सोमवार, 30 जुलाई 2012

महादेव का दुग्धाभिषेक...................महात्मय.....................

शिव महापुराण के अनुसार सृष्टि निर्माण से प...हले केवल शिवजी का ही अस्तित्व बताया गया है। भगवान शंकर ही वह शक्ति है जिसका न आदि है न अंत... इसका मतलब यही है कि शिवजी सृष्टि के निर्माण से पहले से हैं और प्रलय के बाद भी केवल महादेव का ही अस्तित्व रहेगा... अत: इनकी भक्ति मात्र से ही मनुष्य को सभी सुख, धन, मान-सम्मान आदि प्राप्त हो जाता है...

शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर को "भोलेनाथ" कहा गया है... अर्थात् शिवजी अपने भक्तों की आस्था और श्रद्धा से बहुत ही जल्द प्रसन्न हो जाते हैं। 'शिवजी के प्रसन्न' होने के अर्थ यही है कि भक्त को सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति हो जाती है। भोलेनाथ को प्रसन्न करने के कई उपाय बताए गए हैं। इनकी पूजा, अर्चना, आरती करना श्रेष्ठ मार्ग हैं। प्रतिदिन विधिविधान से शिवलिंग का पूजन करने वाले श्रद्धालुओं को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है...

शिवजी को जल्द ही प्रसन्न के लिए शिवलिंग पर प्रतिदिन कच्चा गाय का दूध अर्पित करें। गाय को माता माना गया है अत: गौमाता का दूध पवित्र और पूजनीय है। इसे शिवलिंग पर चढ़ाने से महादेव श्रद्धालु की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

दूध की प्रकृति शीतलता प्रदान करने वाली होती है और शिवजी को ऐसी वस्तुएं अतिप्रिय हैं जो उन्हें शीतलता प्रदान करती हैं। इसके अलावा ज्योतिष में दूध चंद्र ग्रह से संबंधित माना गया है। चंद्र से संबंधित सभी दोषों को दूर करने के लिए प्रति सोमवार को शिवजी को दूध अर्पित करना चाहिए। मनोवांछित फल प्राप्त करने के लिए यह भी जरूरी है कि आपका आचरण पूरी तरह धार्मिक हो। ऐसा होने पर आपकी सभी मनोकामनाएं बहुत ही जल्द पूर्ण हो जाएंगी।

ॐ नमः शिवाय...
उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। शिवगणों में म...ुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय 'चिंतामणि' प्रदान की। चंद्रसेन ने इसे गले में धारण किया तो उसका प्रभामंडल तो जगमगा ही उठा, साथ ही दूरस्थ देशों में उसकी यश-कीर्ति बढ़ने लगी। उस 'मणि' को प्राप्त करने के लिए दूसरे राजाओं ने प्रयास आरंभ कर दिए। कुछ ने प्रत्यक्षतः माँग की, कुछ ने विनती की।

चूँकि वह राजा की अत्यंत प्रिय वस्तु थी, अतः राजा ने वह मणि किसी को नहीं दी। अंततः उन पर मणि आकांक्षी राजाओं ने आक्रमण कर दिया। शिवभक्त चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया। जब चंद्रसेन समाधिस्थ था तब वहाँ कोई गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन हेतु आई।

बालक की उम्र थी पाँच वर्ष और गोपी विधवा थी। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव की पूजा हेतु प्रेरित हुआ। वह कहीं से एक पाषाण ले आया और अपने घर के एकांत स्थल में बैठकर भक्तिभाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा। कुछ देर पश्चात उसकी माता ने भोजन के लिए उसे बुलाया किन्तु वह नहीं आया। फिर बुलाया, वह फिर नहीं आया। माता स्वयं बुलाने आई तो उसने देखा बालक ध्यानमग्न बैठा है और उसकी आवाज सुन नहीं रहा है।

तब क्रुद्ध हो माता ने उस बालक को पीटना शुरू कर दिया और समस्त पूजन-सामग्री उठाकर फेंक दी। ध्यान से मुक्त होकर बालक चेतना में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकर बहुत दुःख हुआ। अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ। भगवान शिव की कृपा से वहाँ एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया। मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा यथावत थी। उसकी माता की तंद्रा भंग हुई तो वह भी आश्चर्यचकित हो गई।

राजा चंद्रसेन को जब शिवजी की अनन्य कृपा से घटित इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी उस शिवभक्त बालक से मिलने पहुँचा। अन्य राजा जो मणि हेतु युद्ध पर उतारू थे, वे भी पहुँचे। सभी ने राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा माँगी और सब मिलकर भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन करने लगे। तभी वहाँ रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने गोप-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया।

ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्‌॥
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम्‌ वाप्तवान्‌।
एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः
इह भुक्तवा खिलान्‌ भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥
अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः।
प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्‌॥

अर्थात 'शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है। इस गोप बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है। यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा।

इसी के वंश का आठवाँ पुरुष महायशस्वी 'नंद' होगा जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण 'कृष्ण' नाम से प्रतिष्ठित होंगे। कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। महाकाल साक्षात राजाधिराज देवता माने गए हैं।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

भारतीय ग्रंथ

पूजा पद्धति

ऋषिमुनियों द्वारा रचित यह पद्धति पूर्णत: वैज्ञानिक है एवं मनुष्यों को मानसिक और व्यक्तिगत ऊर्जा प्रदान करने वाली है।
हमारी पूजा पद्यति
हिंदू धर्म में पूजा उपासना का एक महत्वपूर्ण अंग है। मूर्तियों का पूजन कर्मकांड की पद्धतियों से किया जाता ...है। कर्मकांड हमारे जीवन में अनुशासन लाते हैं। हर कार्य को पूरी नीति से करने की प्रेरणा देते हैं। ऋषिमुनियों द्वारा रचित यह पद्धति पूर्णत: वैज्ञानिक है एवं मनुष्यों को मानसिक और व्यक्तिगत ऊर्जा प्रदान करने वाली है। पूजन पद्धतियां तीन प्रकार की है:1. पंचोपचार 2. दशोपचार 3. षोडशोपचार

1. पंचोपचार - पंचोपचार में पांच वस्तुओं से पूजन।2. दशोपचार - दशोपचार में दस वस्तुओं से पूजन।3. षोडषोपचार - षोडषोपचार में सोलह वस्तुओं से पूजन होता है। यह सबसे विस्तृत है। उपरोक्त दोनों पंचोपचार एवं दशोपचार षोडषोपचार में सम्मिलित है।यह सोलह वस्तुएं: दूध, दही, घी, शहद, शकर, वस्त्र, यज्ञोपवित, हल्दी, चंदन, कुमकुम, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवद्य, तांबुल।

1. कुश आसन हमारी धार्मिक मान्यताएं विज्ञान से प्रेरित हैं। कुश के आसन पर बैठना, सामने अपने ईष्ट देव की पीतल की या अष्टधातु की मूर्ति रखें। कुश का आसन क्यों ?कुश तालाब और नदियों पर उगने वाली एक घास है। वेद और पुराणों में कुश को पवित्र माना है। वैज्ञानिक कारण यह है कि कुश विद्युत का कुचालक होता है। पूजा, जाप से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है। वह कुश का आसन होने से जमीन में नहीं जाती। शरीर में ही बनी रहती है। यही सिद्धिकारक होती है। देवी भागवत में कहा है। कुश धारण करने वालों के बाल नहीं झड़ते और हृदयाघात नहीं होता।

2. आचमन यानी मन, कर्म और वचन से शुद्धि आचमन का अर्थ है अंजलि मे जल लेकर पीना, यह शुद्धि के लिए किया जाता है। आचमन तीन बार किया जाता है। हाथ में जल लेकर अंगुठे के मूल भाग से जल पिया जाता है। तीन बार आचमन करने से कंठ का सूखापन दूर होता है। श्वसन क्रिया अच्छी होती है। मन और बोलने से जो पाप होते हैं, उनका निवारण होता है। इसके पीछे विज्ञान यह है कि मुख शुद्धि होती तथा जल अंदर जाने से आलस्य समाप्त होता है। इससे मन की शुद्धि होती है। तथा पूजन करने से शक्ति प्राप्त होती है।

3. संकल्प लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी हैसंकल्प का अर्थ है दृढ़ निश्चय, विचार, प्रतिज्ञा। किसी भी कार्य को करने के लिए संकल्प अति महत्वपूर्ण होता है। यहां हम पूजा-पद्धति में भी संकल्प का महत्व बता रहे हैं। जैसे किसी से मिलने के लिए, उसको मिलने का कारण, दिनांक, प्रयोजन सब बताने होते हैं। वैसे ही पूजन के पहले अपने देवता को आज की दिनांक समय अपना परिचय और पूजन का कारण बताना पड़ता है ताकि वह हमारे प्रयोजन को समझे और उसे पूर्ण करें।संकल्प करके या ठानकर कोई काम किया जाता है तो उसको पूर्ण करने की शक्ति प्राप्त होती है तथा कार्यपूर्णता को प्राप्त होता है। संकल्प करने से मनोबल में वृद्धि होती है तथा कार्य करने में एकाग्रता बलवती होती है।

4. न्यास : श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण करने की क्रियान्यास द्वारा शरीर को पवित्र बनाना, आशय यह है कि देवता के तुल्य बनना। सभी अंगों को छूकर वहां पर देवता को मंत्रों के द्वारा स्थापित किया जाता है तथा शरीर को देवतुल्य बनाया जाता है।न्यास तीन प्रकार के होते हैं-1. अंग न्यास 2. कर न्यास 3. मातृका न्यास

१. अंग न्यास - इसके अंतर्गत सिर, नाक, हाथ, हृदय, उदर, जांघ, पैर आदि में सूर्य चंद्र का आह्वान किया जाता है।२. कर न्यास - हाथों से मनुष्य कर्म करता, कर न्यास में हाथों की अंगुलियों, अंगूठे और हथेली को पवित्र करते हैं। हमारे कर्म शुभ हो सबका भला करने वाले हो मुक्तिकारक हो यही मर्म है।३. मातृका न्यास - वाणी में सरस्वती वास करती है। चार प्रकार की वाणियां, परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी की वह स्वामिनी होती है। इस न्यास से साधक सरस्वती को शब्दों के रूप में शक्ति का अनुभव करता है।पूजन के पूर्व न्यास करने से शरीर तनावमुक्त बनता है। शरीर के हर अंग पर स्पर्श से, चिंता और थकावट से मुक्ति मिलती है।

5. दीपक, जीवन में ज्ञान के उजाले की तैयारीदीपक ज्ञान और रोशनी का प्रतीक है। पूजा में दीपक का विशेष महत्व है। आमतौर पर विषम संख्या वाले दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा चली आ रही है। दीप प्रज्जवलन का भाव है। हम अज्ञान का अंधकार मिटाकर अपने जीवन में ज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करें।प्राय: दीपक एक, तीन, पांच और सात की विषम संख्या में ही जलाए जाते हैं ऐसा मानना है। विषम संख्या में दीपों से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है।दीपक जलाने से वातावरण शुद्ध होता है। दीपक में गाय के दूध से बना घी प्रयोग हो तो अच्छा अथवा अन्य घी या तेल का प्रयोग भी किया जा सकता है। गाय के घी में रोगाणुओं को भगाने की क्षमता होती है। यह घी जब दीपक में अग्नि के संपर्क से वातावरण को पवित्र बना देता है। प्रदूषण दूर होता है। दीपक जलाने से पूरे घर को फायदा मिलता है। चाहे वह पूजा में सम्मिलित हो अथवा नहीं। दीप प्रज्जवलन घर को प्रदूषण मुक्त बनाने का एक क्रम है। दीपक में अग्नि का वास होता है। जो पृथ्वी पर सूरज का रूप है।

6. आह्वान - देवताओं को आमंत्रणआह्वान में अपने इष्टदेव को निमंत्रित किया जाता है कि वह हमारे सामने विराजमान हो।आह्वान का अर्थ है पास लाना। ईष्ट देवता को अपने सम्मुख या पास लाने के लिए आह्वान किया जाता है। उनसे निवेदन किया जाता है कि वे हमारे सामने हमारे पास आए, इसमें भाव यह होता है। कि वह हमारे ईष्ट देवता की मूर्ति में वास करें, तथा हमें आत्मिक बल एवं आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करें, ताकि हम उनका आदरपूर्वक सत्कार करें। जिस प्रकार मनोवांछित मेहमान या मित्र को अपने यहां आया देखकर आनंद प्रसन्नता होती है। वही आनंद उमंग अपने देवता के आह्वान से अर्थात् अपने पास बुलाने से होती है।आह्वान करने का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि भक्त या साधक अपने ईष्ट देवता के प्रति समर्पण भाव से विनम्रता व्यक्त करता है। आह्वान के पश्चात् भक्त के मन में यह भावना दृढ़ हो जाती है कि पूजा स्थल पर आमंत्रित दैवीय शक्ति का आगमन हो चुका है। इस प्रकार भक्त का मनोयोग पूजा कार्य में अधिक एकाग्रता पूर्वक संलग्न हो जाता है।
पाद्यं, अध्र्य, स्नान यह तीनों सम्मान सूचक है। ऐसा भाव है कि भगवान के प्रकट होने पर उनके हाथ पावं धुलाकर आचमन कराकर स्नान कराते हैं तथा उन्हें आसन देकर आराम से बैठाते हैं।भाव यह है कि हमारे इष्टदेव आज हमारे सामने पधारे हैं। हम उनका पूरे भक्तिभाव से आदर सम्मान करें।
चन्दनस्नान के बाद देवी देवता की प्रतिमा को चंदन समर्पित किया जाता है। पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतल है। भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल होवे यानी ठंडे दिमाग से काम करना। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है।चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी ङ्क्षबदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।

