूर्ख ,कठोर ,निर्दय ब्राह्मन चांडाल ब्राह्मन कहलाता है I वेद सम्मत आठ प्रकार के ब्राह्मण होते है ,जो इस प्रकार हैI ......... मात्रश्चब्रह्मंस्चैव श्रोतियाश्च ततः परम I अनुचान्स्ताथा भ्रूणों ऋषिकल्प ऋषिर्मुनिः II १,मात्र ब्राह्मण २,ब्राह्मन ब्राह्मण, ३.श्रोत्रिय ब्राह्मण ४.अनुचान ब्राह्मण ५.भ्रूण ब्राह्मण ६.ऋषिकल्प ब्राह्मण ७.ऋषि ब्राह्मण ८.मुनि ब्राह्मण ....................... भले ही कोई व्यक्ति कितना भी बड़ा ज्ञानी हो ,किसी भी विषय का कितना भी बड़ा ज्ञाता हो ,वो उस विषय का मास्टर हो सकता हैI,भले ही उस विषय में उसे पांडित्व हाशील हो जाये ,वो उस विषय का पंडित हो सकता है .............................. पर ब्राह्मण कदापि नहीं हो सकता I उसके लिए उसे ब्राह्मणमाता के कोख से ब्राह्मण रजवीर्य से जनम लेना ही पड़ेगा I......................... गीता का ज्ञान देने वाले प्रकांड पंडित श्रीकृष्ण कभी ब्राह्मण नहीं कहे गए विदुर जी जैसे प्रकांड विद्वान ब्राह्मण नही कहलाये अशवाश्थामा द्वारा घोर घृणित कार्य पांडव के समस्त पुत्रो का वध करने की बाद भी ब्राह्मन होने के नाते द्रौपती द्वारा माफ़ किया गया I............. गुणकर्म से अगर जाति बनती तो जीवन पर्यंत अस्त्र शस्त्र का प्रयोग करने वाले परशुराम और द्रोणाचार्य क्षत्रिय नहीं बन सके I........... .......................... आज के परिवेश में बात करे तो ........... ब्राह्मन का पुत्र चाहे,उसके पास रहने को घर न हो ,पहनने को कपडे न हो ,खाने को अन्न न हो ,उसे दलित का दर्ज़ा नहीं मिलेगा ,उसकी जाति ब्राह्मन ही रहेगी ,उसे नौकरी में आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा ,चाहे वो खाए बिना मर जाये I वही कोई भी ,जो आरक्षण का पात्र हो हो ,कितना भी बड़ा ज्ञानी हो ,उसके पास बंगला ,गाड़ी,कहने का मतलब सब कुछ हो , फिर भी उसकी जाति वही रहेगी क्यों की वो उस जाति से मतलब रखता है ,उसे ही आरक्षण का लाभ मिलेगा ..........( इसे अन्यथा न लिया जाय,सिर्फ एक उदाहरण के रूप में ले ) व्यक्ति, चाहे किसी भी जाति का हो, अपने जाति ,अपने माता - पिता और अपने पूर्वजो पर गर्व करना चाहिए धन्यवाद........................

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

भगवान् परशुराम


>>>>>>>>>>>>>>भगवान् परशुराम<<<<<<<<<<<<<< श्रीपरशुरामजी के विषय मेँ कालिका पुराण भागवत महाभारत तथा पद्मपुराण आदि मे बहुत। प्रकाश डाला गया है । कालिका पुराण के अनुसार - इक्ष्वाकुपुत्रविदर्भनरेश रेणु की पुत्री रेणुका से महर्षि जमदग्नि न विवाह किया । जिससे इनके रुमण्वान् सुषेण आदि चार पुत्र हुए तत्पश्चात् सहस्रबाहु के वध की इच्छा से इन्द्रादि देवताओ द्वारा प्रार्थना किये जाने पर स्वयँ भगवान् विष्णु ने इन जमदग्निजी के यहाँ रेणुका के गर्भ से परशुराम जी के रूप मे जन्म लिया । सबसे डी विशेषता यह कि ये अपने फरसे (परशु)। के साथ ही प्रकट हुए - भारावतारणार्थाय जातः परशुना सह । सहजःपरशुस्तस्य तं जहाति कदा च न । । ... यह इनका प्रमुख आयुध है इसे कभी नही त्यागते । इसीलिए इहेँ परशुराम कहा जाता है । पद्मपुराण के अनुसार जमदग्नि जी ने स्वयं देवराज इन्द्र को यज्ञ से प्रसन्न करके महाबलशाली परमतेजस्वी और शत्रुसंहारक पुत्रप्राप्त किया जो सर्वलक्षणसम्पन्न एवं भगवान् विष्णु का अवतार था - विष्णोरंशाँशभागेन सर्वलक्षणलक्षितम् । प.उ.ष.अ.241/10. पररशुरामजी गण्डकी नदी के तट पर महर्षि कश्यप से मन्त्रग्रहण करके अनेक वर्षो तक तप किये । विष्णु भगवान् ने प्रसन्न होकर इहेँ शत्रुसंहारक फरसा तथा दिव्य वैष्णव धनुष एवं अनेक अस्त्र शस्त्र देकर दुष्ट राजाओँ के विनाश का निर्देश दिया । जब ये बाहर गये हुए थे उसी समय सहस्रार्जुन आकर ध्यानस्थ जमदग्नि जी की गौ नदेने के कारण निर्मम हत्या कर डाली । माँ रेणुका छाती पीट पीट कर जोरजोर से रोने लगीँ । रुदन सुनकर परशुरामजी शीघ्र दौड़ कर आये और प्रतिज्ञा करते हुए बोले - मातः आपने 21 बार छाती पीटा है । अतः मैँ 21बार इन दुष्ट राजाओँ कासंहार करूँगा । ध्यान देने की बात यह है कि परशुरामजी के पिता कावध एक पापी राजा ने किया था इधर भगवान् विष्णु ने भी उन्हे दुष्ट। राजाओँ के वध की ही आज्ञा दी है - जहि दुष्टान् नृपोत्तमान् - पद्मपुराण उत्तरखण्ड 241वाँ अध्याय श्लोक 41. अतःउन्होने मात्र दुष्ट राजाओँ का ही संहार किया सामान्यक्षत्रियो का नही । अतः उन्होने पापी राजवंश का नाश किया। सहस्रार्जुन जैसे हजारो राजा उनके हाथ से दण्ड पाकर पापमुक्त हुए। रावण का अत्याचार बढ़ने पर भी इन्होने उसेअनाचार न करने का सन्देश भेजा था। जिसे सुनाने के बाद सेनापति प्रहस्त ने लड़्केश से कहा - परशुरामजी को केवल ब्राह्मण समझकर उनकी आज्ञा का उल्लड़्घन नही करना चाहिए इसी मे आपका कल्याण है अन्यथा आपके मित्र जमदग्निनन्दन का मन खिन्न हो जायेगा - ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये । जामदग्न्यश्च वो मित्रमन्यथा दुर्मनायते ।। इसलिए ये धारणा मन से निकाल देनी चाहिए कि परशुरामजी किसी जातिविशेष के विरोधी थे । वर्तमान काल मेँ जाति पाँति का भेदभाव न रखकर अत्याचारियो आतड़्कवादियो और भ्रष्टाचारियो के विरुद्ध अस्त्र उठाने की प्रेरणा देने वालो मे सर्वश्रेष्ठ मूलपुरुष श्रीपरशुराम जी का स्मरण करते हुए एकजुट होकर अत्याचार भ्रष्टाचार और आतड़्कवाद से लोहा लेने के लिए कृतसड़्कल्प होना है । हमइन्हे आदर्श मानकर इनका स्मरण करते हुए रण का बिगुल बजा देँ -- जय जय महबली दुर्धर्ष भगवान् श्रीपरशुराम जय जय महबली दुर्धर्ष भगवान् श्रीपरशुराम -----------------------------आचार्य सियारामदास -------------------------------------------

शनिवार, 8 सितंबर 2012

धर्म, सम्प्रदाय, न्याय एवं जनतंत्र के मूल सिद्धांत

धर्म, सम्प्रदाय, न्याय एवं जनतंत्र के मूल सिद्धांत,
भारतीय संविधान तथा जातिवाद मजहब की गंदी राजनीति

“धर्म” शब्द संस्कृत भाषा का मूल शब्द है, जिसका समानार्थक कोई भी दूसरा शब्द विश्व की किसी भी अन्य भाषा में उपलब्ध नहीं है | “धर्म” शास्वत सत्य है एवं सबके लिए कल्याणकारी है तथा “धर्म” के नियम सभी समय में, सभी स्थान पर, सम्पूर्ण विश्व में, सभी व्यक्ति पर समान रूप से लागु होते हैं | “न्याय” का अर्थ धर्म के नियमानुसार सभी व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुरूप उसका फल प्रदान करते हुए अपराधी को समुचित दंड, पीड़ीत व्यक्ति को समुचित क्षतिपूर्ति तथा पीड़ीत- कमजोर व्यक्ति की रक्षा हेतु आगे बढ़कर काम करने वाले व्यक्ति को समुचित पुरस्कार देते हुए हर रूप में धर्म की विजय का समुचित प्रयास है | “राज्य अथवा राष्ट्र और उसकी सरकार की स्थापना का उद्देश्य” हर रूप में धर्म की रक्षा, विजय और प्रोत्साहन द्वारा सभी व्यक्ति को धर्म के नियमानुसार न्याय प्रदान करना, समाज में शांति और क़ानून व्यवस्था बनाये रखना, व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोमुखी पोषणीय विकास हेतु आधारभूत संरचना (सिंचाई, व्यापार, बिजली, पानी, आवागमन एवं संचार की सुविधा) का निर्माण तथा बाह्य आक्रमण से व्यक्ति एवं समाज की रक्षा करना है | “जनतंत्र अथवा प्रजातंत्र” शासन की वह पद्धति है जिसके अंतर्गत शासन के सम्यक संचालन हेतु सामान्य जनता द्वारा सर्वश्रेष्ठ, सबसे महान, सबसे सुयोग्य और सबसे सक्षम व्यक्ति का चयन (निर्वाचन) कर उसे शासन के संचालन का अधिकार समर्पित किया जाता है |

विभिन्न काल खंड में महावीर, महात्मा बुद्ध, ईसा मसीह (जीसस क्राईस्ट), पैगम्बर मोहम्मद, संत कबीर दास, मार्टीन लूथर, स्वामी दयानंद सरस्वती आदि महान समाज सुधारक एवं धर्म सुधारक महापुरुषों ने अपने अपने समय में हो रहे धर्म के नाम पर प्रचलित ढोंग – पाखण्ड का प्रबल विरोध किया तथा ढोंग पाखण्ड से मुक्त समाज के निर्माण द्वारा सम्पूर्ण विश्व में धर्म के प्रोत्साहन का प्रयास किया | परन्तु उनके समर्थक लोग उन्हीं महापुरुषों के नाम पर अलग – अलग सम्प्रदाय (मजहब) की स्थापना कर लिए और ईश्वर की पूजा – पाठ की विधि तथा पूजा स्थल (मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा) की बनावट, रीति- रिवाज, पर्व – त्यौहार, सम्प्रदाय विशेष का प्रतीक चिन्ह और वस्त्र विधान (ड्रेस कोड) के अलग - अलग नियम बनाकर अपने समुदाय को श्रेष्ठ बताकर दूसरों से झगडा करने लगे | यही नहीं, एक विशेष सम्प्रदाय (मजहब) के लोग दूसरे सम्प्रदाय के पूजा स्थलों को नष्ट करने लगे तथा सम्प्रदाय (मजहब) के नाम पर अत्याचार, ह्त्या, बलात्कार, लूट, उग्रवाद और आतंकवाद को प्रश्रय दिया जाने लगा, जो उपरोक्त सभी धर्म सुधारक महापुरुषों की शिक्षा और उपदेशों के विरुद्ध है|