पंचामृतपंचामृत का अर्थ है 'पांच अमृत' इनमें दूध, दही, घी, शक्कर, शहद को मिलाकर पंचामृत बनाया जाता है। इसी से भगवान का अभिषेक किया जाता है। दरअसल पंचामृत आत्मोन्नति के पांच प्रतीक है। यह पांचों सामग्री किसी न किसी रूप में आत्मोन्नति का संदेश देती है।-दूध- दूध पंचामृत का प्रथम भाग है। यह शुभ्रता का प्रतीक है। अर्थात् हमारा जीवन दूध की तरह निष्कलंक होना चाहिए।-दही- दही भी दूध की तरह सफेद होता है। लेकिन इसकी खूबी है यह दूसरों को अपने जैसा बनाता है। दही चढ़ाने का अर्थ यही है कि पहले हम निष्कलंक हो सद्गुण अपनाए और दूसरों को भी अपने जैसा बनाएं।-घी- घी स्निग्धता और स्नेह का प्रतिक है। स्नेह और प्रेम हमारे जीवन में स्नेह की तरह काम करता है। सभी से हमारे स्नेहयुक्त संबंध हो यही भावना है।-शहद- शहद मीठा होने के साथ ही शक्तिशाली भी होता है। निर्बल व्यक्ति जीवन में कुछ नहीं कर सकता, तन और मन से शक्तिशाली व्यक्ति ही सफलता पा सकता है। शहद इसका ही प्रतीक है।- शक्कर- शक्कर का गुण है मिठास, शक्कर चढ़ाने का अर्थ है जीवन में मिठास घोले। मिठास, प्रिय बोलने से आती है। प्रिय बोलना सभी को अच्छा लगता है। और इससे मधुर व्यवहार बनता है।हमारे जीवन में शुभ रहे, स्वयं अच्छे बनें, दूसरों को अच्छा बनाएं, शक्तिशाली बनें, दूसरों के जीवन में मधुरता लांए, मधुर व्यवहार बनाएं। इससे सफलता हमारे कदम चूमेगी। साथ ही हमारे अंदर महानता के गुण पैदा होंगे।वस्त्रपंचामृत स्नान के बाद भगवान का शुद्धिकरण स्नान किया जाता है तथा उनको वस्त्र अर्पण किए जाते हैं। वैसे तो भगवान भाव के भूखे हंै, लेकिन विधि विधान में वस्त्र चढ़ाने में हमारा भाव यह है कि यह वस्त्र भगवान को सर्दी-गर्मी से रक्षा करें। लज्जा से बचाएं और शरीर को सुंदरता प्रदान करें।वस्त्र हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण है यह हम सभी जानते हैं, लेकिन पूजन में भाव यह होता है कि जो वस्त्र हमें पहनने के लिए मिलें वह भगवान की शक्ति से ही मिले । इसलिए भगवान को वस्त्र अर्पित करने से हमने कृतज्ञता की भावना बनी रहती है। यह भाव हमारे जीवन में अहंकार को दूर कर विनम्रता लाता है। विनम्र व्यक्ति हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है।आपके घर या कार्यालय में मंदिर हो तो आसन का वस्त्र साफ रखे, प्रतिमा का वस्त्र साफ स्वच्छ रखें। अपने पहनने के वस्त्र हमेशा साफ स्वच्छ रखें इससे आपका मन हमेशा प्रसन्न रहेगा और प्रसन्नता जीवन का मूल है।

यज्ञोपवीत - यज्ञोपवीत भगवान को समर्पित किया जाता है। यह देवी को अर्पण नहीं किया जाता है। यज्ञोपवीत दो शब्दों से मिलकर बना है। यज्ञ और उपवीत, यज्ञ अर्थात् शुभ कर्म और उपवीत का अर्थ सूत्र यज्ञोपवीत अर्थात् शुभ कर्मों के लिए धारण किया जाने वाला सूत्र इसे जनेऊ भी कहते हैं। यह सूत के धागे से बनता है।यज्ञोपवीत धारण करने से व्यक्ति की उम्र, ताकत, बुद्धि और विवेक बढ़ता है।यज्ञोपवीत पवित्रता का सूचक है। यज्ञोपवीत कान पर लपेटकर मलमूत्र त्यागने से कब्ज का नाश होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से यह एक्युप्रेशर का काम करती है। कान के पास की नसे दबने से ब्लडप्रेशर नियंत्रित रहता है। यह हृदय रोगों से भी रक्षा करता है। वीर्य की रक्षा करता है। मूत्र त्याग के समय जनेऊ को कान पर लपेटने से, डायबीटिज, प्रमेह बहुमूत्र रोग नहीं होते। इसलिए यह भगवान के पूजन उपचार में प्रयोग होती है।

आभूषणषोडषोपचार में देवी-देवता पर आभूषण चढ़ाए जाते हैं। पूजा में स्वर्णआभूषण चढ़ाने का विशेष महत्व है। यह धन, संपदा तथा सौंदर्य के प्रतीक हंै।स्वर्ण आत्मा का प्रतीक है जिस तरह आत्मा अजर अमर शुद्ध है। उसी प्रकार स्वर्ण हर काल में शुद्ध है। भाव यह है कि हम आभूषण के रूप में अपनी आत्मा को देवता के चरणों में समर्पित कर रहे हैं। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। स्वर्ण धातु, स्वर्णभस्म, शक्तिवर्धक टॉनिक एवं औषधियों मेें प्रयोग होती है। श्वंास, कफ, नपुसंकता, शीघ्र वीर्यपात, टीबी, आदि रोगों को दूर करने में यह प्रयोग होती है।ऐसी मान्यता है कि जिस घर में स्वर्ण होता है। वहां लक्ष्मी का वास होता है। धन, धान्य का अभाव नहीं रहता। स्वर्णाभूषण पहनने वाली महिला के पास दरिद्रता नहीं आती।जिस तरह स्वर्ण मूल्यवान है। हमारा शरीर भी मूल्यवान है। स्वर्ण की तरह मूल्यवान हमारा यह शरीर भगवान को समर्पित हो यही भावना रहती है। स्वर्ण को छूते ही शरीर में सुरक्षा तेज, स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।


नानाद्रव्य (कुमकुम, गुलाल, अबीर, हल्दी, सिंदूर)आभूषण के पश्चात् देवी-देवता पर कंकु, गुलाल, अबीर, हल्दी, सिंदूर चढ़ाए जाते हैं।कंकुकंकु पूजा की अनिवार्य सामग्री है। यह लाल रंग का होता है। लाल रंग प्रेम, उत्साह, उमंग, साहस और शौर्य का प्रतीक है।कुमकुम सम्मान, विजय और आकर्षण का प्रतीक है। पुरुष अपने ललाट पर लंब एवं महिलाएं बिंदिया लगाती है। कुमकुम विजय का प्रतीक है। अत: हर कार्य को शुरू करने के पूर्व तिलक या बिंदिया लगायी जाती है।हल्दी, चूना, नींबू से मिलकर कुमकुम का निर्माण होता है। यह तीनों त्वचा का सौंदर्य बढ़ाने के काम आते हैं। कुमकुम से रक्त शोधन और मस्तिष्क के तंतु व्यवस्थित होते हैं।

गुलाल - पूजन में केवल लाल गुलाल का ही उपयोग होता है। चौक बनाने और अभिषेक में गुलाल का उपयोग होता है। भगवान को लाल गुलाल लगाकर हम अपने भाव और संवेदना को व्यक्त करते हैं। लाल गुलाल का इसलिए महत्व बढ़ जाता है कि यह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता हे। इसमें तरंग शक्ति अधिक एवं यह रंग तेज वर्ण, ऊर्जा, साहस और बल का प्रतीक है।

अबीर - एक तरह से यह भगवान की श्रृंगार सामग्री है। अबीर में सुगंध होती है। जो चारों ओर के वातावरण को पवित्र बना देती है।अबीर मुख्यत: दो रंगों में मिलता है। हल्का पीला और सफेद रंग।अबीर देवता को अर्पण करना वस्तुत: विज्ञान और मनोविज्ञान का समन्वय है। यह सुगंध देता है। साधारण मनोविज्ञान है कि प्रात: अच्छी सुगंध से मन और वातावरण स्वच्छ एवं प्रसन्न होता है। आत्मबल का संचार होता है। सकारात्मक सोच आती है। विज्ञान यह है कि इसकी सुगंध से रोग फैलाने वाले कीटाणु नष्ट होते हैं।

हल्दी - इसके औषधि गुण के कारण इसका पूजा में प्रयोग किया जाता है।हल्दी का पीला रंग हमारे मस्तिष्क में नई शक्ति का संचार करता है। इसमें स्थित एंटिबायोटिक गुण हमारे छूने से हमारी त्वचा और सभी अंगों को लाभ पहुंचाते है।हल्दी का रंग पीला होता है। जो मंगल का सूचक है। घर से निकलते समय या सुबह उठकर प्रथम पीला रंग दिखने से शुभ मंगल होता है।

सिंदूर - सिंदूर का उपयोग भी भगवान के पूजन में होता है। सिंदूर पूजा में उपयोग के साथ ही श्री हनुमानजी, माताजी, भैरवजी पर इनका चौला भी चढ़ाया जाता है। सुख और सौभाग्य का दाता भी सिंदूर को माना जाता है।सिंदूर पूजन के साथ भारतीय हिंदू महिलाएं शादी के बाद मांग में भरती हैं। जो सौभाग्य का दाता है। सिंदूर का रंग आरोग्य, बुद्धि, त्याग और देवी महत्वकांक्षा का प्रतीक है। साधु-संत के वस्त्र का रंग भी ऐसा ही होता है।सिंदूर में पारा होता है। जो हमारे शरीर के लिए लाभकारी है। सिंदूर से मांग भरने से महिला के शरीर में स्थित वैद्युतिका उत्तेजना नियंत्रित होती है।

अक्षत - अक्षत का अर्थ है जो टूटा न हो। लोकाचार मे इसे चावल कहते हैं। पूजन की यह सबसे महत्वपूर्ण सामग्री है। पूजन में अक्षत तो अर्पण किया ही जाता है आमतौर पर तिलक करने में भी इसका उपयोग किया जाता है।अक्षत पूर्णता का प्रतीक है। इसका रंग सफेद होता है। जो शुभता का प्रतीक है। भगवान को अक्षत चढ़ाने का भाव यह है कि जिस तरह हमने पूर्ण चावल आपको चढ़ाया है हमें भी आप हमारे सत्कर्मों का पूर्ण फल प्रदान करें।अक्षत हमारे दैनिक उपयोग की वस्तु है, तथा यह हमें ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुआ है, इसलिए भी उनको अर्पण किया जाता है।अक्षत (चावल) एक प्रोटीनदायक स्वादिष्ट एवं पौष्टिक आहार है जो इस्तेमाल करने वालों को बड़ा ही लाभकारी सिद्ध होता है। इसमें प्रोटीन के अलावा स्टार्च भी होता है। भारत के कई प्रदेशों में भोजन में मुख्यत: चावल ही प्रयोग किया जाता है।

दूर्वा - दूर्वा यानि दूब यह एक तरह की घास है जो पूजन में प्रयोग होती है। एक मात्र गणेश ही ऐसे देव है जिनको यह चढ़ाई जाती है। दूर्वा से गणेश जी प्रसन्न होते हैं।दूर्वा गणेशजी को अतिशय प्रिय है। इक्कीस दूर्वा को इक्क_ी कर एक गांठ बनाई जाती है तथा कुल 21 गांठ गणेशजी को चढ़ाई जाती है।कथा- गणेशजी को दूर्वा प्रिय क्यों है? इस बारे में एक कथा प्रचलित है। ऋषि-मुनि और देवता लोगों को एक साथ राक्षस परेशान किया करता था। जिसका नाम था अनलासुर (अनल का अर्थ है आग) देवताओं के अनुरोध पर गणेशजी ने उसे निगल लिया। इससे उनके पेट में तीव्र जलन हो गई तब कश्यप मुनि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर उन्हें खिलाई जिससे यह जलन शांत हो गई।यह एक औषधि है। मानसिक शांति के लिए बहुत लाभप्रद है। यह विभिन्न बीमारियों में एंटिबायोटिक का काम करती है। उसको देखने और छूने से मानसिक शांति और जलन शांत होती है।वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि केंसर रोगियों के लिए भी यह लाभप्रद है।

पुष्पमाला - इसके बाद में देवताओं को हार और पुष्प अर्पण किए जाते हैं। पुष्प सुंदरता और सुंगध के प्रतिक हैं। हमारा जीवन भी सुंदर और सुंगध से भरपूर हो। यही इसको चढ़ाने का भाव होता है। पुष्प रंग-बिरंगे भी होते हैं तथा इनको देखकर मन-मस्तिष्क प्रसन्न हो जाता है। पूजन में भी सुंदरता बिखर जाती है। इनकी सुंगध से चारों ओर का वातावरण खुशनुमा हो जाता है।