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार – “हम भारत के लोगों ने सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में भारत राष्ट्र का गठन किया है, जिसका उद्देश्य सभी नागरिकों को सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान करना; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास एवं ईश्वर की पूजा विधि की स्वतंत्रता प्रदान करना; सामाजिक प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता प्रदान करना; तथा व्यक्ति की गरिमा (मान मर्यादा) की सुरक्षा के साथ - साथ राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता को सुरक्षित रखते हुए सभी समुदाय के लोगों के बीच भ्रातृत्व की भावना को प्रोत्साहित करना है |” संविधान के अनुच्छेद 15 (1) एवं 16 (1) के अनुसार – “भारत की सरकार एवं संसद, राज्य सरकार अथवा सरकारी पदाधिकारी द्वारा किसी भी नागरिक के विरुद्ध पंथ (संप्रदाय अथवा रेलीजन), नस्ल (रेस), जाति, लिंग, वंश, निवास स्थान आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा |”

परन्तु “जातिवाद और मजहब की गंदी राजनीति” के तहत भारत के संविधान में अन्य परस्पर विरोधी प्रावधानों का समावेश कर दिया गया, जिसका सहारा लेकर स्वतंत्र भारत में हिन्दू एवम मुसलमान के लिये मजहब के आधार पर अलग - अलग कानून बनाये गये, विभिन्न समुदाय के लोगों को अल्प संख्यक, बहुसंख्यक, पिछड़ी जाति, अगड़ी जाति, दलित, महादलित आदि का दर्जा दिया गया तथा हर क्षेत्र में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, जो धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है, जो पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है, जो अयोग्यता एवं अक्षमता को प्रोत्साहित करता है, जो प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की समस्या का जन्मदाता है तथा समाज के “सर्वतोमुखी पोषणीय विकास” (ऑल राउंड सस्टेनेबुल डेवलपमेंट) में सबसे बड़ी बाधा है |
----- कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”

ब्राह्मण समाज कल-आज और कल

ब्राह्मण समाज की जातिगत उत्पत्ति, उसके आचरण, अन्य वर्गों पर किये गये कथित अत्याचारों पर स्वयंभू विद्वानों और अवसरवादी राजनेताओं द्वारा प्रायः बेतुके बयान दिये जाते हैं। प्रस्तुत लेख इन वक्तव्यों का विरोध या चीरफाड़ करने के बजाय तथ्य और तर्क के आधार पर अपनी बात कहने का प्रयास है। यों भी मिटाये बिना किसी रेखा को छोटी करने के लिए उसके समांतर लंबी रेखा खींचने की नीति सम्मत राय है। ब्राह्मण समाज के अतीत, वर्तमान एवं अपेक्षित भविष्य की लेखक की अपनी क्षमता में ईमानदार मीमांसा का प्रयास इस लेख का उद्देश्य है। ब्राह्मण कौन है?- यस्क मुनि के अनुसार- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः। वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।। व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है। ब्राह्मण के कर्तव्य- ब्राह्मण के कर्तव्य गिनाते हुए शास्त्र कहता है- अध्यापनम्‌ अध्ययनम्‌ यज्ञम्‌ यज्ञानम्‌ तथा। दानम्‌ प्रतिग्रहम्‌ चैव ब्राह्मणानामकल्पयात।। अर्थात्‌ अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ करना-यज्ञ कराना, दान लेना-दान देना ब्राह्मण के मुख्य कर्तव्य हैं। दृष्टव्य है कि समाज हित के किसी भी प्रकार के ज्ञान/उपलब्धि/जानकारी को अपने तक सीमित न रखने का स्पष्ट निर्देश ब्राह्मण को दिया गया है। यही कारण रहा कि अध्ययन के बाद अध्यापन, केवल यज्ञ करना नहीं अपितु शास्त्रोक्त रूप से कराना भी, दान केवल लेना नहीं बल्कि देना भी ब्राह्मण दर्शन में अनिवार्य समझा गया। श्रेष्ठ आचरण, अद्वैत दृष्टि और निष्ठा से कर्तव्य पालन के भाव के चलते ब्राह्मण वर्ग मानव कुल का सिरमौर बना। स्वाभाविक था कि शिक्षक, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, ज्ञानी, अन्वेषी आदि ब्राह्मण कहलाये। ब्राह्मण के स्वभाव का उल्लेख करते हुये नीति कहती है - शमोदपस्तपः शौचम्‌ क्षांतिरार्जवमेव च। ज्ञानम्‌ विज्ञानमास्तिक्यम्‌ ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌। ब्राह्मण चित्त पर नियंत्रण, इंद्रियों पर नियंत्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता एवं ज्ञान-विज्ञान में विश्वास रखने वाला ब्राह्मण होता है। अनुवांशिकता का आरोप- वैदिक संस्कृति ने जन्म नहीं अपितु कर्म के आधार पर मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित किया है। इस वर्गीकरण के अंतर्गत श्रमिक समाज का नामकरण शूद्र किया गया। कृषि एवं व्यापार को प्रधान कर्म के रूप में अंगीकार करने वाला वैश्य बना। धर्म रक्षा का दायित्व वहन करने वालों को क्षत्रिय संबोधित किया गया जबकि अध्यात्मविद्या का उत्तरदायी ब्राह्मण कहलाया। जन्मतः जातिप्रथा को सनातन संस्कृति का मूल बताने वालों ने अपवादात्मक साहित्य को परंपरा के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। शूद्र द्वारा वेद का उच्चारण सुन लेने पर उसके कानों में पिघला सीसा घोल देने का संदर्भ देनेवाले ब्राह्मणों द्वारा ही लिखे गये "सर्वेजना सुखिनो भवंतु' और "वसुधैव कुटुंबकम्‌' का संदर्भ देने से कतराते हैं। ब्राह्मण जातिगत होता, अपने तक सीमित रहता तो "सर्वेजना' के स्थान पर "ब्राह्मण' शब्द का प्रयोग करता। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' भी किसी ब्राह्मण(याने विद्वान) ने ही लिखा होगा। बौद्ध मीमांसा के अनुसार जटा, गोत्र या जन्म से नहीं बल्कि जिसमें सत्य है, धर्म है जो पवित्र है वही ब्राह्मण है। एक अन्य मत के अनुसार चर-अचर किसी प्राणी को दंड नहीं देता, न किसीको मारता है, न मारने की प्रेरणा देता है वही ब्राह्मण है। ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये किसी भी ग्रंथ में सजातीय समाज के लिये सीधे स्वर्ग की व्यवस्था और गैर ब्राह्मणों को नर्क के हवाले करने का उल्लेख भी नहीं किया गया। स्वर्ग-नर्क का निर्धारण मनुष्य के कर्म के आधार पर किया गया। धार्मिक साहित्य ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें कुलीन घर में जन्म लेने वाले को नर्क और कथित अधम को स्वर्ग भेजने की गाथाएं हैं। आलोचक स्वयंवर का संदर्भ भी भूल जाते हैं। स्वयंवर समाज के हर वर्ग के लिए खुला था। अधिकांश राजाओं(क्षत्रिय) द्वारा अपनी राजकुमारी का विवाह ॠषि-मुनि (ब्राह्मण) से कराने की परंपरा को अपवाद स्वरुप भी देखने का प्रयास इन अनुसंधानकर्ताओं ने नहीं किया। राजप्रासाद की कन्या द्वारा सारे भौतिक ऐश्वर्य तजकर कुटिया में निर्धन जीवन बिताने की कल्पना करना भी आज के समय में कठिन है। वस्तुतः ये रजोगुण पर सद्‌गुण को वरीयता देनेवाले समाज का उत्कृष्ट उदाहरण है। उपरनिर्दिष्ट यस्क उवाच तो मानो इन आलोचकों ने कभी सुना ही नहीं जन्म से अब्राह्मण वाल्मीकि और विश्वामित्र के कर्म द्वारा क्रमशः महर्षि और राजर्षि की उपाधि पाने के प्रसंग भी गौण कर दिये गये। एक संदर्भ कहता है कि वेदों, पुराणों, महान्‌ पुस्तकों का ज्ञाता, पूजा-पाठ, विधि-विधान, मंत्रोच्चारण, यज्ञ, विवाह, यज्ञोपवीत आदि में दक्ष व्यक्ति पंडित होने का अधिकारी है। पर पंडित जाति से ब्राह्मण हो इसका कोई उल्लेख नहीं है। एक अन्य संदर्भ में ब्रह्मकुल शब्द का उपयोग करते हुये ब्राह्मण के ॐकार (वेद) को पिता एवं गायत्री को माता कहा गया है। हिंदुत्व में यह सिद्धांत हर अनुयायी पर लागू होता है केवल ब्राह्मण पर नहीं। आत्मबल द्वारा ब्रह्म तेज की प्राप्ति का लक्ष्य बनाने वाले को भी ब्राह्मण कहा गया है। यह सिद्धांत भी जाति से परे हर मनुष्य पर लागू होता है। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि ब्राह्मण शब्द जन्म से किसी कुल विशेष में पैदा होने वाले के लिए नहीं है। संक्रमण काल लम्बे समय तक सुख-समृद्धि-शान्ति से जीनेवाली आर्य संस्कृति कालम्तर में विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार बनी। मंदिर अपार सम्पत्ति का केंद्र थे। चूँकि लुटेरे अनार्य थे, मंदिर के प्रति कोई श्रद्धा या आस्था उनमें नहीं थी। इन मंदिरों को अनेक बार लूटा गया। विशेषकर मुगलों ने तो क्रूरता और अमानवीयता की सारी सीमाओं को पार कर दिया। गर्भगृहों को तोड़ दिया गया, सम्पत्ति पाने के लालच में मंदिर ढहाकर खुदाई की गई।ध्यान देने वाली बात ये है कि इन मंदिरों का सारा प्रबंध ब्राह्मणों के पास था। मंदिर उनकी आजीविका तथा ज्ञानार्जन के केंद्र थे। मंदिरों, उनसे जुड़े गुरुकुल, आश्रम और विद्यालयों के विनाश ने ब्राह्मण समाज का आर्थिक ढॉंचा छिन्न-भिन्न कर दिया। समाज घोर वित्तीय विपन्नता में फंस गया, रोटियों के लाले पड़ गये। उक्ति है-" भूखे भजन न होय गोपाला'। बदली परिस्थितियों में ब्राह्मण वर्ग की प्राथमिकता भी बदल गई। किसी भी तरह जीविकोपर्जन उसके लिए पहले क्रमांक पर आ गया। जिस तरह घर चलाने के लिए श्रमिक का बेटा छुटपन से ही काम करने लगता है, ब्राह्मण पुत्र भी वेद, शास्त्र,दर्शन या मीमांसा के किसी औपचारिक शिक्षण के बिना पौरोहित्य कराने लगा। समय बीतने के साथ तत्कालीन अनिवार्यता, आदत में बदल गई। परिणामस्वरुप खोखले ज्ञान और दिखावटी जानकारी वाला पुरोहित वर्ग खड़ा हो गया। ज्ञान प्रधान कर्म से ज्ञान का लोप हुआ, सहज था कि ब्राह्मण का मान भी समाज में पहले जैसा नहीं रहा। रिस्पेक्ट इज कमांडेड (सम्मान अपने कर्म से हासिल किया जाता है), नॉट डिमांडेड (मांगा नहीं जाता)। निराधार जातिगत अहम्‌ ओढ़ा अल्पज्ञानी समाज सम्मान की चाह करने लगा, ऐसे में स्थिति शोचनीय हो गई। कर्मकाण्ड के पाठ्यक्रम की आवश्यकता- इस दुर्दशा से मुक्त होने के लिए निदान ढूँढ़ना एवं उसपर अमल करना आवश्यक है। दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, काशी और देश के कतिपय अन्य गुरुकुलों का अपवाद छोड़ दें तो पूरे देश में कर्मकाण्ड की विधिवत शिक्षा व प्रशिक्षण देनेवाला कोई संस्थान नहीं है। समय की आवश्यकता व मांग है कि पौरोहित्य के लिए सर्वसमावेशक मानक पाठ्यक्रम तैयार किया जाए। इस पाठ्यक्रम में षोढष संस्कारों का कर्मकाण्ड शास्त्रोक्त तरीके से सूत्रबद्ध किया जाए। भारत की बृहत्तर प्रांतीय भिन्नता को देखते हुए पाठ्यक्रम ऐसा हो जो कश्मीर से कन्याकुमारी और गंगटोक से रामेश्वरम्‌ तक मान्य हो। इस पाठ्यक्रम में प्रांतों के स्थानीय लोकाचारों का भी उल्लेख हो। एक स्वायत्त केंद्रीय मंडल बने जो इस पाठ्यक्रम के आधार पर परीक्षाओं का संचालन करे। इन परीक्षाओं को लिखित, मौखिक और प्रयोग सहित उत्तीर्ण करनेवालों को पुरोहित की मानद्‌ उपाधि दी जाए। वतर्मान सदी ज्ञान और सूचनाक्रांति की है। साथ ही एक्स्परटाइज याने अपने क्षेत्र में पारंगत होने की भी है। समुचित शिक्षा-प्रशिक्षण के बिना पौरोहित्य भविष्य में संभव नहीं हो पायेगा अतः इस विषय पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। *(1) सर्वसामान्य प्रार्थना की आवश्यकता- उदारता हिंदुत्व की मूल भावना है। अद्वैत दर्शन की इस संस्कृति ने शरणागत की विशेषताओं को अक्षुण्ण रखते हुए उसे अंगीकार कर लिया या "जाकि रही भावना जैसी' के अनुसार शरणागत के अनुरुप ढल गई । यही कारण है कि अन्यान्य क्षेत्रों में जहॉं-जहॉं भी हिंदुत्व है, वह अलग-अलग लोकाचारों और भिन्न-भिन्न प्रार्थनाओं के साथ दृष्टिगोचर होता है। बदलते समय में इस समाज को पार्थिव रूप से एकजुट रखने की आवश्यकता है। एकजुटता के लिए समान मानदंड और प्रतीक अनिवार्य होते हैं। राष्ट्र की एकजुटता और चेतन अस्तित्व के लिए ज्यों राष्ट्रगान, राष्ट्रभाषा के मानदंड होते हैं, उसी तरह समुदाय के लिए सर्वसामान्य प्रार्थना/आरती अनिवार्य है। अलग-अलग मंदिरों में अलग-अलग आरतियॉं सुनने को मिलती हैं। ये प्रतिष्ठित मूर्ति के अनुरुप होता है पर फिर भी एक मानक आरती / प्रार्थना होनी ही चाहिए। इस आरती के गान के बाद संबंधित देवता की आरती हो सकती है। मानक प्रार्थना के अभाव में श्रद्धालु पूजा में प्रत्यक्ष सहभाग अनुभव नहीं करता। दो-चार भक्त संबंधित आरती का गान करते हैं, शेष समुदाय मौन खड़ा रहता है। इस मौन को मुखर करना आवश्यक है। मेरे स्वर्गीय पिता परम्‌ िवद्वान आचार्य पंडित काशीलाल मिश्र का स्वप्न था कि हिंदुओं के बीच एक सर्वसामान्य मानक आरती अवश्य हो। इस स्वप्न को यथार्थ में बदलना कालानुरुप एवं दूरगामी परिणाम देनेवाला होगा। पॉंचवी जाति की संकल्पना- हिंदुओं के अपने अज्ञान, विदेशी शासकों की नीतियों और विधर्मी षड्‌यंत्रों के चलते कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था, अनुवांशिक जातिप्रधान हो गई। इस नई व्यवस्था ने हिंदु समाज के सामने धर्मपरिवर्तन की विद्रूप समस्या खड़ी की। धर्मांतरण समकालीन समाज के आगे मुँहबाए खड़ा विकट प्रश्न है। प्रश्न का समाधान पाने के लिए "थिंक टैंक' समझे जानेवाले ब्राह्मणवर्ग को समुदाय आशा से देख रहा है धर्मांतरण के कारणों की चर्चा या मीमांसा यहॉं प्रासंगिक नहीं है। यह लेख इस विषय से जुड़े एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान आकृष्ट करना चाहता है। मान लीजिए कि धर्मांतरित हुआ कोई व्यक्ति या अन्य धर्मावलंबी हिंदुत्व अपनाना चाहता है तो वर्तमान सामुदायिक व्यवस्था में उसकी जाति कौन सी होगी? उसके साथ रोटी-बेटी का व्यवहार कौन करेगा? समुदाय उसकी जाति तय करेगा या उसे अपनी जाति चुनने का अधिकार होगा? धर्मांतरित/संप्रति हिंदु अपनी वर्तमान जाति परिवर्तित कर दूसरी जति में जाना चाहे तो प्रक्रिया क्या होगी? इन प्रश्नों के निदान के लिए पहले से जाति प्रथा का दंश झेल रहे हिंदुत्व में क्या पॉंचवी जाति का निर्माण किया जाए? "कॉंटा कॉंटे को निकालता है' की तर्ज पर विचार तो हो ही सकता है। लेखक का मानना है कि प्रश्न हैं तो उत्तर भी होंगे। आवश्यकता है प्रश्न खड़े करने की, पियुष या हलाहल जो भी मिले मंथन तो करना ही होगा। हिंदुत्व में लौटने के इच्छुकों के परिप्रेक्ष्य में पॉंचवी जाति की संकल्पना लेखक की ओर से प्रश्न का ढूँढ़ा गया एक संभावित उत्तर है। चूँकि इस प्रश्न का कैनवास बहुत बड़ा है, अतः उत्तर भी असंख्य हो सकते हैं। इस संदर्भ के अनंत विस्तार को देखते हुए पॉंचवी जाति की संकल्पना का यहॉं उल्लेख भर किया गया है। इसपर अलग से चर्चा हो सकती है, समाज विचार करे। अंतर उपजातीय विवाह की आवश्यकता- ब्राह्मण समाज का वैवाहिक परिदृश्य विरोधाभास से भरा हुआ है। एक ओर तो लड़के/लड़की द्वारा स्वयं तय किया गया अंतरजातीय, अंतरधर्मीय, यहॉं तक कि अंतरदेशीय विवाह भी समाज स्वीकार कर लेता है। वहीं दूसरी ओर समाज का सदस्य जब खुद रिश्ते तलाशने निकलता है तो जाति, धर्म देश की तो छोड़िए, केवल अपनी उपजाति की चहारदिवारी में लड़का/लड़की ढूँढ़ता है। "गुड़ खाये, गुलगुले से परहेज' का यह मानसिक रोग समझ से परे है। उपजातीय संरचना तक पहुँच रहे जातिगत कसैलेपन को रोकना होगा। भाषा, लोकाचार, बार-त्यौहार, खान-पान में समानता, उच्चशिक्षा, प्रतिष्ठित परिवार आदि के बेहतर विकल्प पाने के लिए अंतर उपजातीय विवाह समय की अनिवार्य मांग है। इतिहास साक्षी है कि बचा वही जो समय के साथ चला। तय करना है कि ब्राह्मण इतिहास रचेगा या इतिहास हो जायेगा। उपजातियों में एक दूसरे को ऊँचा-नीचा समझने की भावना विद्यमान है। एक प्रांत के ब्राह्मण द्वारा दूसरे प्रांत के ब्राह्मण को हेय समझना, उसके दुःख को अनदेखा करना दुराग्रही, दुर्भाग्यपूर्ण और अकल्पनीय है। इससे अधिक दुःखद और क्या होगा कि अपने ही देश में अपनी जन्मभूमि से बेदखल कर दिये गये कश्मीरी पंडितों के समर्थन में एक्का-दुक्का ब्राह्मण संस्थाएं ही आगे आईं। उपजातियों में समाज का बॅंटवारा हर घटक के लिए खतरे की घंटी है। उत्पीड़न का विरोध एट्रोसिटी अथवा उत्पीड़न विशेषकर शाब्दिक उत्पीड़न ब्राह्मण समाज द्वारा झेली जा रही बहुत बड़ी समस्या है। स्वाधीनता के बाद खासतौर पर पिछले लगभग तीन दशक से राजनीति कुटिल और कलुष होती गई है। समाज को विभाजित कर सत्ता टिकाये रखने के फॉर्मूले ने राजनीति को विषमता तथा भेदभाव पर केंद्रित कर दिया है। आलोचना के लिए ब्राह्मण सबसे "सॉफ्ट टारगेट' बन गया है। मौन स्वीकृतिं लक्ष्णं के अनुरूप ब्राह्मण का मौन आरोपित अपराधों पर समुदाय की स्वीकृति की मोहर लगा देता है। ब्राह्मण वर्ग को आगे आकर और खुलकर इस उत्पीड़न का विरोध करना होगा। अपमानकारक शब्दों का प्रयोग करने वालों के विरुद्ध मुकदमे दायर किये जायें। स्वजातीय चेतना के लिए गठित संस्थाएं ये काम करें या याचिकाकर्ता की सहायता करें। देशभर में ऐसे दो-तीन सौ मुकदमे भी दायर हुए तो सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अनर्गल प्रलाप करने वाले राजनेताओं और क्षुद्र स्वार्थों के लिए समाज में भेद उत्पन्न करने वालों की जबान पर लगम लग जायेगी। विरोध प्रदर्शन के साथ-साथ समाज को राजनीति का उत्तर राजनीति से देना सीखना होगा। समाज का शिक्षित युवा वर्ग बड़ी संख्या में देश की राजनीतिक व्यवस्था में शामिल हो। समाज के विरुद्ध हो रहे विषैले प्रचार के सामने ब्राह्मण वर्ग की कथनी और करनी अमृत सिद्ध होगी। मंदिरों और मठों की भूमिका एक महत्वपूर्ण व संवेदनशील मुद्दा मंदिरों की संख्या और उनके रख-रखाव की है। देश भर में यत्र-तत्र-सर्वत्र छोटे -बड़े असंख्य मंदिर हैं। इनमें से सड़क के किनारे या किसी खास स्थान के आसपास खड़े किये गये मंदिरों में न तो कलशारोहण हुआ है, न ही मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई है। इन सारे मंदिरों को एक व्यवस्था के अंतर्गत एक छत्र के नीचे या चार पीठों में से किसी एक ( मंदिर की भौगोलिक स्थिति के अनुसार) के अंतर्गत लाया जाना चाहिये। मंदिरों में चर्च की तर्ज़ पर सदस्यता पर विचार भी किया जा सकता है। हर मंदिर में एक साप्ताहिक आयोजन अवश्य हो, सदस्य के घर के सुखद प्रसंगों पर उत्सव हो, दुखद प्रसंगों में अन्य सदस्य शोक बॉंटने में सहभागी हों। मंदिरों में मूर्ति पर चढ़ावे की पद्धति पूरी तौर पर बंद हो, दानराशि केवल दानपात्र में ही डाली जाये। अंधविश्वास के चलते बलिप्रथा का चलन जिन मंदिरों में अब भी जारी है, वहॉं इस प्रथा को तुरंत बंद कराया जाये। अनेक तीर्थस्थानों और श्रद्धालुओं की मान्यता वाले मंदिरों में पंडे धर्म के नाम पर जबरन वसूली करते दिखाई देते हैं। ये वसूली पंडों के प्रति वितृष्णा तो पैदा करती ही है, श्रद्धालु के मन में धर्म के प्रति उदासीनता का भाव भी जगाती है। लेखक को इस बात का भली-भॉंति संज्ञान है कि अधिकांश लाभार्थियों का इन सुझावों से विरोध होगा। पर समय-समय पर विकृतियों की शल्यचिकित्सा किये बिना समाज और धर्म निरोगी नहीं रह पायेंगे। चूँकि मंदिरों की कमान ब्राह्मण वर्ग के हाथ में है, अत: चीरा लगाने की पहल भी हमें ही करनी होगी। विश्व का सबसे पुराना धर्म होने के कारण हमारे मठों में अकूत सम्पत्ति जमा है। कुछेक मठों में अन्नदान और गुरुकुल ( वह भी बेहद छोटे स्तर पर) छोड़ दें तो अधिकांश में कोई विशेष गतिविधि दिखाई नहीं देती। आज के समय में शिक्षा सबसे महंगा उद्योग हो चला है। अंग्रेजी शिक्षा ने तो छात्रों को जड़ों से ही काट दिया है। भाषा संस्कार की वीणा और संस्कृति की वाणी है। हमारे मठों को भारतीय भाषाओं में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्यालय-महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र आरंभ करने चाहिएं। इनमें माध्यमिक शिक्षा विभिन्न भारतीय भाषाओं(प्रदेश के अनुसार) में दी जानी चाहिए जबकि उच्च शिक्षा का माध्यम हिंदी हो। इन संस्थानों में संस्कृत का अध्ययन अनिवार्य हो। ज्योतिष के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए अनुसंधान केंद्र खोले जाएं। अंतरराष्ट्रीय संवाद कक्ष स्थापित किये जा सकते हैं। सभी संस्थानों को आधुनिक तकनीक से जोड़ा जाये। ऑनलाइन स्टडी सेंटर हों। फेसबुक, ट्‌विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्‌स का उपयोग हो। यदि ये विचार आंशिक रूप से भी अमली जामा पहनता है तो समाज और देश का भला होगा। भूमंडलीकरण के सामने भारतीयकरण हिमालय-सा खड़ा होगा। समुदाय अपनी सांस्कृतिक चेतना को जागृत रूप में देख पायेगा और संबंधित संस्थानों को आमद तो होगी ही। बौद्धिक संपदा की धरोहर वाले समाज को पोषक वित्त उपलब्ध हो तो कोई आश्चर्य नहीं कि एक पीढ़ी बाद देश बदला हुआ दिखाई देने लगे। आत्मचिंतन समुदाय व्यक्तियों का समूह है। व्यक्ति स्वयं को परिवर्तित करे तो समुदाय में परिवर्तन स्वयंमेव आरंभ हो जाता है। परिवर्तन हेतु आत्मचिंतन आवश्यक है। पहला संदर्भ ब्राह्मणों की रसोई का है। अनेक ब्राह्मण परिवारों का खानपान बिगड़ गया है। शराब का प्रवेश बेखौफ हो चुका है। चोरी छिपे मांसाहार भी किसी से छिपा नहीं है। समाज में ये अवगुण आये कैसे? स्पष्ट है कि परिवार द्वारा दिये गये संस्कारों में कमी रही,कुसंग रहा। अधिकांश ब्राह्मण घरों में कोई नियमित यज्ञ, सत्संग, धार्मिक लोकाचार होता नहीं दिखता। बच्चों की तो छोड़िये, उनके माता-पिता भी वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण की सही संख्या नहीं जानते। रूढ़िवादी घरों में आज भी शकुन के कार्यों में विधवाओं और नि:संतान महिलाओं को टाला जाता है। कन्या के जन्म पर दुखी होनेवाले अभागों की कमी नहीं। सम्पन्न परिवार भी दहेज के लालच से मुक्त नहीं हैं। मृत्युभोज की प्रथा धड़ल्ले से जारी है। परिवार पर जान छिड़कने वाला, सबका हितैषी, अपनी मृत्यु के बाद पितर बन कर अपने ही परिवार का बुरा नहीं कर सकता, जैसी सामान्य बात नहीं समझने वालों का प्रतिशत भी बड़ा है। समुदाय के एक हिस्से का इस तरह का आचरण पूरे समुदाय को लज्जित करता है। सजातीय चेतना की आवश्यकता सारी विसंगतियों के बीच अपने नैतिक आचरण का आदर्श प्रस्तुत कर सकनेवाले सच्चे ब्राह्मणों को समाज का नेतृत्व करने के लिए आगे आना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार कमल के पत्ते पर जिस तरह पानी या आरे की नोक पर सरसों का दाना अलिप्त रहता है, ठीक उसी तरह से भोगों से अलिप्त रहने वाला ही सच्चा ब्राह्मण है। प्राचीनकाल में धर्मगुरुओं द्वारा शासक की प्रसन्नता- अप्रसन्नता की चिंता किये बिना तथ्य, तर्क और दर्शन के आधार पर समाज का मार्गदर्शन करने का आदर्श उदाहरण हमारेे सम्मुख है। नेतृत्व जड़ता से नहीं होता। दक्षिण भारत के कुछ मंदिरों ने भगवान को मंदिर से बाहर लाकर रथ में बैठाकर आम जनता के बीच ले जाना आरंभ किया है। जिस काल में भगवान को भी अपना आसन छोड़कर बाहर आना पड़ रहा हो, उसमें घर बैठे कुछ नहीं होगा। सामयिक धर्म का पालन करने सच्चे ब्राह्मण को सामाजिक समरसता का संदेश लेकर घर से बाहर निकलना ही होगा। समय सतत परिवर्तनशील है। गीता के दसवें अध्याय में भगवान कहते ह कि परिवर्तनशीलों में मैं समय हूँ। संकेत स्पष्ट है। बौदि्‌धक चर्वण मात्र से कुछ नहीं होगा। घटी-पल नष्ट किये बिना ब्राह्मण तुरंत सक्रिय हो। कहा भी गया है- या क्रियावान सा पण्डिता। अर्थात विद्वान वही है जो क्रियावान है। ब्राह्मण की सक्रियता की देश और समाज बाट जोह रहा है।