नैवेद्य इसके बाद देवी-देवता को भोग या नैवेद्य निवेदित किया जाता है। उनसे निवेदन किया जाता है कि हे प्रभु, इस भोग को ग्रहण कीजिए हम को कृतार्थ कीजिए यह भोग मीठा तथा शक्तिदायक है। फिर प्रसाद के रूप में इसी भोग को सभी ग्रहण करते हैं।नैवेद्य अर्पित करने से हमारा अतिथि सत्कार एवं प्रेम भाव प्रकट होता है। पूजन में हम मानते हैं कि देवी-देवता हमारे सामने उपस्थित है। अत: हम उनको भोग के लिए मिष्ठान दे जो उनकी कृपा से ही हमें प्राप्त हुआ है।हमारे भोजन विधान में भी यह नियम है कि भोजन शुरू करने से पहले कुछ मिष्ठान अवश्य खावें फिर अंत में भी मिष्ठान का प्रयोग करें।मिष्ठान्न का निर्माण दूध, घी, शक्कर से होता है। जो शक्तिदायक होने के साथ ही चिकना भी होता है जिससे हमारी आंतों में फसी पुरानी गंदगी साफ हो जाती है तथा कब्ज एवं गैस का नाश होता है। पेट की जलन शांत होती है तथा जठराग्नि मजबूत होती है।

फल - नैवेद्य के बाद देवी-देवताओं को फल चढ़ाए जाते हैं। फल पूर्णता का प्रतीक है। फल चढ़ाकर हम अपने जीवन को सफल बनाने की कामना भगवान से करते हैं। मौसम के अनुसार पांच प्रकार के फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। शक्ति अनुसार कम भी चढ़ सकते हैं।फल पूर्ण मीठे रसदार रंग और सुगंध से पूर्णता का प्रतीक है। हम भी रसदार, मीठे, नई रंग भरे जीवन जीएं तथा सफल होवें। जीवन में अच्छे कर्म करें। फल, जैसे सद्गुणों की खान है। वैसे ही हम भी बनें। क्योंकि अच्छे कार्य का फल अच्छा ही होता है।

तांबुल - तांबुल का अर्थ पान है। यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। पान, मुख शुद्धि के साथ भोजन को पचाने में भी सहायक होता है। यह कई रोगों की रोकथाम में प्रयुक्त किया जाता है। अत: इसका पूजन सामग्री में प्रयोग होता है।पान खिलाकर हम अतिथि का सत्कार करते हैं। भोजन के बाद पान खिलाकर हम मेहमानवाजी की पूर्णता प्रदान करते हैं। मांगलिक कार्यों में भी पान का प्रयोग अनिवार्य होता है।पान में औषधिय गुण है। पान, तीक्ष्ण, कसैला, चटपटा, वातनाशक, भुख बढ़ाने वाला होता है। सर्दी-जुकाम, पेट दर्द की बीमारियां, गठान, सूजन में पान का पत्ता लाभकारी होता है।

दक्षिणा - तांबुल के बाद दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। भगवान भाव के भूखे हैं। अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है। द्रव्य के रूप में रुपए,स्वर्ण, चांदी कुछ की अर्पित किया जा सकता है। इसमें अपने आपका अर्पण भी भगवान के चरणों में किया जाता है।सीखाता है त्याग- दक्षिणा का भगवान के चरणों में समर्पण, हमें त्याग सीखाता है। धन में जो मोह है आसक्ति है। उससे हमारा मन हटने से सुख संतोष प्राप्त होता है। यह उनका ही दिया है। तथा उनको ही समर्पित हो यही इसका भाव है।

आरती - आरती यानी आर्त होकर, व्याकुल होकर भगवान को याद करना, उनका स्तवन करना। आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।

मंत्र पुष्पांजली - मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।

परिक्रमा - आरती के बाद देवी-देवता की परिक्रमा की जाती है। प्रदक्षिणा का अर्थ है। अपना दाहिना भाग मूर्ति की ओर रखकर उसकी परिक्रमा करना। अलग-अलग देवी-देवता की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है। जैसे गणेशजी की तीन, विष्णु की चार, शंकर की आधी परिक्रमा आदि ईश्वरीय भावना से भगवान की मूर्ति या उनकी लीलाओं से जुड़े स्थानों की जब परिक्रमा करते हैं तो उनके गुण भी हममें उतरते है।

क्षमा प्रार्थना - क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।क्षमा मांगने से हमारे अंदर विनम्रता आती है। अपनी गलती मानने की शक्ति आती है, और हम उसमें सुधार कर सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी गलती मानते हैं और उनमें सुधार करते है वह विनम्र होने के साथ अपने जीवन में लक्ष्य को पाते हैं। तथा नई ऊंचाइयों को छूते हैं।क्षमा के बाद सब कुछ उन्हीं को अर्पण कर पूजन पूर्ण किया जाता है।
 
ऊं हनुमानान्जनिसुनुर्वयुपुत्रो महाबलः !
रामेष्टः फाल्गुन्सखः पिंगाक्षओय्मिताविक्रमः !!
उदधि क्रमंश्चैव सीता शोक विनाशनः !
लक्ष्मण प्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा !!
द्वादशेतानी नामानि कपिन्द्रस्य महात्मनः !!
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत !
तस्य सर्व भयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् !!
धन- धान्य भवेत् तस्य दुखम नैव कदाचन !!

शिव पुराण से

शिव पुराण अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है ..प्रमाण श्लोक सहित पोस्ट कर रहाहूँ ...जिस से की आप सहित तमाम लोगों को लाभ हो जो समाधान में रुद्राभिषेक का उपाय बताते हैं. और शङ्कर कि उपासना करना चाहते हैं ..आशा है लाभ ग्राही बनेङ्गे ...
जलेन बृष्टि माप्नोति व्याधि शान्त्यै कुशोदकैः! दध्ना च पशु कामाय श्रीया इक्षु रसेन च !!मध्वज्येन धनार्थी स्यात् मुमुक्षुः तीर्थ वारिणा !पुत्रार्थी पुत्र माप्नोति पयसां चाभिषेचनात !!बन्ध्या वा काक बन्ध्या वा मृत वत्सा च याङ्गना !! सद्यः पुत्र मवप्नोति पयसां चाभिषेचनात !!ज्वर कोप प्रशान्त्यर्थं जलधारा शिव प्रियः !!घृत धारा शिवे कार्या यवन्मन्त्र साहस्रकं!! तदा वन्सस्य विस्तारो जायते नात्र संशयः !!प्रमेह रोग शान्त्यर्थं प्राप्नुयात मनसेप्सितं!केवलम् दुग्ध धारा च तदा कार्या विशेषतः!! शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर् जडा भवेत्!! श्रेष्ठा बुद्धिर्... भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च !!शर्षपेनैव तैलेन शत्रु नासो भवेदिह ! पाप क्षयार्थि मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा भवेत् !!!
जल से -----------वृष्टि
रोग शान्ति ----------कुश जल से
दहि से --------------पशु प्राप्ति वा पशु कि आरोग्यता(एवं वाहनादि लाभ )
गन्ने के रस से ------लक्ष्मी प्राप्ति
मधु युक्त जल से ------धनार्थी
तीर्थ जल से --------मोक्ष
दूध् से ---------पुत्र प्राप्ति
ज्वर् शान्त्यर्थ भी -----जल से
१००० बार घी से अभिषेक --वंश विस्तार
मन कामना एवं प्रमेह रोग शान्ति के लिये भी -----दूध् से
जड बुद्धि वालो को सुबुद्धि करने के लिये ----दूध् सर्कर मिला के
सर्षो के तेल से ---------------शत्रु नास
शुद्ध शहद से ----पाप क्षय के लिये
और व्याधि राहित्य के लिये -------सर्षो से रुद्राभिषेक करना चाहिये ...जन्म पत्री मे जो जो चिज कि कमि है वो तो आसानी से पता चल हि जाता है ..हर हर महादेव

नाग पंचमी

मान्यता है की श्रावण मास के शुक्लपक्ष की पंचमी नागोँ को आनंद देने वाली तिथि है इस लिए इसे नाग पंचमी कहते है पौराणिक कथा के अनुसार एक बार मातृ शाप से नागलोक जलने लगा तब नागो की दाह पीड़ा श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन ही शांत हुई इस कारण नागपंचमी पर्व विख्यात हो गया प्राचीन समय मे जनमेजय के द्वारा नागो को नष्ट करने के लिए किए जा रहै यज्ञ से जब नाग जाति के समाप्त हो जाने का संकट उत्पन्न हो गया तब श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन ही तपस्वी जरत्कारू के पुत्र आस्तिक ने उनकी रक्षा की और य़ज्ञ बंद कराया यह भी एक कारण है नागपंचमी बनाने का सही मायनों मे नागपंचमी का त्योहार हमें नागोँ के संरक्षण की प्रेरणा देता है पर्यावरण की रक्षा और वनसंपदा के संवर्धन मे हर जीव जन्तु की अपनी भूमिका तथा योगदान है फिर सर्प तो लोक आस्था मे भी बसे हुए है

शनिवार, 21 जुलाई 2012

धन्वन्तरी अवतार और मोहिनी अवतार

बारहवीं बार धन्वन्तरी के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेहरवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया धन्वंतरी को पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है। इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से। फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।

भगवान के सामने दीपक क्यों प्रज्वालित किया जाता है ?

हर हिंदू के घर में भगवान के सामने दीपक प्रज्वालित किया जाता है. हर घर में आपको सुबह, या शाम को या फिर दोनों समय दीपक प्रज्वालित किया जाता है. कई जगह तो अविरल या अखंड ज्योत भी की जाती है. किसी भी पूजा में दीपक पूजा शुरू होने के पूर्ण होने तक दीपक को प्रज्वालित कर के रखते है. प्रकाश ज्ञान का घोतक है और अँधेरा अज्ञान का. प्रभु ज्ञान के सागर और सोत्र है इसलिए दीपक प्रज्वालित कर प्रभु की अराधना की जाती है. ज्ञान अज्ञान का नाश करता है और उजाला अंधेरे का. ज्ञान वो आंतरिक उजाला है जिससे बाहरी अंधेरे पर विजय प्राप्त की जा सकती है. अत दीपक प्रज्वालित कर हम ज्ञान के उस सागर के सामने नतमस्तक होते है. कुछ तार्किक लोग प्रश्न कर सकते है कि प्रकाश तो बिजली से भी हो सकता है फिर दीपक की क्या आवश्यकता ? तो भाई ऐसा है की दीपक का एक महत्त्व ये भी है कि दीपक के अन्दर जो घी या तेल जो होता है वो हमारी वासनाएं, हमारे अंहकार का प्रतीक है और दीपक की लौ के द्वारा हम अपने वासनाओं और अंहकार को जला कर ज्ञान का प्रकाश फैलाते है. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि दीपक की लौ हमेशा ऊपर की तरफ़ उठती है जो ये दर्शाती है कि हमें अपने जीवन को ज्ञान के द्वारा को उच्च आदर्शो की और बढ़ाना चाहिए. अंत में आइये दीप देव को नमस्कार करे : शुभम करोति कलयाणम् आरोग्यम् धन सम्पदा, शत्रुबुध्दि विनाशाय दीपज्योति नमस्तुते ।। सुन्दर और कल्याणकारी, आरोग्य और संपदा को देने वाले हे दीप, शत्रु की बुद्धि के विनाश के लिए हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

शंख क्यों बजाया जाता है ?

शंख बजाने से ॐ की मूल ध्वनि का उच्चारण होता है. भगवान ने श्रष्टि के निर्माण के बाद सबसे पहले ॐ शब्द का ब्रहानाद किया था. भगवान श्री कृष्ण के भी महाभारत में पाञ्चजन्य शंख बजाय था इसलिए शंख को अच्छाई पर बुरे की विजय का प्रतीक भी माना जाता है. ये मानव जीवन के चार पुरुषार्थ में से एक धर्म का प्रतीक है. शंख बजाने का एक कारण ये भी है की शंख की ध्वनि से जो आवाज़ निकलती है वो नकारात्मक उर्जा का हनन कर देती है. आस पास का छोटा मोटा शोर जो भक्तो के मन और मस्तिष्क को भटका रहा होता है वो शंख की ध्वनि से दब जाता है और फिर निर्मल मन प्रभु के ध्यान में लग जाता है. प्राचीन भारत गाँव में रहता था जहाँ मुख्यत एक बड़ा मन्दिर होता था. आरती के समय शंख की ध्वनि पुरे गाँव में सुने दे जाती थी और लोगो को ये संदेश मिल जाता था कि कुछ समय के लिए अपना काम छोड़ कर प्रभु का ध्यान कर ले

क्यों नहीं है, भगवान जगन्नाथ के हाथ-पैर ?

अपने ही वरदान से हाथ-पांव गंवा बैठे भगवान जगन्नाथ ! भगवान जगन्नाथ तीनों लोकों के स्वामी हैं, इनकी भक्ति से लोगों की मनोकामना पूरी होती है ! लेकिन खुद इनके हाथ-पांव नहीं हैं !! जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ जी के साथ बलदेव और बहन सुभद्रा की भी प्रतिमाएं है ! जगन्नाथ जी की तरह इनके भी हाथ-पांव नहीं हैं ! तीनों प्रतिमाओं का समान रूप से हाथ-पांव नहीं होना अपने आप में एक अद्भुत घटना का प्रमाण है !! जगन्नाथ जी के अद्भुत रूप के विषय में यह कथा है कि मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में कहा, "समुद्र तट पर जाओ वहां तुम्हें एक लकड़ी का लट्ठा मिलेगा उससे मेरी प्रतिमा बनाकर स्थापित करो ! राजा ने ऐसा ही किया और उनको वहां पर लकड़ी का एक लट्ठा मिला !! इसी बीच देव शिल्पी विश्वकर्मा एक बुजुर्ग मूर्तिकार के रूप में राजा के सामने आये और एक महीने में मूर्ति बनाने का समय मांगा ! विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि जब तक वह खुद आकर राजा को मूर्तियां नहीं सौप दे तब तक वह एक कमरे में रहेगा और वहां कोई नहीं आएगा !! राजा ने शर्त मान ली, लेकिन एक महीना पूरा होने से कुछ दिनों पहले मूर्तिकार के कमरे से आवाजें आनी बंद हो गयी ! तब राजा को चिंता होने लगी कि बुजुर्ग मूर्तिकार को कुछ हो तो नहीं गया ! इसी आशंका के कारण उसने मूर्तिकार के कमरे का दरवाजा खुलावाकर देखा ! कमरे में कोई नहीं था, सिवाय अर्धनिर्मित मूर्तियों के, जिनके हाथ पांव नहीं थे !! राजा अपनी भूल पर पछताने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि यह सब भगवान की इच्छा से हुआ है ! इन्हीं मूर्तियों को ले जाकर मंदिर में स्थापित करो ! राजा ने ऐसा ही किया और तब से जगन्नाथ जी इसी रूप में पूजे जाने लगे !! विश्वकर्मा चाहते तो एक मूर्ति पूरी होने के बाद दूसरी मूर्ति का निर्माण करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और सभी मूर्तियों को अधूरा बनाकर छोड़ दिया ! इसके पीछे भी एक कथा है, बताते हैं कि एक बार देवकी रूक्मणी और कृष्ण की अन्य रानियों को राधा और कृष्ण की कथा सुना रही थी !! उस समय छिपकर यह कथा सुन रहे कृष्ण, बलराम और सुभद्रा इतने विभोर हो गये कि मूर्तिवत वहीं पर खड़े रह गए ! वहां से गुजर रहे नारद को उनका अनोखा रूप दिखा ! उन्हें ऐसा लगा जैसे इन तीनों के हाथ-पांव ही न हों !! बाद में नारद ने श्री कृष्ण से कहा कि आपका जो रूप अभी मैंने देखा है, मैं चाहता हूं कि वह भक्तों को भी दिखे ! कृष्ण ने नारद को वरदान दिया कि वे इस रूप में भी पूजे जाएंगे ! इसी कारण जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के हाथ-पांव नहीं हैं !! !! नमों नारायणाय !!

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

गुरु नानक ब्राह्मण थे

हम ब्राह्मणो की एक पीडी से दुसरी पीडी सुनती आ रही है कि मुगल आक्रमणकारियो का सामना करने के लिये ब्राह्मणो ने ही अपने सबसे बडे पुत्र का लगातार बलिदान देते हुये सिख संप्रदाय की स्थापना की है , परन्तु आज सिख यह भूल चुके है , वे यह मानने के लिये तैय्यार ही नही है कि सिख ब्राह्मणो की वन्शज है ? और सिख स्म्प्रदाय की स्थापना हिन्दुओ की रक्षा के लिये की गई थी । परन्तु हम ब्राह्मण तो यह जानते ही है और इसके प्रमाण भी है । सिख संप्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जन्म और माता पिता से स्म्बन्धित जानकारी को यदि आप देखे तो आप भी समझ जायेगे कि पुर्व मे सिख शुद्ध ब्राह्मण ही थे गुरु नानक के जन्म से संबन्धित इस जान्कारी को देखिये (१). हिन्दु विक्रम संवत के प्रयोग से सिख स्म्प्रदाय का हिन्दु प्रमाणित होना :- गुरू नानक देव या नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे । गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) 15 अप्रैल 1469 ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। तलवंडी पाकिस्तान के लाहौर जिले से 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। (२). गुरु नानक के पिता का ब्राह्मण होना :- नानकदेवजी के जन्म के समय प्रसूति गृह अलौकिक ज्योत से भर उठा। शिशु के मस्तक के आसपास तेज आभा फैली हुई थी, चेहरे पर अद्भुत शांति थी। पिता बाबा कालूचंद्र बेदी ( कंही कालुचन्द्र मेहता तो कंही कालुचन्द्र मेहता पुर्व मे दोनो ही ब्राह्मण हुआ करते थे )और माता त्रिपाता ने बालक का नाम नानक रखा। गाँव के पुरोहित पंडित हरदयाल ने जब बालक के बारे में सुना तो उन्हें समझने में देर न लगी कि इसमें जरूर ईश्वर का कोई रहस्य छुपा हुआ है। (३). गुरु नानक देव का एक ब्राह्मण द्वारा शिक्षा दिया जाना :-बचपन से ही नानक के मन में आध्यात्मिक भावनाएँ मौजूद थीं। पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। पंडितजी ने नानक को और ज्ञान देना प्रारंभ किया तो बालक ने अक्षरों का अर्थ पूछा। पंडितजी निरुत्तर हो गए। नानकजी ने क से लेकर ड़ तक सारी पट्टी कविता रचना में सुना दी। पंडितजी आश्चर्य से भर उठे। (४). नानक का जनेउ ( उपनयन ) संस्कार होना हिन्दुत्व की पह्चान :-जब नानक का जनेऊ संस्कार होने वाला था तो उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि अगर सूत के डालने से मेरा दूसरा जन्म हो जाएगा, मैं नया हो जाऊँगा, तो ठीक है। लेकिन अगर जनेऊ टूट गया तो? ( यंहा यह भी ध्यान देने वाली बात है कि गुरु नानक देव के उपनयन मे सूत का जनेउ ( उपनयन ) पहनाया जा रहा था । सूत का जनेउ वेदिक नियमानुसार सिर्फ़ ब्राह्मणो को ही पहनाया जा सकता है । दूसरे वर्णो जैसे क्षत्रियो का सन का वेश्यो का भेड एके बाल का आदि होता है )
धर्म-पुस्तकें टूरिस्ट-गाईड की तरह हैं, जो केवल उस राह का इशारा देती हैं | संत नाम के जहाज को भरकर जीवों को ले जानी वाली हस्तियाँ हैं, जिनके पास से पासपोर्ट या टिकट लेकर (दीक्षित होकर) उनके नाम या शब्द रूपी जहाज पर सवार होकर, जिसके वे स्वयं कप्तान हैं, मालिक के देश पहुंचा जा सकता है |

धर्म-पुस्तकों का विचार निसंदेह अच्छा है, पर ले जानी वाली शक्ति केवल गुरु और शब्द या राम-नाम ही है | जब तक वे न मिलें, मालिक के धुर-धाम पहुँचना असम्भव है | यदि हम सिर्फ रास्ता ही पूछते ही रहे और मंजिल की तरफ एक कदम भी न रखें तो केवल विचारों के ख्याली पुलाव या तर्क-वितर्क से कैसे उस परवरदिगार के देश में पहुँच सकते हैं ? भाई गुरदास जी फरमाते हैं:

पूछत पथिक तिहं मारग न धारै पग, प्रीतम कै देस कैसे बातन से जाईये || (कवित्त-सवैये ४३९)
...
उस मार्ग पर ग्रन्थ-पोथीयाँ पढ़कर अपने आप जाने की कोशिश करना गुमराही का कारण बनता है, जिसके लिए इनसान को पछताना पड़ता है | यदि गुरु का संग प्राप्त हो जाये तो जीव मालिक के देश में आसानी से पहुँच जाता है | गुरु अर्जुन साहिब पूछते हैं की अगर मालिक से मिलना हमारे वश में है तो अभी तक हम बिछुड़े न रहते:

आपण लीआ जे मिलै बिछुड़ी किउ रोवंनी ||
साधू सांगू परापते नानक रंग माणनि || (आदि ग्रन्थ, प्र. १३४)

जिस चीज़ को हमें ढूँढना हो वह हो तो कहीं परन्तु हम उसकी तलाश किसी और जगह करें तो वह कैसे मिल सकती है ? जब हम भेदी को साथ ले लें तो हम उस वास्तु को अवश्य पा लेते हैं, करोडो जन्मों का रास्ता पल भर में पूरा हो जाता है | कबीर साहिब फ़रमाते हैं:

वस्तु कहीँ ढूँढें कहीँ, केही विधि आवै हाथ |
कहैं कबीर तब पाइए, जब भेदी लीजे साथ ||
भेदी लीन्हा साथ कर, दीन्ही वास्तु लखाय |
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाये || (कबीर साखी संग्रह, प्र. ५)

शिव और जैव-विविधता ही संसार है

भारतीय पौराणिक प्रसंग प्रतीकात्मकता से भरपूर हैं। वाचिक परंपरा अर्थात ओरल ट्रेडिशन में कथा-कथन एक बेहद महत्वपूर्ण विधा रही है, इसके माध्यम से विद्वजन साधारण जनमानस के बीच अच्छे विचार भेजते रहे हैं। आमजन उन विचारों को सहजता से ग्रहण कर पाए इस हेतु तरह-तरह के किस्सों, रूपकों और प्रतीकों के जरिए इन्हें सरलीकृत भी किया गया।

धर्मप्राण आम जनता इस साहित्य को अंगीकार कर ले इसलिए ये आख्यान धर्म का चोला प...हने हुए हैं और सदियों से भारत की हवा में प्रवाहित हैं। ऐसा ही एक पौराणिक परिवार है शिव का परिवार। इस परिवार में एक अद्भुत बात है। विभिन्नताओं में एकता और विषमताओं में संतुलन। कैसे?

शिव परिवार के हर व्यक्ति के वाहन या उनसे जुड़े प्राणियों को देखें तो शेर-बकरी एक घाट पानी पीने का दृश्य साफ दिखाई देगा। शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, मगर शिवजी के तो आभूषण ही सर्प हैं। वैसे स्वभाव से मयूर और सर्प दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि साँप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती स्वयं शक्ति हैं, जगदम्बा हैं जिनका वाहन शेर है। मगर शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। बेचारे बैल की सिंह के आगे औकात क्या? परंतु नहीं, इन दुश्मनियों और ऊँचे-नीचे स्तरों के बावजूद शिव का परिवार शांति के साथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्नतापूर्वक समय बिताता है।

शिव-पार्वती चौपड़ भी खेलते हैं, भाँग भी घोटते हैं। गणपति माता-पिता की परिक्रमा करने को विश्व-भ्रमण समकक्ष मानते हैं। स्वभावों की विपरीतताओं, विसंगतियों और असहमतियों के बावजूद सब कुछ सुगम है, क्योंकि परिवार के मुखिया ने सारा विष तो अपने गले में थाम रखा है। विसंगतियों के बीच संतुलन का बढ़िया उदाहरण है शिव का परिवार।

यहाँ इकोलॉजिकल बैलेंस या पारिस्थितिकीय संतुलन का पाठ भी है। हम सारे प्राणी और हमारा पर्यावरण एक-दूसरे से एक भोजन श्रृंखला के जरिए जुड़े हुए हैं। इसमें कोई भक्षी है, कोई भक्षित है, तो वही भक्षित किसी और का भक्षी है। यदि मनुष्य साँपों को मारे तो चूहे बढ़ जाते हैं और अनाज नष्ट करने लगते हैं। इसी तरह कई प्रकार से यह फूड चेन ऐसा सिलसिला चाहती है जिसे बीच में न तोड़ा जाए। जैव-विविधता से ही संसार चलता है। दुश्मन भी प्रकारांतर से मित्र ही है। संतुलन जरूरी है।

सामाजिक तौर पर देखें तो परिवारों में भी यह जरूरी है कि अलग-अलग मिजाजों, अभिरुचियों, स्वभावों के बावजूद लोग हिल-मिलकर रहें। यह तभी संभव है जब सदस्यों में एक-दूसरे की व्यक्तिगतता के लिए सम्मान हो। एक-दूसरे को स्पेस दिया जाए। अपनी सोच दूसरों पर थोपी या जबर्दस्ती मनवाई न जाए। असहमति के लिए जगह हो, विषमताओं के बावजूद तालमेल हो। मुखिया व अन्य परिपक्व सदस्यों में गले में गरल थामे रखने का धीरज हो। सबको साथ लेकर चलने की आकांक्षा हो।

भारत जैसे नागरिकों की 'बायोडायवर्सिटी' वाले देश में भी विसंगतियों, विभिन्नताओं और विविधताओं के बीच एकता व संतुलन 'शिव' के परिवार की तरह जरूरी है।