योग

योग अर्थात जीवन में अमूल्‍य परिवर्तन। सत्‍व, रजस और तमस के बीच संतुलन पा लेना। महर्षि पतंजलि के अनुसार- यमनियमासनप्रणायामप्रत्‍याहरधार णध्‍यानसमाधयेsष्‍टावड्गानि। अर्थात योग के आठ अंग है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि। यम - की साधना के पॉच अंग है- अहिंसा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह। नियम – शौच, संतोष, तप, स्‍वध्‍याय व ईश्‍वर प्रणिधान। आसन – स्थिर मुद्रा, विश्रात। प्रणायाम – यह अंर्तयात्रा का प्रारंभ है। प्राण का सामान्‍य अर्थ – जीवन तत्‍व एवं आयाम का अर्थ – विस्‍तार । अर्थात जीवन तत्‍व का विस्‍तार। सूक्ष्‍म दृष्टि से प्राण का अर्थ ब्राह्मण्‍ड में व्‍याप्‍त ऐसी उर्जा है जो जड एवं चेतना दोनों का समन्वित रूप है। प्राणायाम साधना का लक्ष्‍य इस तत्‍व को जानना तथा इस पर नियंत्रण पाना है। प्राणायाम से जो संकल्‍प वृद्धि होती है वह मनुष्‍य से स्‍थ्‍ूाल शरीर के समान्‍तर सूक्ष्‍मकाया कलवर को भी समर्थ बनाती है। जिस प्रकार सोने को तपाने से उसका खोअ निकल जाता है उसी प्रकार इंद्रियों के विकार प्राणायाम से जलकर नष्‍ट हो जाते है। प्रत्‍याहार – हिंसा, काम, क्रोध और ईर्ष्‍या के स्‍थान पर करूणा, प्रेम, श्रद्धा और अनुराग का जन्‍म। धारणा – अनावश्‍यक वस्‍तुओं का ध्‍यान छोडना। मन का एकाग्र होना। स्‍वयं का साक्षात्‍कार इसी इसी अवस्‍था में होता है। ध्‍यान – विषय विकारों से रहित, एक बिन्‍दु पर ध्‍यान केन्द्रित । समाधि – यह वह अवस्‍था है जहॉ पहॅुच कर साधक व्‍यक्ति नही होता। वह केवल समाज की सेवा एवं कल्‍याण के लिए जीता है। अगर भारत देश की प्राचीन संस्कृति, वेशभूषा, उपचार पद्धति को लोग अपनाये तो इसमें कोई शक नही कि देश की लुप्त संस्कृति, प्राथमिक उपचार, जड़ी-बूटियों से उपचार कराकर लोग चिरायु व स्वस्थ बने रह सकते हैं। जिससे राष्ट्र तो समृद्ध होगा ही, साथ ही लोग निरोगी बनकर बुढापे के भय से मुक्त होकर शान्त जीवन सहज ही बिता सकते हैं। शायद कम ही लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि प्राचीन पद्धति को अपनाकर इच्छा मृत्यु तक का वरण किया जा सकता है। जो लोग योग, प्राणायाम को अपनाते है, वे सहज ही रोगी नहीं होते, उनमें निराशा नहीं आती और वे सदा आत्मविश्वास से भरे होते हैं। स्थूल रूप से प्राणायाम, ‘वास-प्रश्वास के व्यायाम की एक ऐसी पद्धति है जिससे फेफड़े बलिष्ठ होते हैं, रक्त संचार की व्यवस्था सुधरने से समग्र आरोग्य एवं दीर्घ आयु का लाभ मिलता है।
वेदों, उपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता रहा है। उस ब्रह्म का न कोई आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग' है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक रूपों में प्रकट भी होता है। भाव यही है कि शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के कारण 'नेति-नेति' कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। वस्तुत: अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म (निर्गुण) की शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति है। यह शिव का परिचय चिह्न है। शिव के 'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप से जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म माना जा रहा है, यदि उसे ही जनसाधार
ण को समझाने के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया हो तो क्या यह अनुपयुक्त और अश्लील कहलाएगा। जो लोग इस प्रतीक चिह्न
में मात्र भौतिकता को तलाशते हैं, उन्हें इस पर विचार करना चाहिए।'लिंग पुराण' में लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है। इस पुराण में शिव के अट्ठाईस अवतारों का वर्णन है। उसी प्रसंग में अंधक, जलंधर, त्रिपुरासुर आदि राक्षसों की कथाओं का भी उल्लेख है। भारतीय मनीषियों ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त', 'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' ने इसी भाव को शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया है
एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु।
अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ (लिंग पुराण 1/2/7)
अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।
'लिंग पुराण' में सृष्टि की उत्पत्ति पंच भूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) द्वारा बताई गई है। प्रत्येक तत्त्व का एक विशेष गुण होता है, जिसे 'तन्मात्र' कहा जाता है। भारतीय मनीषियों के अनुसार, सृष्टि सृजन का विचार जब ब्रह्म के मन में आया तो उन्होंने अविद्या अथवा अहंकार को जन्म दिया। यह अहंकार सृष्टि से पूर्व का गहन अन्धकार माना जा सकता है इस अहंकार से पांच सूक्ष्म तत्त्व- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध उत्पन्न हुए। यही तन्मात्र कहलाए। इनके पांच स्थूल तत्त्व- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकट हुए। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार तत्त्वों के इसी विकास क्रम से सृष्टि का आविर्भाव होता है। यह सिद्धान्त हज़ारों वर्षों से विद्वानों को मान्य है।

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

ब्राह्मण कौन है


ब्राह्मण कौन है ? – ( वज्रसूचि उपनिषद् )

वज्रसुचिकोपनिषद ( वज्रसूचि उपनिषद् )
यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! इसमें कुल ९ मंत्र हैं ! सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं ! क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ? इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गय
ा है , अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है !

वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रंज्ञानभेदनम ! दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञान चक्षुषाम !!१!!

अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेद्वचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम ! तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं आर्म किं धार्मिक इति !!२!!

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है ! अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेतन्न ! अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरुपत्वात एकस्यापी कर्मवशादनेकदेहसम्भवात सर्वशरीराणां जीवस्यैकरुपत्वाच्च ! तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति !!३!!

इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें ! उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है ! जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते !

तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेतन्न ! आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पान्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरुपत्वाज्जरामरणधर्माधर​्मादिसाम्यदर्शनाद ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्ण इति नियमाभावात ! पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्मह्त्यादिदोषसंभावाच्च ! तस्मान्न देहो ब्राह्मण इति !!४!!

क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है? नहीं, यह भी नहीं हो सकता ! चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं, उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं ! ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो, ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है ! अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !!

तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेतन्न ! तत्रजात्यंतरजंतुष्वनेकजातिसंभव​ा महर्षयो बहवः सन्ति ! ऋष्यश्रृंगो मृग्या: कौशिकः कुशात जाम्बूको जम्बूकात ! वाल्मिको वल्मिकात व्यासः कैवर्तकन्यकायाम शंशपृष्ठात गौतमः वसिष्ठ उर्वश्याम अगस्त्यः कलशे जात इति श्रुत्वात ! एतेषम जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति ! तस्मान्न जातिर्ब्राह्मण इति !!५!!

क्या जाति ब्राह्मण है ( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है ! जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेतन्न ! क्षत्रियादयोSपि परमार्थदर्शिनोSभिज्ञा बहवः सन्ति !!६!!

क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये ? ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !

तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेतन्न ! सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसंचितागामिकर्मसाधर्म्य​दर्शानात्कर्माभिप्रेरिता: संतो जनाः क्रियाः कुर्वन्तीति ! तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति !!७!!

तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये? नहीं ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं ! अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !!

तर्हि धार्मिको इति चेतन्न ! क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति ! तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति !!८!!

क्या धार्मिक , ब्राह्मण हो सकता है? यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं ! अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !!

तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम ! यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मीषडभावेत्यादिसर्वदोषरहित​ं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूता​न्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्बहीश्चाकाशवदनुस्य​ूतमखंडानन्द स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमापरो​क्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य​ कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो​ दंभाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप​्रायः ! अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नासत्येव ! सच्चिदानंदमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानंद ब्रह्म भावयेदि त्युपनिषत !!९!!

तब ब्राह्मण किसे माना जाये ? (इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं – ) जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त ण हो; षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त ; अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त एनी किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता ! आत्मा सैट-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है ! इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है !

वज्रसुचिकोपनिषद : ( भाष्य:- पं श्रीराम शर्मा “आचार्य” )

रविवार, 19 अगस्त 2012

पीपल देववृक्ष है


देव वृक्ष पीपल में रहता है देवताओं का निवास
भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। पीपल वृक्ष प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। ग्रंथों में पीपल को प्रत्यक्ष देवता की संज्ञा दी गई है। स्कन्दपुराणमें वर्णित है कि अश्वत्थ(पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरिऔर फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है। यह सभी अभीष्टोंका साधक है। इसका आश्रय मानव के सभी पाप ताप का शमन करता है। भगवान कृष्ण कहते हैं-
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां
अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्वको व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि
अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता:सर्व देवता:।

अर्थात् पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्रम्में दिया गया
मंत्र है-
अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तु​पराभवम्॥आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं।देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥
वृहस्पतिकी प्रतिकूलता से उत्पन्न होने वाले अशुभ फल में पीपल समिधा से हवन करने पर शांति मिलती है।
आप सभी को सब प्रकार से पीपल वृक्ष की आराधना करनी चाहिए। इसके पूजन से यम लोक के दारुण दु:ख से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनकवर्णित करते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल के वृक्ष को लगाकर आठ वर्षो तक पुत्र की भांति उसका लालन-पालन करना चाहिए। इसके अनन्तर उपनयनसंस्कार करके नित्य सम्यक् पूजा करने से अक्षय लक्ष्मी मिलती हैं।
पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है।
शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से तथा काले तिल से युक्त सरसोतेल के दीपक को जलाकर छायादानसे शनि की पीडा का शमन होता है।
अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या में पीपल वृक्ष के पूजन से शनि से मुक्ति प्राप्त होती है।
श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है।
पीपल का वृक्ष इसीलिए ब्रह्मस्थानहै। इससे सात्विकताबढती है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र,जप और ध्यान उपादेय रहता है।

रविवार, 12 अगस्त 2012

रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंगमें पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं। तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है।इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
रामचरित मानस एहिनामा सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा॥
शोधकर्ताओं के लिए रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें अनेक रत्न भरे पडे हैं तथा इसका अध्ययन-मंथन सदा नूतन लगता है। जितनी बार इसे पढा़ जाय, उतनी ही बार नई-नई रहस्यपूर्ण बातों का ज्ञान होता है।
रामचरितमानस में सात अध्याय यानी कांड है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि रामायण के किस कांड में राम के जीवन की कौन सी घटना का वर्णन है।
रामचरितमानस की में कुल सात अध्याय यानी कांड हैं।

1.बालकांड- इसमें रामचरितमानस मानस की भूमिका, राम के जन्म के पूर्व घटनाक्रम, राम और उनके भाइयों का जन्म, ताड़का वध, राम विवाह का प्रसंग आदि।
2. अयोध्या कांड- राम का वैवाहिक जीवन, राम को अयोध्या का युवराज बनाने की घोषणा, राम कोवनवास, राम का सीता लक्ष्मण सहित वन में जाना, दशरथ की मौत, राम-भरत मिलापए राम की चरणपादुका लेकर नंदीग्राम में भरत का राज स्थापित करना आदि।
3. अरण्य कांड- राम का वन में संतों से मिलना,चित्रकुट से पंचवटी तक सफर, शुर्पनखा का अपमान, खर-दूषण से राम का युद्ध, रावण द्वारा सीता हरण।
4.किष्किंधा कांड- राम लक्ष्मण का सीता को खोजना, राम-लक्ष्मण का हनुमान से मिलना, राम व सुग्रीव की मैत्री, बालि का वध, वानरों के द्वारा सीता की खोज।
5. सुन्दर कांड- हनुमान का समुद्र लांघना, विभीषण से मुलाकात, अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट, रावण के पुत्रों से अशोक वाटिका में हनुमान से युद्ध, लंकादहन, हनुमान का वापस लौटना, हनुमान द्वारा राम को सीता का संदेश सुनाना, लंका पर चढ़ाई की तैयारी, वानरसेना का समुद्र तक पहुंचना, विभीषण का राम की शरण में आना, राम का समुद्र से रास्ता मांगना।
6. लंका कांड- नल-नील द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना, वानर सेना का समुद्र पार कर लंका पहुंचना, अंगद को शांति दूत बनाकर रावण की सभा में भेजना, राम व रावण की सेना में युद्ध,राम द्वारा रावण और कुंभकरण का वध, राम का सीता का मिलना।
7. उत्तर कांड- राम का सीता व लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटना, अयोध्या में राम का राजतिलक, अयोध्या में रामराज्य का वर्णन, राम का अपने भाइयों को ज्ञान देना आदि घटनाक्रम का वर्णन।

रामचरितमानस

रामचरितमानस की सूक्तियाँ

संत गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंग में पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं। तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है। इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।रामचरितमानस के हर पद में महाकवि तुलसीदास के चिंतन, विचारों, अनुभवों के अमृतकण सूक्तियों के रूप में बिखरे हैं। विभिन्न भावों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियां नीचे प्रस्तुत हैं--

जो जग काम नचावन जेही..

जगत में ऐसा कौन है, जिसे काम ने नचाया न हो [उत्तरकांड]

खल सन कलह न भल नहिं प्रीति
खल के साथ न कलह अच्छा न प्रेम अच्छा [उत्तरकांड]

केहिं कर हृदय क्रोध नहिं दाहा
क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया [उत्तरकांड]

चिंता सांपिनि को नहिं खाया
चिंता रूपी सांपिन ने किसे नहीं डंसा [उत्तरकांड]

तप ते अगम न कछु संसारा
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके [बालकांड]

तृष्णा केहि न कीन्ह बीराहा
तृष्णा ने किसको बावला नहीं किया [उत्तरकांड]

नवनि नीच के अति दुःखदाई, जिमि अंकुस धनु उरग विलाई
नीच का झुकना भी अत्यन्त दुखदायी होता है, जैसे -अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना [उत्तरकांड]

परहित सरस धरम नहिं भाई
परोपकार के समान दूसरा धर्म नहीं है [उत्तरकांड]

पर पीडा़ सम नहिं अधमाई
दूसरों को पीडित करने जैसा कोई पाप नहीं है [उत्तरकांड]

दुचित कतहुं परितोष न लहहीं
चित्त के दोतरफा हो जाने से कहीं परितोष नहीं मिलता [अयोध्या कांड]

तसि पूजा चाहिअ जस देवा
जैसा देवता हो, वैसी उसकी पूजा होनी चाहिए [अयोध्याकांड]

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं
संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो [बालकांड]

प्रीति विरोध समान सन करिअ नीति असि आहि
प्रीति और बैर बराबरी में करना चाहिए [लंकाकांड]

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला
सभी मानस रोगों की जड़ मोह / अज्ञान है [उत्तरकांड]

कीरति भनिति भूति भलि सोई सुरसरि सम सब कहं हित होई कीर्ति,
कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की भांति सबका हित करती है [बालकांड]

सचिव बैद गुरु तीनि जौं , प्रिय बोलहिं भय आस राज, धर्म,तन तीनि कर, होई बेगहिं नास
मंत्री, बैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशा से ठकुरसुहाती कहते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीथ्र ही नाश हो जाता है [सुन्दरकांड]

लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु
लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड]
श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास
का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था।
पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था।
तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास
रखा गया। गोस्वामी तुलसीदास

जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण
ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३
की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से
हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे।
पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग
की परिणति वैराग्य में हुई।एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे।
पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा -
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।। गोस्वामी तुलसीदास के लिखे दोहावली, कवित्तरामायण,
गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल,
जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य
संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई,
संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा,
रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं। १२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी,
शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया। संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

पुराण क्या है ?

सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्मा ने सर्वप्रथम स्वयं जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। इस धर्मग्रंथ में लगभग एक अरब श्लोक हैं। यह बृहत् धर्मग्रंथ पुराण, देवलोक में आज भी मौजूद है। मानवता के हितार्थ महान संत कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने एक अरब श्लोकों वाले इस बृहत् पुराण को केवल चार लाख श्लोकों में सम्पादित किया। इसके बाद उन्होंने एक बार फिर इस पुराण को अठारह खण्डों में विभक्त किया, जिन्हें अठारह पुराणों के रूप में जाना जाता है। ये पुराण इस प्रकार हैं :

1. ब्रह्म पुराण
2. पद्म पुराण
3. विष्णु पुराण
4. शिव पुराण
5. भागवत पुराण
6. भविष्य पुराण
7. नारद पुराण
8. मार्कण्डेय पुराण
9. अग्नि पुराण
10. ब्रह्मवैवर्त पुराण
11. लिंग पुराण
12. वराह पुराण
13. स्कंद पुराण
14. वामन पुराण
15. कूर्म पुराण
16. मत्स्य पुराण
17. गरुड़ पुराण
18. ब्रह्माण्ड पुराण

पुराण शब्द का शाब्दिक अर्थ है पुराना, लेकिन प्राचीनतम होने के बाद भी पुराण और उनकी शिक्षाएँ पुरानी नहीं हुई हैं, बल्कि आज के सन्दर्भ में उनका महत्त्व और बढ़ गया है। ये पुराण श्वांस के रूप में मनुष्य की जीवन-धड़कन बन गए हैं। ये शाश्वत हैं, सत्य हैं और धर्म हैं। मनुष्य जीवन इन्हीं पुराणों पर आधारित है।

पुराण प्राचीनतम धर्मग्रंथ होने के साथ-साथ ज्ञान, विवेक, बुद्धि और दिव्य प्रकाश का खज़ाना हैं। इनमें हमें प्राचीनतम् धर्म, चिंतन, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति और अन्य अनेक विषयों का विस्तृत विवेचन पढ़ने को मिलता है। इनमें ब्रह्माण्ड (सर्ग) की रचना, क्रमिक विनाश और पुनर्रचना (प्रतिसर्ग), अनेक युगों (मन्वन्तर), सूर्य वंश और चन्द्र वंश का इतिहास और वंशावली का विशद वर्णन मिलता है। ये पुराण के साथ बदलते जीवन की विभिन्न अवस्थाओं व पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये ऐसे प्रकाश स्तंभ हैं जो वैदिक सभ्यता और सनातन धर्म को प्रदीप्त करते हैं। ये हमारी जीवनशैली और विचारधारा पर भी विशेष प्रभाव डालते हैं। गागर में सागर भर देना अच्छे रचनाकार की पहचान होती है। किसी रचनाकार ने अठारह पुराणों के सार को एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया गया है:
परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीड़नम्। अष्टादश पुराणानि व्यासस्य वचन।।
अर्थात्, व्यास मुनि ने अठारह पुराणों में दो ही बातें मुख्यत: कही हैं, परोपकार करना संसार का सबसे बड़ा पुण्य है और किसी को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप है। जहाँ तक शिव पुराण का संबंध है, इसमें भगवान् शिव के भव्यतम व्यक्तित्व का गुणगान किया गया है। शिव- जो स्वयंभू हैं, शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता है, विश्व चेतना हैं और ब्रह्माण्डीय अस्तित्व के आधार हैं। सभी पुराणों में शिव पुराण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने का दर्जा प्राप्त है। इसमें भगवान् शिव के विविध रूपों, अवतारों, ज्योतिर्लिंगों, भक्तों और भक्ति का विशद् वर्णन किया गया है।

शनिवार, 11 अगस्त 2012

योगिराज श्रीकृष्ण का अवतरण


 पृथ्वी पर सभ्यता और संस्कृति के आविर्भाव तथा विकास की दृष्टि से भारतीय और यूनानी संस्कृति और सभ्यता प्राचीनतम है। भारत और ग्रीक दोनों स्थलों की सृष्टि की उत्पत्ति और विकास अलग-अलग रूप से चित्रित किए गए हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में सृष्टि का विकास और ब्रह्म के अवतारवाद की विचारधारा ईश्वरवादी दृष्टिकोण से की गई है। इसी दृष्टिकोण में हमारे विश्वास में धार्मिक और वैज्ञानिक-दोनों आधारों का समावेश देखा जा सकता है।
युगों-युगों से चली आ रही मान्यता ऐसी है कि सृष्टि के आदि में आदिरूप भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। इस आदिपुरुष में दस इंद्रियां, एक मन और पाँच भूत और सोलह कलाएँ थीं।

उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। इस प्रकार जो अजन्मा है, जो भगवान आदि रूप हैं—उनसे ही भगवान का वह विराट् रूप उत्पन्न हुआ। उस महारूप के अंग-प्रत्यंग में...
ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है। वही है भगवान् की विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप।
जो योगी हैं उन्हें भगवान के इसी रूप का दर्शन मिलता है, जिसे वे अपनी साधना द्वारा उपलब्ध करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण—उसमें हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएं हैं। वस्तुतः वे सृष्टि में निहित अनेक रूपों, शक्तियों एवं क्रियाओं आदि का प्रतीक हैं।

भगवान का वह आदिरूप पुरुष है, वह महापुरुष, वह विराट पुरुष है जिसे नारायण कहते हैं, जो अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इसी रूप के छोटे-से-छोटे अंश से पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनियों की सृष्टि होती है अर्थात यह उर्जा का वह महाकोष है जिसके ऊर्जांश असंख्य रूपों में गति भर सकते हैं।
हमारी चिंतन परंपरा के अनुसार भगवान कृष्ण का अवतार भगवान विष्णु का आठवां, अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवतार है।

चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद पर आधारित आरक्षण की गंदी राजनीति

प्राचीन भारत की चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा वास्तव में व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुणों के आधार पर कर्म अथवा व्यवसाय के चयन की व्यवस्था थी, जो सभी व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास हेतु सपर्पित संपूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था थी, तथा जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, तथा सही रूप में जिसका पालन कर आज भी सभी व्यक्ति एवं समाज का सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास संभव है । परन्तु मध्यकालीन भारत में चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा की गलत व्याख्या कर उच्च वर्ग के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने जातिवाद की गंदी राजनीति कर छुआ- छुत को बढावा दिया तथा चतुर्वर्ण व्यवस्था एवम जाति प्रथा का विकृत रूप समाज में पेश किया, जिसका अनुचित लाभ उठाकर वर्त्तमान भारत के परम स्वार्थी दुष्ट राजनीतिज्ञों ने स्वतंत्र भारत में जाति की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकना शुरु कर दिया और धर्म, नियम, कानून और जनतंत्र के मूल सिद्धान्त, संविधान की मूल आत्मा, स्वतंत्रता आंदोलन के महान उद्देश्य, मानवाधिकार के सिद्धान्त तथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध "जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण" का गंदा खेल खेलना शुरु किया, जो बदस्तूर अब भी जारी है, जिसका खामियाजा सभी व्यक्ति और समाज को ही नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र और मानव जाति को भुगतना पडा है और भुगतना पड रहा है तथा समाज के एक बहुत बडे वर्ग की शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता, योग्यता एवं प्रतिभा व्यर्थ चली गयी तथा व्यर्थ चली जा रही है। "जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण" का गंदा खेल भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) की समस्या को जन्म दे रहा है, भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा कर रहा है, वैमनस्य का विष घोल रहा है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित कर रहा है।

 जो व्यक्ति जातिवाद को गालिया देता है और जातिवाद के खिलाफ नारे लगता है, वही व्यक्ति अपने निहित स्वार्थ और फायदे के लिए जातिवाद को समाप्त नहीं होने देता | भारतीय सविधान में अम्बेडकर इफ्फेक्ट और जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण पद्धति का दुष्परिणाम है कि यदि किसी को मुंह से दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार कह दिया जाये तो वह जघन्य अपराध और नॉन बेलेबुल ऑफेन्स हो जायेगा, लेकिन जाति पर आधारित आरक्षण का लाभ उठाने के लिए वही व्यक्ति घुस देकर भी दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार होने का लिखित प्रमाणपत्र बनवाता है |

प्राचीन भारत में सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में बांटा गया था, यथा- ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग), क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग), वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) तथा शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) । सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में वर्गीकरण को ही चतुर्वर्ण व्यवस्था अथवा वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया । ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) के लोग मुख्य रूप से शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अपने बुद्धिबल से समाज को नियंत्रित कर सभी वर्ग के व्यक्ति, समाज, राज्य, राष्ट्र, समग्र मानव जाति तथा संपूर्ण विश्व के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास के लिये निरंतर कार्य करते हुए निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में समर्पित हुआ करते थे । इसी प्रकार क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) के लोग मुख्य रूप से राजा, शासक, सैनिक, सेनापति, रक्षक, जन – रक्षक, युद्ध – कला में दक्ष महान योद्धा का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज में शांति एवम कानून एवम व्यवस्था बनाये रखने हेतु समाज पर शासन करते थे तथा बाह्य आक्रमण से राज्य के लोगों को सुरक्षा प्रदान किया करते थे । ठीक इसी प्रकार वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) के लोग मुख्य रूप से किसान, पशु पालक, लोहार, सोनार, तेली, बनिया, बढई, बुनकर, दुकानदार, व्यापारी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अर्थोपार्जन कर संपूर्ण समाज तथा समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को धन, भोजन, वस्त्र एवम दैनिक उपयोग की समस्त वस्तु उपलब्ध कराया करते थे । इसी प्रकार शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) के लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर, औद्योगिक मजदूर, घरेलु नौकर – दाई, कुली, सेवक, अनुसेवक, श्रमिक, सहायक आदि का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को उनके कार्य मे सहायता प्रदान किया करते थे तथा जो समस्त प्रकार के कृषि, उद्योग, व्यवसाय एवम वाणिज्य व्यापार को आधार प्रदान किया करते थे । इसीलिये उपरोक्त चार वर्णों को उनके कर्मों तथा समाज में उनकी भूमिका एवम उपयोगिता के अनुसार ही ब्राह्मण वर्ण को समाज रूपी शरीर का मस्तक (मस्तिष्क), क्षत्रिय वर्ण को समाज रूपी शरीर की भुजा, वैश्य वर्ण को समाज रूपी शरीर का धड (मुख्य शरीर अर्थात दिल, सीना, पेट, पाचन तंत्र एवम मल – मूत्र विसर्जन तंत्र) तथा शूद्र वर्ण को समाज रूपी शरीर का आधार स्तंभ पैर अथवा पांव (समाज की संपूर्ण शारीरिक ढांचा का आधार स्तंभ) की संज्ञा दी गयी ।
इस सम्बंध में गीता में भगवान कृष्ण का निम्न कथन प्रासंगिक हैः-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥
अर्थात् हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न उनके गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं । गीता- १८.४१

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, आभ्यंतर शौच एवम बाह्य शौच का पालन कर आंतरिक एवम बाह्य शुद्धि निरंतर बनाये रखना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल बनये रखना; समस्त प्रकार के वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि का सम्यक् ज्ञान रखना तथा उनमें श्रद्धा रखना, वेद शास्त्रों का अध्ययन – अध्यापन (पठन – पाठन) करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना – ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४२

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव – ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४३

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
अर्थात् कृषि (खेती), गोपालन और क्रय – विक्रय का व्यापार स्वरूप सत्य व्यवहार – ये सब के सब ही वैश्य के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । इसी प्रकार सभी वर्ण के लोगों की सेवा कर उनके कार्यों में हर संभव सहयोग करना शूद्र के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४४

यहां यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि ब्राह्मण वर्ण के साथ साथ सभ्य समाज के सभी वर्ग के सभी लोगों को आभ्यंतर शौच (आन्तरिक शुद्धि) एवम बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) – दोनों प्रकार के शौच (शुद्धि) का पालन करना चाहिये । ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, पूर्वाग्रह, पक्षपात, भय, घृणा और अहंकार – इन दस प्रकार के मानव दुर्गुणों से मुक्त होना ही आभ्यंतर शौच (आंतरिक शुद्धि) कहलाता है । हाथ, पैर, मुंह, नाक, दांत, जीभ, चेहरा, माथा, जननांग, मल – मूत्र विसर्जन अंग, सम्पूर्ण शरीर, वस्त्र, बिछावन, निवास स्थान आदि की नित्य प्रति निरंतर सफाई ही बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) कहलाता है ।