ॐ-ब्रह्मप्राप्ति

ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुंडकोपनिषत् में लिखा है:
प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।।
कठोपनिषत् में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।
वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध तथा जैन संप्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है। प्रणव शब्द का अर्थ है–प्रकर्षेणनूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणव:।
प्रणव का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। यहाँ प्रसिद्ध आगमों की प्रक्रिया के अनुसार विश्लेषण क्रिया का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना। इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं। प्रकारांतर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। प्लुत तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है। यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है। विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है। एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एम मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है। तदुपरांत क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़वा संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। इसका थोड़ा सा आभास मांडूक्य उपनिषद् में मिलता है।
बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।
योगी संप्रदाय में स्वच्छंद तंत्र के अनुसार ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारणजगत् का वाचक है मकार। कारण सलिल में विधृत, स्थूल आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है। म पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।
तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि बिंदु अशेष वेद्यों के अभेद ज्ञान का ही नाम है और नाद अशेष वाचकों के विमर्शन का नाम है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है। उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है। अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही सिद्ध है।
इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है। स्वच्छंद तंत्र में यह दिखाया गया है कि ऊर्ध्व गति में किस प्रकार कारणों का परित्याग होते होते अखंड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है। "अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता। भ्रूमध्य में बिंदु का त्याग होता है। नाद सदाशिवरूपी है। ललाट से मूर्धा तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है। इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है। इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रहप्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।
इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

गुरु के भेद

शात्रों में गुरु के १२ भेद बतलाये गए हैं ---
अध्यापक २ पिता ३ज्येष्ठभाई ४राजा५मामा ६श्वसुर ७ रक्षक ८नाना ९ पितामह १०बन्धु ११अपने से बड़ा १२ चाचा ---
उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः! मातुलः श्वसुरस्त्राता मातामहपितामहौ !!
बन्धुर्ज्येष्ठःपितृव्यश्च पुन्स्येते गुरवः स्मृताः !!
स्त्री वर्ग में भी कौन २ गुरु हैं –इसकी भी परिगणना की गयी है –नानी ,मामी ,मौसी,सास, दादी ,अपने से बड़ी जो भी हो ,तथा जो पालन करने वाली है ! देखें ----
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा !
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु !!
किन्तु जब प्राणी के ह्रदय में मुमुक्षा जागृत होती है तब उसे कहाँ जाना चाहिए इसका निर्देश भगवती श्रुति स्वयं कर रही है –तद्विज्ञानार्थं स गुरु मेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् !
श्रोत्रिय =शास्त्रवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास समिधा (एक बित्ते की कनिष्ठिका जितनी मोटी ३लकडियाँ) लेकर जाय ,इससे अपनी दीनता भी प्रकट होगी और राजा गुरु तथा देवता के पास रिक्त हस्त नहीं जाना चाहिए –रिक्तहस्तं नोपेयाद् राजानं दैवतं गुरुम् !---इस शास्त्र आज्ञा का पालन भी !ऐसे गुरुजन संसार से पूर्ण विरक्त आत्मचिंतननिष्ठ होते हैं ! तपश्चर्या और आत्मबल से परिपूर्ण इनका दर्शन भगवत्कृपा से ही संभव है ---
लभ्यतेपि तत्कृपयैव—नारदभक्तिसूत्र !ये ३ प्रकार के होते हैं ! जो विभाग इनकी क्रिया शैली के आधार पर किया गया है ---
१ स्पर्शदीक्षाप्रद गुरु ---स्पर्शमात्र से जो गुरुजन दीक्षा देते है वे इस कोटि में आते हैं इनके स्पर्श मात्र से कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण हो जाता है ! ये अपने स्पर्श से ही शिष्य का पोषण करने में समर्थ होते हैं ! उदाहरण के रूप में आप देख सकते हैं की पक्षी अपने बच्चों को चारा चुन्गाता है पर उनका संवर्धन अपने पंखों के द्वारा बार बार उन्हें पूर्ण स्पर्श पूर्वक ढककर करता है ! केवल आहार से पक्षियों के बच्चे नहीं बढते बल्कि माँ के स्पर्श से उनकी वृद्धि होती है! इसी श्रेणी के प्रथम गुरुजन हैं !
२ दृग्दीक्षाप्रद गुरु ---दृष्टि मात्र से जो जीवों का कल्याण करने में समर्थ होते है वे गुरुजन इस श्रेणी में आते हैं ! इसके दृष्टांत के रूप में हम मछली को प्रस्तुत करते हैं !मछली को दुग्ध नहीं होता इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं फिर वह अपने बच्चों का पालन कैसे करती है ? सुनें-- जब मछली जल में तैरती है तब छुधापीड़ित बच्चे उसकी आँखों के समक्ष आते हैं !मत्स्य की दृष्टि उन पर पड़ती है इसी से वे पुष्ट होते रहते हैं ! इस प्रकार के गुरुजन दुर्लभ होते हैं ये किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होते हैं !
३वैधदीक्षाप्रद गुरु ---ये गुरुजन उस कोटि के हैं जो अपने ध्यान मात्र से शिष्य का कल्याण करने में सक्षम होते हैं ! ये ध्यान मात्र से किसी की महाशक्ति कुण्डलिनी को जगा सकते हैं तथा भगवान की अविरल भक्ति प्राप्त कराने में भी समर्थ होते है इनसे एक बार किसी सौभाग्य शाली को जुड़ने का शुभ अवसर प्राप्त हो जाय तो उसे माया अपने मोह पाश में नहीं बाँध सकती है !भगवान कृष्णद्वैपायन व्यास जी में ये तीनों लक्षण थे ! तीर्थ, देवता और गुरु, विप्र तथा भगवान के पावन नाम में स्वल्प पुण्य वालों का विश्वास नहीं होता है ---
तीर्थे देवे गुरौ विप्रे ईश नाम्नि च पार्थिवे !
स्वल्प पुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते !!
गुरु को ब्रह्मा इसलिए कहा गया क्योंकि वे हमारे ह्रदय में विमल ज्ञान की सृष्टि करते है – गृ धातु से गुरु शब्द की निष्पत्ति होती है --गृणाति =उपदिशति ब्रह्म ज्ञानमिति गुरुः =जो भगवद् विषयक ज्ञान का उपदेश करें वे गुरु है ,अतः गुरु ब्रह्मा है नूतन ज्ञान की सृष्टि करने कारण !बार बार सचेत करते हुए उस ज्ञान का संरक्षण करते हैं इसलिए विष्णु हैं !और स्वप्रदत्त ज्ञान के द्वारा कुसंस्कारों तथा अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का विनाश करते हैं इसलिय संहारकारी शिव हैं !इन्हीं कारणों से उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा परब्रह्म कहा गया है -----
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः !
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः !! हाँ एक बात और जो मैंने इन ३ प्रकार की दीक्षाओं का निरूपण किया है ,वह कुलार्णव तंत्र में भगवान शिवजी के द्वारा भगवती पार्वती को उपदिष्ट हुई हैं और भागवत की श्रीधरी टीका पर जो वंशीधरी व्याख्या है उसमें १०/२/१८ में आप देख सकते हैं ! हम इस गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर इन सब गुरुजनो के श्रीचरणों में अपना श्रद्धासुमन समर्पित करते हुए कोटिशः प्रणाम करते हैं !

ब्राह्मण देवता क्यो है

दैवाधीनम जगत सर्वं , मंत्राधीनाश्च देवता |
ते मंत्रा ब्रम्हानाधीना , तस्मात् ब्राम्हण देवता
भावार्थ - सम्पूर्ण जगत देवताओं के अधीन है , देवता मन्त्रों के आधीन है , मंत्र ब्राम्हण के अधीन है , इसलिए ब्राम्हण देवता है |
भगवान श्री कृष्ण जी की वाणी
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“हे अर्जुन! न वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से, न योग और न मुद्रा आदि क्रियाओं से ही इस प्रकार तत्त्व रूप ‘मैं’ देखा जा सकता हूँ, जैसा मेरे को तुमने देखा है”। (श्रीमद भगवत गीता से)

भगवान श्री विष्णु जी... की वाणी
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“वेद पुराणों को जानता हुआ भी जो पुरुष परमार्थ तत्व को नहीं जानता, ऐसे उस विडम्बक का पड़ना और बोलना सब कुछ कौवों की तरह केवल टाय-टाय ही है”।

“मुक्ति न तो वेदों के अध्यन से होती है और न तो शास्त्रों के पड़ने से ही। मुक्ति तो हे गरुण केवल तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होती है”।

“परमब्रह्म कल्याण रूप अद्वैत है। वह कर्मकाण्ड, योग-साधना, मुद्राओं आदि क्रियाओं के परिश्रम से नहीं प्राप्त होता है और न करोड़ों शास्त्रों के पड़ने से ही मिलता है, वह केवल गुरु के सदुपदेश से ही मिलता है”।

“तभी तक ही तप, व्रत, तीर्थटन, जप, होम और देव पूजा आदि है तथा तभी तक ही वेद, शास्त्र और आगमों की कथा है, जब तक कि तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर ये सब कुछ भी नहीं है”। (गरुण पुराण से)

पतंजलि द्वारा निरूपित ईश्वर

महर्षि ने पहले यह बताया था कि भजन बैराग और अभ्यास, बिना उकताए हुए चित्त से, सांगोपांग निरंतर करने प्रर दृढ स्थिति वाला होता है | इससे चित्त वृत्तियाँ शांत और निरुद्ध हो जाती हैं, किन्तु यह नहीं बताया कि अभ्यास में चित्त को ठहराएं कहाँ ? आरम्भ कहाँ से करें ? क्या मूर्ती पूजा ( दुर्गा, हनुमान या शिव लिंग कि पूजा) या हवन करें ? नहीं | कहा कि

ईश्वर प्रानि...धानाद्वा ||योग दर्शन - १ / २३ ||

ईश्वर के प्रति समर्पण से समाधि शीघ्र ही सिद्ध होती है | किन्तु ईश्वर को तो हमने देखा नहीं | ईश्वर का स्वरूप क्या है ? इस पर कहते हैं कि ----

क्लेशाकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:|| योग दर्शन १ / २४ ||

क्लेश, कर्म, विपाक और आशय - इन चारों से जो सम्बन्धित नहीं है, "अप्राराम्रिष्ट:" - पूर्णत: निर्लेप है, परे है, जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह पुरुष विशेष ईश्वर है | यही ईश्वर कि परिभाषा है | संसार क्लेश, कर्म, कर्मों के संग्रह और आशय से बंधा है, इन सबसे अत्यंत परे ( जैसे कोई सम्बन्ध था ही नहीं - इतना परे) विशेष पुरुश ईश्वर है |
क्लेश अर्थात अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश जो जीव के दु:ख का कारण है, शुभ-अशुभ मिश्रित एवं शुभाशुभरहित कर्म उनके परिणाम और उन कर्म-संस्कारों कि वासना से जो सर्वथा उपराम है, वही ईश्वर है |
अर्थात उसके अर्थस्वरूप उन परमेश्वर का ध्यान करें | उनके प्रति श्रद्धा स्थिर करें | किन्तु ईश्वर को हमने देखा नहीं तो तब चिंतन कैसे करे? पहले ध्यान श्रद्धा से ही होता है, क्रमश: ईश्वर ही बोध करा देता है कि सदगुरु कोन है | ध्यान सदगुरु का ही किया जाता है | सदगुरु अव्यक्त ईश्वर स्वरूप है, मानव-तन के आधार वाला होता है | गीता ९/११ में श्री कृष्ण कहते हैं कि "मै परम का स्पर्श करके परमभाव में स्थित हूँ किन्तु हूँ मनुष्य शरीर के आधारवाला |" यही सदगुरु का स्वरूप है | जब सदगुरु का परिचय मिल जाएगा तब ध्यान और स्पष्ट हो जाएगा |

मंगल पाण्डेय

वीर पुरुष मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 को उत्तरप्रदेश के वलिया जिले के नगवा गाँव के ब्रह्मण परीवार मे हुआ था।जो बंगाल नेटिभ इंफ़ेनटरी मे सिपाही थे पर ये सिपाही तो भारत माता का सिपाही था।परतंत्रता की बेड़ीयो मे जकाड़ी वसुंधरा के दर्द को यह सिपाही बर्दास्त नही कर सका और उसके अंदर की देशभक्ती की भावना अपने कंपनी से विद्रोह के लिये मचल उठी और उसने 29 मार्च 1857 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया।
....................ऐसे वीर पुरुष को उनके जन्मदिवस पर सत सत नमन!

बेल पत्र का उपयोग शिव जी की आराधना में क्यों किया जाता है

बेल पत्र का उपयोग शिव जी की आराधना में क्यों किया जाता है?
सावन महीने में भगवन शिव की आराधना की जाती है| सारे सनातनी गंगा की पवित्र जल से भगवन शिव का अभिषेक करते है| शिव की पूजा में गंगा जल, बेल पत्र, चन्दन, दूध, धतूरा आदि चीजो का प्रयोग किया जाता है| आज हमें यह जानने की जरुरत है कि इन सबके पीछे कौन सी वैज्ञानिक सोच है..??

बेल का पेड़ एक औषधि का वृक्ष है जिसमे अनेको ऐसे औषधीय गुण है जो मानव को स्वस्थ तो रख ही सकते है साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्छ रख सकते है| बेल पत्र मे अनेको ऐसे तत्व मिलते है जो की कीटाणु और विषाणु नाशक है जैसे की सल्फर, फास्फोरस आदि |
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: पादप
(अश्रेणिकृत) एकबीजपत्री
(अश्रेणिकृत) रोसिदै
गण: सापीन्दालेस
कुल: रुतासेऐ
उपकुल: औरान्त्योइदेऐ
ट्राइब: क्लौसेनेऐ
प्रजाति: ऐग्ले
कोरेआ
जाति: ऐ. मार्मेलोस
द्विपद नाम
'ऐग्ले मार्मेलोस
(L.) कोर्र.सेर्

रासायनिक संगठन

बेल के फल की मज्जा में मूलतः ग्राही पदार्थ पाए जाते हैं। ये हैं-म्युसिलेज पेक्टिन, शर्करा, टैनिन्स। इसमें मूत्र रेचक संघटक हैं-मार्मेलोसिन नामक एक रसायन जो स्वल्प मात्रा में ही विरेचक है। इसके अतिरिक्त बीजों में पाया जाने वाला एक हल्के पीले रंग की तीखा तेल (लगभग १२ प्रतिशत) भी रेचक होता है। शक्कर ४.३ प्रतिशत, उड़नशील तेल तथा तिक्त सत्व के अतिरिक्त २ प्रतिशत भस्म भी होती है। भस्म में कई प्रकार के आवश्यक लवण होते हैं। बिल्व पत्र में एक हरा-पीला तेल, इगेलिन, इगेलिनिन नामक एल्केलाइड भी पाए गए हैं। कई विशिष्ट एल्केलाइड यौगिक व खनिज लवण त्वक् में होते हैं।

अब हम बेल पत्र के उपयोग की पूरी प्रक्रिया को समझते है| सबसे पहले भक्त बेल पत्र को इकठ्ठा करने के लिए सुबह उठ कर आस पास के बगीचे में जाता है जहाँ उसे टहलने के क्रम में घास पर टहल कर जाना होता है जिससे उसे स्वास्थगत लाभ मिलता है घास पर ओस की बूंदों से वो काफी स्वस्थ महसूस करता है साथ ही उसके आँखों जी ज्योति भी बढती है| इसके उपरान्त हाथो से जब वो बेल पत्रों को तोड़ता है तो ओस की बूंदों को स्पर्श करता है जिससे वो और भी तरोताजा महसूस करता है इन बेल पत्रों को को इकठ्ठा करने के क्रम में भी उसे अनेको लाभ मिलते है|

पूजा करते समय बेल पत्रों को जल के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है| और भक्त पुरे मन से शिव की आराधना करते है| जिससे की भक्त को एक अलौकिक सुख मिलता है| संध्या को मंदिर का पुजारी सारे पुष्प और बेल पत्रों को एकत्र करके पास के नदी या तालाब में ड़ाल देता है| जैसा की हम लोग जानते है सावन में जोरो की बारिश होती है और ये बारिश का पानी सभी जगह के गंदगियो को बहा कर अपने साथ नदियों और तालाब में ले आता है| इस गंदगी के वजह से सारे नदी और तालाब गंदे हो जाते है और उसमे रहने वाले जीव जंतु मरने लगते है| इसलिए तालाब को साफ़ रखने के लिए कोई भी कारगर उपाय नहीं होता है| इसलिए उसमे बैल पत्र डालने से उनका पानी अपने आप साफ और स्वच्छ हो जाता है|

बैल पत्रों में निहित तत्व गंदगियो को समेट कर नदी के किनारों पर जमा करने लगती और तालाब में इन गंदगियो को समेट कर तालाब के तली में और किनारों पर जमा करने लगती है जिससे की नदी और तालाब साफ़ हो जाते है| उसके दूषित तत्व पानी से अलग हो जाते है और उसका पानी निर्मल हो जाता है साथ है उसमे औषधीय गुण भी आ जाते है जो त्वचा रोग को ठीक कर सकता है|

अतः मूर्ख लोगो द्वारा कहा जाना की ये सिर्फ एक रूढ़िवादिता है एक बहुत बड़ी मूर्खता है| सनातन धर्म के विज्ञानं को समझाने की जरुरत है जो की हमारे फायदे के लिए बनाया गया है| ताकि हम अपना जीवन स्वस्थ रख सके साथ ही वातावरण को भी स्वस्थ रख सके|

बिल्वपत्र का महत्त्व एवं प्रयोग----पंडित दयानन्द शास्त्री

मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।

महादेव का रूप है वृक्ष---
बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-

बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्।
य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्रापनुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ शिवपुराण १३/१४

अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है।
जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।

बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र----
बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा।
गृहामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ [ -आचारेन्दु]

अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।

पत्तियां कब न तोड़ें

विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-

>> सोमवार के दिन >> चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। >> संक्रांति के पर्व पर।

अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवास।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ लिंगपुराण
अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।


क्या चढ़ाया गयाबिल्व-पत्र भी चढ़ा सकते हैं---
शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ स्कन्दपुराण, आचारेन्दु,

अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।

विभिन्न रोगों की कारगर दवा--बिल्व-पत्र----

आचार्य चरक और सुश्रुत दोनों ने ही बेल को उत्तम संग्राही बताया है। फल-वात शामक मानते हुए इसे ग्राही गुण के कारण पाचन संस्थान के लिए समर्थ औषधि माना गया है। आयुर्वेद के अनेक औषधीय गुणों एवं योगों में बेल का महत्त्व बताया गया है, परन्तु एकाकी बिल्व, चूर्ण, मूलत्वक्, पत्र स्वरस भी अत्यधिक लाभदायक है। चक्रदत्त बेल को पुरानी पेचिश, दस्तों और बवासीर में बहुत अधिक लाभकारी मानते हैं। बंगसेन एवं भाव प्रकाश ने भी इसे आँतों के रोगों में लाभकारी पाया है। यह आँतों की कार्य क्षमता बढ़ती है, भूख सुधरती है एवं इन्द्रियों को बल मिलता है ।

बेल फल का गूदा डिटर्जेंट का काम करता है जो कपड़े धोने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। यह चूने के प्लास्टर के साथ मिलाया जाता है जो कि जलअवरोधक का काम करता है, और मकान की दीवारो सीमेंट में जोड़ा जाता है। चित्रकार अपने जलरंग मे बेल को मिलाते है जो कि चित्रों पर एक सुरक्षात्मक परत लगाता है। बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। वर्त्तमान समय में लोक वजन घटाने के लिए डाईटिंग करते है उनके लिए बेल का फल वरदान है बेल के फल का गूदा खाने से भूख नहीं लगती
इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।
पूजन में महत्व---

वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है।

भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है।

पूजा में चढ़ाने का मंत्र---
भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र पौराणिक है।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता

काशी


काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:।पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवरबन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधवके नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने कुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दि...या, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थकहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजीसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई। एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगातटपर वाराणसी नगर बसाया  था

विज्ञान के अछूते पहलू

जिस समय न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की
गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना
बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये
हमारे लिए शर्म की बात है.

... भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-

आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी
पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर
जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश
में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ
संतुलन बनाए रखती हैं।

ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे
आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता
स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है !
अगर आप अपनी पोस्ट को
अपनी भाषा हिंदी में लिखें तो निश्चय ही आपका प्रभाव और भी बढ़ जायेगा .
हिंदी हमारे देश भारत वर्ष की राष्ट्र भाषा है .....प्रयोग कीजिये ...अच्छा
लगता है ..इसके प्रयोग से हमारा मान सम्मान और भी बढ़ जाता

विज्ञान के अछूते पहलू

जिन्हें भी भौतिक विज्ञान की थोड़ी जानकारी होगी, वे जानते होंगे की
प्रत्यास्थता पदार्थों का वह गुण है जिसके प्रभाव से बाहरी दवाब पड़ने पर भी
वह अपने आकार को दुबारा पा लेते हैं।
यह पदार्थों के ऐसा गुण है, जिससे वाह्य बल लगाने पर उसमें विकृति आती है।
लेकिन बल हटते ही वह अपनी मूल स्थिति में आ जाता है।
... हम सब जानते हैं कि ब्रिटिश भौतिक शास्त्री Robert Hooke ने सन 1676 ईस्वी में
एक नियम भी दिया। इसके अनुसार, किसी प्रत्यास्थ वस्तु की लम्बाई में परिवर्तन,
उस पर आरोपित बल के समानुपाती होता है।

अब भारतीय हिन्दू विद्वान श्रीधराचार्य की चर्चा कि जाए। 991 ईस्वी में
इन्होंने एक श्लोक लिखा :

ये घना निबिड़ाः अवयवसन्निवेशाः तैः विशष्टेषु
स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमानः स्थितिस्थापकः स्वाश्रयमन्यथा
कथमवनामितं यथावत् स्थापयति पूर्ववदृजुः करोति।

इसका मतलब है:

लचीलापन सघन बनावट वाले पदार्थों का मौलिक गुण है। यह वाह्य बल लगाने के
बावजूद पदार्थ को वापस उसके मूल आकार में आने में मदद करता है।

स्पष्टतः हिंदुओं को पश्चिम से लगभग 7 शताब्दी पूर्व ही इसका ज्ञान था

काशी विश्वनाथ मंदिर

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, स्‍वामी दयानंद, गोस्‍वामी तुलस...ीदास सभी का आगमन हुआ हैं।

पहले सम्राट अकबर ने इस मंदिर को बनवाने की अनुमति दी थी। बाद में औरंगजेब ने १६६९ में इसे तुड़वा दिया और यहाँ ज्ञानवापी नामक सरोवर के स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी थी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन् १७८० में करवाया गया था। बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा १८५३ में १,००० कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा निर्मित या सुशोभित कराया गया था।

हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होँने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्री वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।

सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहाँ प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवं दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है।

विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं।
* दशाश्वेमघ,
* लोलार्ककुण्ड,
* बिन्दुमाधव,
* केशव और
* मणिकर्णिका
और इनहीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है।

भारतीय वर्ण व्यवस्था मे शूद्र को जाने-इतिहास के पन्नो से

सोचिये जरा...!!
जिन लोगो को आज हम, मेहतर, या बाल्मीकि कहते है.जिन्हें सर पर मैला ढोने के कारण अछूत कहा गया जिनको दुत्कारा गया ये लोग चन्द्रवंशी क्षत्रिय हुआ करते थे जिन्होंने मुगलों से हार जाने और बंदी बनने के बाद भी सर पर मैला ढोया कोड़े खाए मगर इस्लाम नहीं कबूला ये सच्चे राष्ट्रवादी और धर्मनिष्ठ थे...
मुसलमानों का अत्याचार सहा हिन्दुओं का उपहास सहा
मगर न राम को भूले न कृष्ण को ये पूज्य नहीं तो और कौन हैं... इनसे बढ़ के हिन्दू कौन है...???
इन्होने अपनी बस्तियों के पास सूअर पाले.. उनसे बिष्ठा साफ करवाया..
मिएँ डर से इनकी बस्तियों पर हमला नहीं करते थे... सूअरों के कारण...
इनकी सेवा करने के लिए इनकी जाति में ही जन्म लेना जरूरी नहीं..
केवल एक करुणामय ह्रदय होना चाहिए...!
मित्रो सच का सामना करो देश के लिए जिन्होंने इतना सहा है उनको उनका हक़ व् सन्मान दो तभी हिंदुत्व बचेगा

यदि कोई इस समाज का हमारे पास आता है, तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। उसे घर के अन्दर नहीं लेते परन्तु जब कोई मुसलमान हमसे मिलता है तो हम उससे बिना झिझक मिलते है जबकि ये मुसलमान तो गद्दार है क्योकि उस समय मुगलों ने जजिया नाम का कर लगाया था जिसमे हिन्दू को अपनी चोटी रखने के लिए जजिया नाम का कर देना होता था जो संपन्न थे वे देदेते थे लेकिन जो दे नहीं पाते थे वो इस्लाम कबूल कर लेते थे आज भारत के सारे मुसलमान इसी तरह हिन्दू से मुसलमान बने है लेकिन कुछ दिलेर लोग थे जिन्होंने न तो कर दिया और न इस्लाम कबूला ये लोग ही आज के वाल्मीकि समाज के है

कालान्तर में ब्राह्मणों के छुआछूत के कारण ईसाई मिशनरीज ने इनको बरगला कर ईसाई बनाने का षडयंत्र किया जब उसके सीर पर एक कटोरा पानी डालकर किसी पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना दिया जिसे बप्तिस्मा कहा जाता फिर वह व्यक्ति कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच सकता है , उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है? इसी कारण अंग्रजो के काल में हिन्दुओ का ईसाई कारण हुआ आज, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग इन भोले भाले अछूत कही जाने वाली जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...
वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है!