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था अथवा चतुर्वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त पेशा अथवा व्यवसाय के नाम के अनुसार जाति व्यवस्था भी प्रचलित थी । वस्तुतः पेशा अथवा व्यवसाय के नाम को ही जाति की संज्ञा दी गयी थी, जिसके अनुसार लोहा का काम करने वाले को लोहार, चमडा का काम करने वाले को चमार (चर्मकार), लकडी का काम करने वाले को बढई, मिट्टी का बर्तन बनाने वाले को कुम्हार (कुम्भकार), गाय (गौ) पालन करने वाले को ग्वाला की संज्ञा दी गयी ।

यह बात एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि माता – पिता के सद्गुण एवम दुर्गुण आनुवंशिक (जेनेटिक) रूप से उनके पुत्र एवम पुत्रियों में हस्तांतरित हो जाते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के समस्त गुण और व्यक्तित्व का ३० % निर्धारित करते हैं, व्यक्ति के शेष ३० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनके परिवार का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं, तथा व्यक्ति के शेष ४० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनकी शिक्षा एवम शैक्षणिक संस्थान का माहौल तथा उनके इर्द गिर्द सामाजिक परिवेश का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि जो व्यक्ति जिस परिवार मे पैदा होता है, उस परिवार में माता – पिता के पेशा एवं व्यवसाय के कार्यों को बचपन से ही देखते समझते तथा उन कार्यों में सहयोग करते करते १८ – २० साल की उम्र होते – होते वह व्यक्ति बिना किसी विशेष शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के, अपने परिवार के व्यवसाय मे तथा व्यावसायिक दक्षता में उस स्तर की पूर्ण महारत हासिल कर लेता है, जिसे कोइ दूसरे व्यवसाय को धारण करने वाले दूसरे परिवार मे जन्मा व्यक्ति ५ – ६ साल की विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद भी हासिल नहीं कर सकता । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि प्रत्येक माता – पिता की चाहत होती है कि जिस व्यवसाय को उसने अपनाया है तथा जिस व्यवसाय को सफल बनाने और उसे अधिकतम संभव ऊंचाई तक ले जाने के लिये उसने जीवन भर कठिन परिश्रम किया है, उस व्यवसाय को उसके उत्तराधिकारी वंशज भी अपनायें तथा उसे और आगे बढायें । इसीलिये पीढी – दर – पीढी निरंतर लोग अपने परिवार मे माता – पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगे तथा व्यावसायिक कार्यों में परस्पर सहयोग एवम सहुलियत के लिये लोग अपने ही पेशा या व्यवसाय (जाति) के लडका – लडकी से विवाह करने लगे तथा समान पेशा या व्यवसाय के लोग एक साथ एक मोहल्ला या टोली बनाकर रह्ने लगे, जिससे भिन्न - भिन्न पेशा या व्यवसाय के लोगों ने अपनी विशेष प्रकार की व्यावसायिक कार्य संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जाति प्रथा का विकास हुआ और इसी जाति प्रथा के कारण भारत मे समस्त प्रकार के उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सम्पूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सभ्यता - संस्कृति का विकास हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व में उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सभ्यता – संस्कृति को विकसित किया तथा सम्पूर्ण विश्व की सभ्यता – संस्कृति को प्रभावित किया ।

प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति अत्यन्त ही उन्नत, सार्थक एवम पूर्णरूपेण व्यावहारिक थी । सुप्रसिद्ध ॠषियों (प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) द्वारा घने जंगलों में प्राकृतिक वातावरण में चलाये जाने वाले ॠषि आश्रम (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला)) में सुयोग्य व्यक्तियों को समस्त शस्त्र एवम शास्त्र (धर्म शास्त्र, व्यवहार विज्ञान, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, धनुर्विद्या, सैन्य शास्त्र आदि) की शिक्षा एवम व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर सभी छात्रों को व्यावहारिक जीवन की समस्त परिस्थितियों का सामना करते हुए सफल जीवन जीने की कला में पारंगत किया जाता था तथा ॠषि आश्रम में ब्राह्मण ॠषि द्वारा निःस्वार्थ भाव से सभी धनी एवं गरीब छात्रों को बिना किसी भेद भाव के एक समान निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवम प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था । ॠषि आश्रमों में छात्र – छात्राओं के समस्त अन्तर्निहित गुणों, शारीरिक एवम मानसिक शक्तियों तथा उनकी प्रतिभा का समग्र रूप में विकास कर उन्हें व्यावहारिक जीवन की परिस्थितियों का तथा दुष्ट प्रकृति के राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम बनाया जाता था । इसीलिये समाज में ब्राह्मण (बुद्धिजीवी शिक्षक) एवम ॠषि (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला के संचालक सुप्रसिद्ध प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) को बहुत ही आदर की दृष्टि (नजर) से देखा जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पूजा- पाठ एवम यज्ञ की समाप्ति के समय ब्राह्मण एवम ॠषि को आवाहन (सादर आमंत्रित) कर के समाज के सभी वर्ग के लोग यथा संभव सर्वाधिक चल एवम अचल सम्पत्ति तथा नकद धन राशी उन्हें समर्पित करते थे ।

इतिहास साक्षी है - दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज की हर व्यवस्था का दुरुपयोग किया है, तथा जिस किसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को समाज के लोगों ने सम्मान दिया, उसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को धारण कर ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज को तथा समाज के भोले भाले लोगों को ठगा है और यह प्रक्रिया आज भी बदस्तुर जारी है । पूर्व काल में चूंकि समाज में ब्राह्मण और ॠषि को लोग बहुत आदर कि दृष्टी से देखते थे, इसलिये दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये ब्राह्मण और ऋषि क रूप धारण किया करते थे । ठीक उसी प्रकार आज के जमाने में भी दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये दुष्ट प्रवृत्ति के अदूरदर्शी परम स्वार्थी तत्व वर्त्तमान व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर बुद्धिजीवी वर्ग (अर्थात् शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी आदि) का पेशा अपना कर हर बात की गलत व्याख्या कर लोगों को उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं तथा समाज में विष वमन कर समाज मे वैमनस्य फैला रहे हैं ।

अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिये सत्ता में दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों का समावेश हो गया, जो सस्ती लोकप्रियता बनाये रखने और निरंतर सत्ता मे अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाते रहे तथा जाति और मजहब की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकने में निरंतर भिडे रहे और आज भी भिडे हुए हैं । स्वतंत्र भारत में अलग – अलग मजहब के लोगों के लिये अलग अलग कानून बनाये गये – हिन्दू एवम मुसलमान के लिये अलग अलग कानून की व्यवस्था की गयी तथा हर क्षेत्र में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जिसे भारतीय संविधान में “अम्बेडकर इफेक्ट” के रूप मे जाना जाता है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, जो धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है, जो पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है, जो अयोग्यता एवं अक्षमता को प्रोत्साहित करता है, जो प्रतिभाशाली व्यक्तियों की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, शक्ति एवम दक्षता को कुंठित करता है तथा उनका समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सदुपयोग नहीं होने देता है तथा जो प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की समस्या का जन्मदाता है, जो समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सबसे बडी बाधा है ।

जो भी व्यक्ति विकास की दौड में पीछे रह गये हैं, जो शैक्षणिक, सामाजिक एवम आर्थिक रूप से पिछडे हुए हैं, उन सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत पिछडेपन के आधार पर तमाम प्रकार की हर संभव सुविधा प्रदान कर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल कर उनके सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये । परंतु किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव नहीं किया जाना चाहिये । किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव अथवा जाति पर आधारित आरक्षण की पद्धति भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा करता है तथा वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है।

कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद की गंदी राजनीति” नामक पुस्तक से उद्धृत)

विचार

स्वागत करो मृत्यु का
सजग होकर अपने जीवन को देखना एक कला है। इस प्रतिक्रिया में अपने आप समाधि लग जाती है। एक ऐसी समाधि जिसमें आदमी को स्वयं का बोध हो जाता है और संसार की फालतू बातें छूट जाती हैं। संसार का जो अनर्गल है वह हमें बहुत भारी बना देता है। जब हम दूर खड़े होकर तटस्थ भाव से अपने ही जीवन को देखने लगते हैं तो सब कुछ बहुत हल्का हो जाता है।

सुकरात के जीवन की एक कथा है। जब उनका अंतिम समय आया, शिष्य रोने लगे। तब सुकरात ने कहा, ‘‘रोना बंद करें। मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। लेकिन मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं कि मैं अपनी इस मृत्यु को होशपूर्वक देखूं। अब सब कुछ छूट रहा है। जितना छूटेगा उतना ही स्वयं बच जाएगा। जगत का बोध समाप्त होगा और स्वयं का बोध जागने लगेगा। सुकरात ने कहा कि मैं आज मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा, सिर्फ यह देख रहा हूँ कि मरना होता क्या है ? यह मौका मुझे आज मिला है, इसलिए आप लोग रोते हुए मेरी समाधि में व्यवधान पैदा न करें, और सचमुच तो बचते चले गए मौत होती चली गई। वे संदेश दे गए मृत्यु प्रतिदिन निकट आ रही है और जिंदगी प्रतिदिन घट रही है। इसलिए मृत्यु का भय न करें, उसके स्वागत की तैयारी की जाए।’’

सूखा नारियल अपनी खोल के भीतर पक जाता है। खोलने पर वह पूरा बाहर आता है। किंतु जो गीला नारियल होता है उसक फोड़ने पर वह अपनी खोल से चिपका रहता है। कई बार तो उसको निकालने के लिए उसके टुकड़े हो जाते हैं। ऐसा ही शरीर और आत्मा के साथ हैं। स्वयं शरीर से अलग हो जाने का अर्थ है पका हुआ होना, अपने आत्मभाव में पहुंच जाना और शरीर से चिपकते हुए मृत्यु वरण का अर्थ है गीलें खोल की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर पिलपिले होना। इसलिए शांति से जीवन में इस बोध को लाना बड़ा उपयोगी होता है।

सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है

वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नद पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू, और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं।
प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म मेंगाणपतय, शैव वैष्णव,शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे।गाणपतयगणेशकी वैष्णव विष्णु की, शैव शिव की और शाक्त शक्ति और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थ...
ों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरूओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ,उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है। कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।
सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है

भैरव का अर्थ

।। ॐ हंषंनंगंकंसंखं महाकाल भैरवाय नम:।।
भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जात  है। भैरव का जन्म : काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है। बटुक भैरव : 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उक्त आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।। काल भैरव : यह भगवान का साहसिक युवा रूप है। उक्त रूप की आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय की प्राप्ति होती है। व्यक्ति में साहस का संचार होता है। सभी तरह के भय से मुक्ति मिलती है। काल भैरव को शंकर का रुद्रावतार माना जाता है। काल भैरव की आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ भैरवाय नम:।। भैरव आराधना : एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं। आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएँ। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दाँत और आँत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है। भैरव तंत्र : योग में जिसे समाधि पद कहा गया है, भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख
किया है..............................