उपरोक्त बाते मेने नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर के उपन्यास के आधार पर लिखी है

नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर का, उनके अब तक के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा मौलिक उपन्यास है। इसमें ‘मेहतर’ कहे जानेवाले अछूतों में भी अछूत, अभागे अंत्यजों के चारों ओर कथा का ताना-बाना बुना गया है और उनके अंतरंग जीवन की करुणामयी, रसार्द्र और हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की गई है। ‘मेहतर’ जाति किन सामाजिक परिस्थितियों में अस्तित्व में आई, उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं क्या हैं, आदि प्रश्नों के उत्तर तो दिए ही गए हैं, साथ ही वर्तमान शताब्दी के पूर्वार्द्ध की राष्ट्रीय और सामाजिक हलचलों का दिग्दर्शन भी जीवंतता के साथ कराया गया है। वस्तुतः ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ की कथा का सुंगुम्फन एक बहुत व्यापक कैनवास पर किया गया है।

ढाई-तीन वर्षों के अथक परिश्रम से, विभिन्न मेहतर-बस्तियों के सर्वेक्षण व वहां के निवासियों के ‘इंटरव्यू’ के आधार पर लिखी गई इस बृहद् औपन्यासिक कृति में नागरजी के सहृदय कथाकार और सजग समाजशास्त्री का अद्भुत समन्वय हुआ है।

आईये थोड़ा इतिहास का अवलोकन कर ले

भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल एवं प्राचीन देश है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों के अंतर्गत तकरीबन साढ़े छह हजार जातियां हैं, जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं मेहतर को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है.
मनु महाराज अपने ग्रंथ मनु स्मृति में अध्याय 10 के श्लोक 51 से 56 तक में लिखते हैं कि चांडालों के आवास गांव से बाहर होंगे. उन्हें अपात्र बना देना चाहिए. वे चिह्रित प्रतीकों के जरिये पहचाने जायें, दूसरे लोग उनके संपर्क में न आयें. चांडालों का पात्र टूटा हुआ बरतन होगा, भोजन जूठा व बासी होगा, जो दूसरों द्वारा दिया हुआ होगा. इनका कार्य होगा लावारिस लाशों को दफनाना. संपत्ति होंगे कुत्ते व गधे और वस्त्र होगा मुरदों का उतरन.

पराशर स्मृति (अध्याय- छह, श्लोक - 24) तथा व्यास स्मृति (अध्याय-1 /11, श्लोक - 12) में चांडालों के बारे में लिखा गया है कि अगर कोई व्यक्ति चांडाल, को भूल से भी देख ले तो उसी समय सूर्य की ओर देख ले और स्नान क रे, तभी वह शुद्ध हो सकता है.

इतिहासकार झा और श्रीमाली अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास (पृष्ठ संख्या-310) में लिखते हैं कि जिस प्रकार फाहियान ने पांचवी शताब्दी में अछूतों का वर्णन कि या है, उसी प्रकार ह्वेनसांग ने भी अस्पृश्यता का उल्लेख किया है. वह लिखता है कि कसाई और मेहतर नगर के बाहर ऐसे मकानों में निवास करते थे, जो विशेष चिह्र से जाने जा सकते थे. साधारणत: चांडालों की श्रेणी से मेहतर और डोम नाम की जाति प्रकट हुई, जिनका पेशा सड़कों और गलियों को साफ करना, विष्ठा(मल)उठाना, श्मशान में शवों को दफन करना, अपराधियों को फांसी पर लटकाना और रात में चोरों को पकड़ना था.
एक दूसरे मत के अनुसार गुप्त काल में भूमि हस्तानांतरण अथवा भूमि राजस्व की प्रथा से कायस्थों के रूप में एक नयी जाति का जन्म हुआ, जिन्होंने ब्राह्मणों के लेखन संबंध एकाधिकार को चुनौती देते हुए उनके वर्चस्व को समाप्त कर दिया. यही कारण है कि परवर्ती ब्राह्मण साहित्य में कायस्थों की बड़ी भर्त्सना की गयी है, उन्हें शूद्र तक कहा गया है.

ठीक उसी समय (गुप्त काल) उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गांव के सरदारों और मुखिया की एक श्रेणी उभर कर आयी जो महत्तर कहलाते थे. उन्हें जमीन की अदला-बदली की सूचना दी जाती थी, जो बाद में एक जाति के रू प में परिणत हो गये. संभवत: आज के मेहतर ही गुप्त काल में महत्तर कहलाता हो. और गुप्तकालीन महत्तर का अपभ्रंश होकर आज मेहतर हो गया हो, जिसका आधिपत्य मुखिया और सरदार के रूप में उत्तर भारत के गांवों में रहा होगा. मेहतर समाज के सामाजिक ढांचे में भी पुराने समय से मुखिया और सरदारी प्रथा कायम है जो गुप्त कालीन महत्तर समाज से मेल खाता है. हो सकता है कायस्थों की तरह गुप्त काल में मेहतरों ने भी ब्राह्मणों को चुनौती दी हो और कुपित ब्राह्मणों ने उन्हें भी नीच, पतित और चांडाल घोषित कर समाज से बहिष्कृत कर इनसे शिक्षा और शासन का अधिकार छीन लिया हो. इस तरह मुख्यधारा से कटे तथा समाज से भंग किये हुए लोग कालांतर में इस समाज के कहलाये हों और सजा के तौर पर मानव के मल को ढोने को मजबूर कर दिये गये हों.

विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यता, सिंधु घाटी के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई से भी यह स्पष्ट हो गया है कि उस समय मानव मल ढोने की प्रथा नहीं थी, बल्कि आज की तरह आधुनिक सीवर प्रणाली के शौचालयों का प्रमाण मिलता है. इससे पता चलता है कि मानव से मल ढुलवाने की प्रथा शुरू की नहीं है, बल्कि बाद की है.

ऐसा नहीं है की यह समाज हमेशा से ही गरीब विपन्न था किसी जमाने में मेहतर समाज से भी राजा हुआ करते थे देखिये यह कहानी जिससे पता चलता हैकि इन लोगो का इतिहास बहुत पुराना और गौरव शाली रहा है

जगन्नाथ मन्दिर से जुड़ी ऐसी तमाम कथायें और परम्पराये मन्दिर की मांदरा – पंजी (पंजिका) में दर्ज हैं
इस बार के ओड़िशा प्रवास में हम पुरी से आ रहे हैं यह जानने के बाद ९३ वर्षीय अन्नपूर्णा महाराणा ने पंजी के बारे में तथा इस पंजी में दर्ज कुछ कहानियाँ हमें सुनाई । कहानियाँ सुनाने की उनकी इस अद्भुत क्षमता का लाभ हमें मिल। अपनी आत्मकथा के लिए उन्हें ओड़िशा राज्य साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है । स्वतंत्रता-समर में वानर-सेना में संगठन से उनकी सक्रियता शुरु हुई फिर १९३० से १९४२ के बीच की कई जेल-यात्राओं का लाभ उन्हें मिला । स्वयं ’पण्डों के जगन्नाथ’ मन्दिर में नहीं जातीं क्योंकि गांधी और विनोबा को मंदिर में नहीं जाने दिया गया । इन दोनों को जाने नहीं दिया गया क्योंकि इनके साथ दलित मन्दिर-प्रवेश करते।

सबसे बेहतर मेहतर
पुरी के जगन्नाथ शबर आदिवासियों के पास थे । पुरी के राजा ने उनसे कहा कि वे जगन्नाथ को उन्हें दे दें। साबरों ने इन्कार कर दिया । पुरी की राजा का एक मन्त्री शबर लोगों के राज में जा कर बसा , वहाँ की राज-कन्या से ब्याह रचाया और तब जगन्नाथजी को माँग कर पुरी में बसाया गया। यह समझौता हुआ कि साल में एक माह जगन्नाथ की सेवा-टहल शबर ही करेंगे । जिस पेड़ की लकड़ी से प्रतिमा बनाई जाती है उसकी तलाश आज भी साबर ही करते हैं । यह परम्परा आज भी चली आ रही है ।
कांची की राज कन्या अपरूपा थी । पुरी के राजा ने राजदूत भेज कर उससे विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। कांची के राजा ने यह कह कर प्रस्ताव नामंजूर कर दिया कि पुरी का राजा तो मेहतर है , झाड़ू लगाता है । कांची के राजा के मन्त्री ने रथ यात्रा के सामने पुरी के राजा को झाड़ू लगाते देखा था।

पुरी के राजा ने तय किया कि वह कांची पर आक्रमण करेगा। राजा ने अपने आराध्य देवता से प्रार्थना की कि वे इस युद्ध में उसका साथ दें । कहा जाता है कि जगन्नाथ और बलभद्र ने भी राजा का साथ दिया । मन्दिर में खुदे एक शिल्प में दोनों भाइयों को घोड़ों पर सवार दिखाया भी गया है । श्यामवर्णी जगन्नाथ और गौर बलभद्र । दोनों भाई जब पुरी के निकट मानिक पटना पहुंचे तब उन्हें प्यास लगी । वहां एक बुढ़िया से उन्होंने पानी माँगा । बुढ़िया ने पानी के बजाए उन्हें दही दिया। इस इन भाइयों की पास चूँकि पैसे नहीं थे इसलिए जगन्नाथ ने उसे अपनी अँगूठी दे दी । वृद्धा का नाम मनिका था। गांव का नाम इन्हीं के नाम से मानिक पटना पड़ा । मानिक पटना का दही आज भी प्रसिद्ध है ।

कांची में हुए युद्ध में पुरी नरेश की सेना पराजित हो रही थी । जगन्नाथ – बलभद्र भी हार गये। जगन्नाथ के ३६ सेवकों ने तब युद्ध की अनुमति मांगी। यह सेवक खण्डायत ( क्षत्रीय ) न थे इसलिए युद्ध में भाग नहीं ले रहे थे। कोई सिर की मालिश करने वाला ,कोई हाथ दबाने वाला , कोई चरणकमलरजधूलिदास-ऐसे ही कुल ३६ सेवक ! राजा ने इन ३६ सेवकों को युद्ध करने की इजाजत दे दी । इन्होंने राजा को जिता दिया ।

कांची की राज-कन्या को लेकर पुरी राजा लौटे । रास्ते में मानिक पटना में उसी बुढ़िया ने जगन्नाथ की दी हुई अंगूठी राजा को देकर पैसे पा लिए ।राजा ने अपने मन्त्री को कहा कि विजित राज-कन्या को ले जाये तथा योग्यतम मेहतर देख कर उसका ब्याह दे दे । मन्त्री भारी सोच में पड़ गया । आखिरकार उसने रथयात्रा के सामने जब राजा झाड़ू लगा रहा था उसी समय राजा के गले में जयमाल डालने के लिए कहा । इस प्रकार योग्यतम मेहतर से कांची की राज-कन्या पद्मावती का विवाह सम्पन्न हुआ।
पुरी में धूम-धाम से जश्न मनाया गया । तमाम योद्धाओं को राजा ने सम्मानित किया । उन ३६ सेवकों ने भी राजा से कहा कि हमें भी सम्मानित किया जाए । राजा ने मन्त्री से पूछा कि इन्हें कैसे सम्मानित किया जाए ? मन्त्री ने सलाह दी कि उन्हें खण्डायत घोषित किया जाए । राजा ने ऐसा ही किया । वे तेली खण्डायत , नाऊ खण्डायत जैसे नामों से जाने गये ।

 1857 क्रांति के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष की लगातार उपेक्षा की गई है

'इतिहास वह नहीं होता जो हम पढ़ते हैं बल्कि इतिहास अतीत के साथ संवाद का दूसरा नाम है। इतिहास जिस तरह से हमें पढ़ाया गया है उससे हम अपने अतीत को सही तरीके से नहीं देख सकते। 1857 की क्रांति का यदि मूल्यांकन करें उस पर पुनर्विचार करें तो हम देखेंगे कि इस क्रांति के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष की लगातार उपेक्षा की गई है। मातादीन हेला, लाजो, गंगादीन मेहतर, बिजली पासी, झलकारी बाई, अवंतीबाई लोधी, उदा देवी आदि अवर्ण योध्दाओं, वीरांगनाओं की भूमिका को हमने कम करके आंका है। यहां तक कि उस पर पर्दा डालने की लगातार कोशिश की गई है जबकि उनकी सहभागिता उल्लेखनीय थी और उनके बहादुरी की गाथायें इतने सालों बाद भी जनमानस में, लोक कथाओं में मौजूद हैं'। यह उद्गार थे सुभाष गाताडे के|
म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ की शिवपुरी इकाई द्वारा शहीद तात्याटोपे मेला मंच पर '1857 की क्रांति में दलित एवं आदिवासियों के योगदान' विषय पर
आयोजित विचार गोष्ठी में सामाजिक चिंतक, लेखक, पत्रकार सुभाष गाताडे ने आगे कहा पर मंजर यह है कि दलितों की दावेदारी सियासत में बढ़ी तभी हमने उसे इतिहास में रेखांकित किया है। समय के साथ अतीत बदलता जाता है। हमें इतिहास की विवेचना करनी चाहिये। राष्ट्रवादी विमर्श की कुछ सीमायें हैं। वर्णाश्रमी आग्रहों को नजरअंदाज कर ही हम 1857 क्रांति की सही विवेचना कर पायेंगे। क्यों दलित आदिवासी 1857 विमर्श से गायब हो गये? मातादीन हेला, लाजो, गंगू मेहतर के नाम क्यों कोई नहीं जानता? ये कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें खोजना होंगे। इतिहास को रिकवर करना पड़ेगा तभी हम 1857 महासमर के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष के साथ इंसाफ कर पायेंगे। 1857 क्रांति के विरोधभासी चरित्र और क्रांति की विफलता की समीक्षा करते हुये श्री गाताडे ने आगे कहा सामंती राजा-महाराजाओं के उस समय के यदि घोषणा पत्र देंखे तो हमें मालूम चलेगा कि वह किस तरह का समाज बनाना चाहते थे। घोषणा में कई बातें प्रतिक्रियावादी थीं और इस हकीकत से कौन इनकार कर सकता है कि जिन 8-10 लोगों के नाम क्रांति में प्रमुखता से आते हैं उनमें से कई लोगों ने बाद में अंग्रेजों के दरबार में माफी की गुहार लगाई थी