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

वर्णाश्रम एवं चातुर्वर्ण्य

वैदिक परम्परा में वर्णाश्रम धर्म एवं चार वर्णों को आधार माना जाता है । परन्तु वर्तमान में इसका जो रूप हमें दिखायी देता है, वह शास्त्रों की परिभाषा के विपरीत है । वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सदैव ही समाज में रही है और रहेगी । अगर हम कहें कि वैश्‍विक किरणें ( cosmic rays) प्रत्येक वस्तु या वाणी पर अपना प्रभाव डालती हैं, तो यह मात्र हमारी कल्पना नहीं अपितु अटल सत्य है । वर्णाश्रम व्यवस्था चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सम्पूर्ण मानव जाति की वास्तविक अवस्था है, जिसका अचेषण एवं धारणा वैदिक परम्परा के ऋषि-मुनियों ने की थी । आज हिन्दु समाज में जिस जाति व्यवस्था, ऊँच नीच का भेदभाव या छूआछूत की बात होती है वह वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में कहीं नहीं है । वर्तमान व्यवस्थायें स्वार्थी एवं पाखंडी लोगों एवं तथाकथित धर्म एवं सत्ता के गठजोड़ की ही देन हैं ।

फिर वर्णाश्रम एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था क्या है? इसका उत्तर जानने के लिये हमें शास्त्रों को खंगालना होगा । हमारे शास्त्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था से मानव को धर्म की उन्‍नति होगी । शास्त्र कहते हैं ‘पिंडे पिंडे मतिभिन्‍ना’ यानि हर व्यक्‍ति का धर्म अलग होता है । अगर ऐसा हुआ तो संसार में अनगिनत धर्म खड़े हो जायेंगे । परन्तु यहाँ धर्म का मतलब नहीं अपितु व्यक्‍तिगत धारणा की अवस्था है । पिता, माता, पुत्र, भाई, बहन सबका धर्म अलग-अलग हो सकता है । इसीलिये शास्त्रों ने धर्म की व्याख्या की है “धारणात्‌ धर्मा इत्याहू: धर्मो धारयते प्रजा:” । ब्रह्‍माण्ड में जो अनन्‍त शक्‍तियाँ सदा बहती रहती हैं, उनको सुयोग्य धारणा एवं उनसे जनकल्याण के उपाय करना ही धर्म है ।

वर्णाश्रम धर्म का व्यापक अर्थ स्वयं इसी में छुपा है । वर्ण यानि दिव्य रंग जो प्रत्येक व्यक्‍ति के शरीर के चारों ओर रहने वाले प्रकाशवलय में रहता है । यह प्रकाशवलय, व्यक्‍ति गुण, स्वभाव के अनुसार प्रभावित होकर उसका तेजोवलय ( AURA) बनकर दिखाई देता है । दिव्य योगी एवं सन्त इस तेजोवलय को देखने में सक्षम होते हैं, हाँ आज विज्ञान भी इसे स्वीकार करता है एवं विशेष यन्त्रों से देखने में सक्षम है । इस तेजोवलय को व्यक्‍ति के गुण स्वभाव एवं प्रकृति के आधार पर वैदिक धारणा में विभिन्‍न वर्णों में बाँटा गया, जिसे वर्णाश्रम कहा गया । उदाहरणार्थ - अत्यन्त शुद्ध आचार विचार वाले व्यक्‍ति के तेजोवलय का वर्ण शुक्‍ल रहता है । शास्त्रों में ऐसे व्यक्‍ति को ब्राह्मण कहा गया । इसमें जाति, मजहब का कोई आधार नहीं है । चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का उद्‍गम इसी प्रकार के वर्णाश्रम धर्म से हुआ । इस प्रकार चातुर्वर्ण्य एवं वर्णाश्रम व्यवस्था, गुण, कर्म, स्वभाव एवं संस्कारों पर निर्भर है, न कि जन्मजात व्यक्‍ति व्यवस्था पर । यह एक दिव्य प्राकृतिक अवस्था है । वैदिक परम्परा ने यह दिव्य अवस्था का अध्ययन कर समाज के कल्याण एवं सुचारू संचालन के लिये कुछ नियम बनाये जिन्हें वर्णाश्रम धर्म एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था कहा गया । श्रीगीता में चातुर्वर्ण्य के बारे में स्पष्ट कहा गया है ।


चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
वस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमक्ष्ययम्‌ ॥
जन्मतः कोई ब्राह्मण नहीं है । जन्मत: सारे शूद्र हैं । उत्तम संस्कारों के कारण कोई भी ब्राह्मण बन सकता है । शास्त्रानुसार -
जन्मता जायते शूद्रः संस्कारात्‌ द्विज उच्यते । ”
फिर ब्राह्मण कौन है? जो ब्रह्म जानता है वही ब्राह्यण है
“ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ।



चातुर्वर्ण्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चार वर्णों का निर्धारण मनुष्य के चतुर्विध पुरूषार्थ पर निर्धारित कर दिया गया ।

ब्राह्मण - वैदिक परम्परा का मुख्य ध्येय आदर्श ब्राह्मण बनना है । इसके अनुसार कोई भी सुयोग्य आचार, विचार का पालन कर ब्राह्मण बन सकता है । जिसका आचार, विचार आध्यात्मिक भाव का यानि ब्रह्मा को जानने का है, वही ब्राह्मण बन सकता है । ब्राह्मण बने व्यक्‍ति का तेजोवलय शुक्ल वर्ण का होता है । अर्थात शुक्ल दिव्य वलयवर्ण का व्यक्‍ति ब्राह्मण है । ऐसा व्यक्‍ति आध्यात्म साधना एवं चिन्तन में लिप्त रहता है तथा कामिनी, कंचन एवं कीर्ति से बचकर रहता है । उपनिषद के अनुसार शुक्ल वर्ण दिव्यवलय वाला व्यक्‍ति किसी भी जाति, धर्म अथवा त्वचा के रंग का हो, ब्राह्मण ही कहलायेगा । जैसा कि ऊपर भी लिखा गया है कि जन्म से सब शूद्र हैं, अतः कोई भी सुयोग्य साधना कर ब्राह्मण बन सकता है ब्राह्मण समाज के आदर्श का प्रतीक है न कि जाति व्यवस्था का ।

क्षत्रिय - जो अपने क्षेत्र की रक्षा करता है वह क्षत्रिय है । प्रश्‍न उठता है कि कौन सा क्षेत्र ? श्री गीता में कहा गया है-


इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्र मित्ययिधीयते ।
एतद्यो वेत्‍ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इतितद्विदः ॥


आशय यह है कि अपना शरीर ही वह क्षेत्र है तथा जो शरीर की रक्षा कर वह क्षत्रिय है । कहा गया है कि सर्वसाधना का पल उपकरण है जिसकी आत्मसाधना के कारण रक्षा करना आवश्यक है । शरीर की रक्षा शरीर के लिये नही वरण आत्मसाधन के लिये जरूरी है । आत्मसाधना का फल आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान होते हैं । परन्तु सभी एकदम से ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकते । इस उच्च अवस्था तक पहुँचने के लिये आत्मसाधना करनी पड़ती है । आत्मसाधना के लिये शरीर की रक्षा करना आवश्यक है । अतः जो साधक नियमबद्ध रहकर शरीर की रक्षा करता है वह क्षत्रिय कहलाता है । इस प्रकार अपना स्वास्थ्य एवं कृतिक्षेत्र की रक्षा करने वाले जन जहाँ भी होंगे वे उस समाज के क्षत्रिय माने जायेंगे । क्षत्रिय के सम्बन्ध में पुराणों में परशून्य कथा का उल्लेख है कि उन्होंनें पृथ्वी को इक्‍कीस बार निःक्षत्रिय किया था यहाँ पृथ्वी से तात्पर्य वह स्थान जिसकी क्षत्रिय रक्षा करता है अर्थात सम्पूर्ण शरीर से है । फिर वह कौन से क्षत्रिय हैं जिन्हें परशुराम ने मार डाला । जब हम अपने कृतिरक्षण की अवस्था से आगे बढ़ते हैं तब हम क्षत्रिय से ब्राह्मणत्व की ओर बढ़ते हैं । कृतिशून्य साधक ही ब्राह्मण है । हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि हमारा अस्तित्व इक्‍कीस सूक्ष्म-सूक्ष्मतर अवस्थाओं में रहता है । हर एक अवस्था को लेकर साधक की कृतियाँ उसी आधार से रहती हैं । हमारी पंचकर्मेन्द्रियां, पंचज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्यात्राएं एवं पचं महायत्रों को लेकर कुल बीस तत्वास्थाएं हैं । इन बीस तत्वास्थाओं को संचालित करने वाला इक्‍कीसवाँ हमारा मन है । इन इक्‍कीस अवस्था में स्थित आग्रही मनरूप या कृतिरूप क्षत्रियों का संहार करना ही ब्राह्मण बनने की इच्छा करने वाले परशुराम के लिये आवश्यक था । इस प्रकार परशुराम ने ब्राह्मण बनने के लिये अपने शरीररूपी पृथ्वी से सभी इक्‍कीस कृतियों पर विजय पायी ।

वैश्य - ‘विश’ यानि प्रजा तथा वैश्य यानि प्रजा का पोषण करने वाला । प्रजा यानि कृतिरूप अवस्था । आध्यात्म साधना जिन कृतियों का पोषण करना स्वीकार करते हैं उन्हें शास्त्र वैश्य कहते हैं । कुछ साधक सारे जीवन तक एक ही कृति को धारण कर कर्मठता से मग्न रहते हैं, और अपनी कृति का पोषण करते हैं, शास्त्रकार उन्हें वैश्य कहते हैं । अपने कर्म विशेष में मशगूल रहना, कर्मठता के साथ आगे बढ़ना, अपनी कृति के पोषण में लगे रहना वाला व्यक्‍ति वैश्य है । वैश्य कृति के व्यक्‍ति का स्वभाव संचय के साथ-साथ मुक्‍त मन से दया, धर्म देश के प्रति निष्ठावान्‌ एवं दानी होता है । धर्म की परिभाषा है “यतोम्यूदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः” इस परिभाषा के धारण करने वाला व्यक्‍ति/साधक ही वैश्य है ।

शूद्र - जिस साधक को थोड़ी भी साधना करने के बाद उसका आविर्भाव या अहंकार अधिक हो जाता है, यह कुछ करने के पश्‍चात्‌ चित्त का उद्रेक अधिक हो जाता है, ऐसे व्यक्‍तियों को शास्त्रों में शू-उद्रः यानि शूद्रः कहा जाता है । शूद्र जाति नहीं वरण वृत्तिविस्फोट है । ऐसे शूद्र वृत्ति वाले मनुष्य प्रत्येक समाज में बहुलता में पाये जाते हैं । इसलिये ऐसे व्यक्‍तियों को वृत्तिउद्रेक शान्त करने के लिये, विनम्र बनने के लिये सन्त, महात्मा, भगवान, ब्राह्मण या अन्यों की सेवा करने के लिये कहा जाता है ताकि उनका भावनाउद्रेक का अहंकार कम हो सके । जिन साधकों में साधना के कारण अहंकार आता है वह शूद्रकृत्ति के साधक साधना ही न करें, यह अच्छा है । इसलिये शुद्रों के लिए तप या साधना करना मना किया है । शूद्र केवल संतजनों के सेवा फिर वही उसका धर्म है ।

उपरोक्‍त तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्ण यानि हर एक व्यक्‍ति के चारों ओर एक तेजोवलय होता है । प्रत्येक वृत्ति का अलग वयविलय होता है जिस व्यक्‍ति का वर्ण वलय शुक्ल होगा वह ब्राह्मण, जिसका ताम्रवर्यी वह क्षत्रिय, पीतवर्ण वाला वैश्य तथा शूद्रों का वर्ण वलय कृष्ण, श्याम या काला होता है । इस वर्णवलय में किसी भी जाति, समाज या धर्म का वर्गान्तर नहीं होता है ।


सन्दर्भ ग्रन्थ - जन्म मृत्यु विज्ञान (योगीमनोहर)
- कार्तवीर्यार्जुन पुराण