विचार

आज इस समत्व की आवश्यकता सबसे अधिक सामाजिक क्षेत्र में है। भारतीय समाज की अवधारणा व प्रयोजन आनंद की प्राप्ति है। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में व्याप्त विभिन्न दृष्टिकोणों और प्रयोजनों में समतुल्यता हो अर्थात् समाज में कोई विचारधारा विशेष न तो अतिशय उग्र हो और न अत्यंत क्षीण या निर्बल हो। धनी-निर्धन, अभिजात वर्ग तथा जनसाधारण, ग्राम्य और नगर के बीच की दूरी कम हो। स्वार्थ लोलुपता न हो। स्व और आत्म का... चेतनायुक्त विकास महत्वपूर्ण है। यहा बाहरी दुनिया को, समाज को अपने अंतस का सर्वश्रेष्ठ दिए जाने का संकल्प है। हमारे वेदों और साहित्य में प्रयुक्त श्लोक, सूक्ति, ऋचा, मंत्र और दोहे-चौपाई, इसी कल्याणकारी भावना से भरे-पूरे हैं। यह भाव मानवता का संचार करता है और चेतना का अहर्निश विस्तार। गोस्वामी तुलसीदास, वाल्मीकि आज इसीलिए अमर हैं, क्योंकि उन्होंने राम के रूप में एक ऐसा आदर्श हमारे सामने रखा, जिसने जीवन के हर क्षेत्र में समरसता का उदाहरण प्रस्तुत किया। महात्मा गाधी के नेतृत्व में स्वाधीनता की प्राप्ति हेतु देशवासियों ने अपनी निजी सत्ता, धर्म-सत्ता तथा अर्थ-सत्ता का सामूहिकता में लोप कर दिया था। हमारे यहा एक नहीं महापुरुषों के ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जिन्होंने समाज के लिए अपने जीवन को अर्पित कर दिया

आरोग्यनिधि

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में इन तीन बातों की अत्यधिक आवश्यकता होती है – स्वस्थ जीवन, सुखी जीवन तथा सम्मानित जीवन। सुख का आधार स्वास्थ्य है तथा सुखी जीवन ही सम्मान के योग्य है।
...
उत्तम स्वास्थ्य का आधार है यथा योग्य आहार-विहार एवं विवेकपूर्वक व्यवस्थित जीवन। बाह्य चकाचौंध की ओर अधिक आकर्षित होकर हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं इसलिए हमारा शरीर रोगों का घर बनता जा रहा है।

‘चरक संहिता’ में कहा गया हैः

आहाराचारचेष्टासु सुखार्थी प्रेत्य चेह च।
परं प्रयत्नमातिष्ठेद् बुद्धिमान हित सेवने।।
'इस संसार में सुखी जीवन की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान व्यक्ति आहार-विहार, आचार और चेष्टाएँ हितकारक रखने का प्रयत्न करें।'

उचित आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य – ये तीनों वात, पित्त और कफ को समान रखते हुए शरीर को स्वस्थ व निरोग बनाये रखते हैं, इसीलिए इन तीनों को उपस्तम्भ माना गया है। अतः आरोग्य के लिए इन तीनों का पालन अनिवार्य है।

यह एक सुखद बात है कि आज समग्र विश्व में भारतीय के आयुर्वेद के प्रति श्रद्धा, निष्ठा व जिज्ञासा बढ़ रही है क्योंकि श्रेष्ठ जीवन-पद्धति का जो ज्ञान आयुर्वेद ने इस विश्व को दिया है, वह अद्वितीय है। अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ केवल रोग तक ही सीमित हैं लेकिन आयुर्वेद ने जीवन के सभी पहलुओं को छुआ है। धर्म, आत्मा, मन, शरीर, कर्म इत्यादि सभी विषय आयुर्वेद के क्षेत्रान्तर्गत आते हैं।

आयुर्वेद में निर्दिष्ट सिद्धान्तों का पालन कर के हम रोगों से बच सकते हैं, फिर भी यदि रोगग्रस्त हो जावें तो यथासंभव एलोपैथिक दवाइयों का प्रयोग न करें क्योंकि ये रोग को दूर करके 'साइड इफेक्ट' के रूप में अन्य रोगों का कारण बनती हैं।

श्री योग वेदान्त सेवा समिति ने प्रस्तुत पुस्तक में आयुर्वेद के विभिन्न अनुभूत नुस्खों का संकलन कर ऐसी जानकारी देने का प्रयास किया है जिससे आप घर बैठे ही विभिन्न रोगों का प्राथमिक उपचार कर सकें। आशा है आप इसका भरपूर लाभ लेंगे।

विनीत,
श्री योग वेदान्त सेवा समिति,
अमदावाद आश्रम।
 

कैसे हुई स्थूल जगत की रचना

 जल तत्त्व
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चेतन, आकाश, वायु तथा तेज द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न एक द्रव विशेष ही जल है। दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग आक्सीजन के मेल से उत्पन्न द्रव पदार्थ जल(H २O ) है।
... गुण – शुक्र, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार ये पाँच जल तत्त्व के गुण हैं। शरीर संचालन हेतु वायु के समान ही रक्त की भी आवश्यकता होती है और रक्त जल के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। यही कारण है कि संचालन में जलतत्त्व की भी एक विशेष भूमिका होती है।
रस - जल तथा जल से युक्त वस्तु की यथार्थतः पहचान करने वाले विषय को रस कहते हैं।
यह बात भी सत्य है कि आकाश, वायु, तथा तेज इन तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के मेल से उत्पन्न चौथा पदार्थ जल (H २O ) है। इसी कारण यह भी सत्य है कि तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के गुण व विषय भी जल पदार्थ में समाहित हों अर्थात् जल की जानकारी शब्द, स्पर्श, रूप आदि के माध्यम से भी इनकी अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा हो सकती है परन्तु स्पष्टतः पहचान रस से ही होगी क्योंकि रस जल मात्र का ही अपना विशेष विषय है।
अतः “जलतत्त्व की यथार्थतः पहचान कराने वाला विषय मात्र ही रस है।”
रसना (जीभ)- जल तथा जल से युक्त पदार्थ की यथार्थ जानकारी तथा पहचान कराने वाले रस को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही रसना है। चूंकि जल में आकाश, वायु तथा तेज तत्त्व भी समाहित रहता है क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इन उपर्युक्त तीनों पदार्थों के गुण व विषय का होना स्वाभाविक ही है। इसलिए जल को हम शब्द, स्पर्श रूप के माध्यम से कर्ण, त्वचा, चक्षु के द्वारा भी जान सकते। अतः रस व रसना ही जल का अपना विषय व ज्ञानेन्द्रिय है जिसके माध्यम से ही जल की यथार्थता की जानकारी व पहचान होती है अन्य से नहीं।
लिंग- यह वह इन्द्रिय है जो जल के माध्यम से शरीर की गंदगी को साफ करते हुये गंदगी से युक्त जल (शुक्र, मूत्र आदि) को बाहर कर देती है। इसीलिए इसे कर्मेन्द्रिय कहते हैं। यह (लिंग) जल तथा जल से युक्त पदार्थों के त्याग के द्वारा अपने प्रधान ज्ञानेन्द्रिय रसना को जल की शुद्धता-अशुद्धता के ज्ञान तथा ग्रहण करने में सहयोग प्रदान करता है। चूंकि लिंग का अभीष्ट देवता प्रजापति होता है, इसलिए यह शुक्र के त्याग द्वारा प्रजाओं की उत्पत्ति में भी एक मात्र सहयोगी का कार्य करता है जो सामान्य स्थिति में इसके बिना असम्भव होता है।
 

पृथ्वी तत्त्व
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“चेतन, आकाश, वायु, तेज, जल द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न ठोस पदार्थ ही पृथ्वी तत्त्व है।”
... पृथ्वी वह पदार्थ है जो उपर्युक्त चारों पदार्थों तथा उन चारों की संयुक्त क्रियाशीलता से उत्पन्न पाँचवाँ पदार्थ जो ठोस रूप में ही हो, साथ ही जिसमें सभी विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गन्ध से युक्त हो तथा जिसकी जानकारी में भी समस्त इंद्रियाँ सहयोगी हों, वही पदार्थ पृथ्वी तत्त्व है।

गुण- शरीर में अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी और रोम ये पाँच गुण पृथ्वी तत्त्व के हैं।

गन्ध- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित विषयों की यथार्थ जानकारी एवं पहचान कराने वाला विषय ही गन्ध है। हालांकि जानकारी के सभी विषय- शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस भी गन्ध में समाहित होते हैं फिर भी गन्ध के बिना पृथ्वी तत्त्व की जानकारी व पहचान पूर्ण नहीं मानी जा सकती क्योंकि इसका अपना विशेष विषय गन्ध ही है। इसलिए जब तक गन्ध की स्वीकारोक्ति नहीं होती, तब तक पृथ्वी तत्त्व को उसकी मान्यता नहीं मिल सकती।

नाक- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित वस्तुओं की जानकारी और पहचान कराने वाले विषय (गन्ध) को पकड़ने वाली (जानकारी कराने वाली) इन्द्रिय ही नाक है। यह इन्द्रिय मात्र जानकारी करने-कराने का ही कार्य करती है। इसीलिए इसे ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम एवं पाँचवाँ स्थान है।
नाक गन्ध लेने के अतिरिक्त एक ऐसा कार्य भी करती है जो शरीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है, वह कार्य है स्वास लेना व छोड़ना। स्वास-प्रस्वास वह क्रिया है जिसके माध्यम से शक्ति (प्राण-शक्ति) शरीर में प्रवेश करती व बाहर आती-जाती रहती है। जिससे समस्त प्राणियों का जीवन कायम रहता है, यह स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया नाक से ही होती रहती है जिसको योगी, ऋषि-महर्षि आदि साधना के माध्यम से स्वांस-प्रस्वांस से प्रवेश व निकास वाली शक्ति को अनुभव के द्वारा पकड़ते हैं, जो अजपा-जप या अजपा गायत्री रूप हँसो, सोsहं है तथा वैज्ञानिकगण उसी प्राण वायु को मात्र बाह्य जानकारी के आधार पर आक्सीजन (O २) और कार्बन डाई आक्साइड (C O २) बताते हैं। परन्तु दोनों आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ही एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं की जीवनी-शक्ति (जीवन) हेतु शरीर में स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्रिया है जो नाक द्वारा होती है।
अतः समस्त ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम व पाँचवाँ स्थान होने के बावजूद भी अपना एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। जिसके कारण महत्व एवं श्रेणी में रखने पर नाक समस्त ज्ञानेन्द्रियों में अन्तिम होने के बावजूद भी प्रथम स्थान पर है। इसे प्रथम कहा जाय या अन्तिम अथवा अन्तिम कहा जाय या प्रथम दोनों ही उपयुक्त हैं।

गुदा- गुदा वह कर्मेन्द्रिय है जिसका पृथ्वी तथा पृथ्वी तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं से सार रहित तथा विकार से युक्त पदार्थ (मल) को शरीर से बाहर करना होता है जिससे कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु सार युक्त पदार्थ पुनः पहुँचकर अपना कार्य करता रहे।
क्रमशः .......
---------संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
 

जय माता की

जम्मू कश्मीर में जहां वैष्णो माता विराजमान है, वह एक मनमोहक स्थल है, मां वैष्णो देवी का यह प्रसिद्ध दरबार हिन्दू धर्मावलम्बियों का एक प्रमुख तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ 51 शक्तिपीठों में से एक मानी जाती हैं, माता वैष्णो ज्ञान, वैभव और बल का सामुहिक रुप है. क्योंकि यहां आदिशक्ति के तीन रुप हैं मां गुफा में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती पिंडी रूप में स्थापित हैं.. पहली महासरस्वती... जो ज्ञान की देवी हैं, दूसरी महालक्ष्मी जो धन-वैभव की देवी और तीसरी महाकाली या दुर्गा शक्ति स्वरुपा मानी जाती है,वैष्णो देवी की इस पवित्र यात्रा के दौरान भक्तगण देवामाई, बाण गंगा, चरण पादुका, गर्भ जून गुफा, भैरव मंदिर आदि तीर्थों के भी दर्शन का लाभ उठाते हैं. यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है। इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल द्वारा की जाती है.जहाँ दूर-दूर से लाखों श्रद्धालु माँ के दर्शन के लिए आते हैं. यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है.