गुरुवार, 19 जुलाई 2012

दुर्गासप्तसती पाठ की परंपरा

 सप्तसती पाठ कैसे करें क्योंकि वह कीलित है !अतः शापोद्धार और उत्कीलन आवश्यक है सप्तसतीसर्वस्व और कात्यायनी तंत्र में इस विषय का विशेष विवेचन किया गया है वहाँ शापोद्धार मन्त्र ---ओंह्रीं---कुरु स्वाहा ,तथा उत्कीलन मन्त्र –ओं श्रीं---स्वाहा का क्रमशः जप कहा गया है किन्तु कुछ लोग उत्कीलन तथा शापोद्धार के विना पाठ करते हैं उन्हें लाभ होगा या नहीं –इस प्रकारक...ा प्रश्न मंच कि ओरसे अनिरुद्ध राठौर ने किया था !
इस विषय में गीता प्रेस के विद्वानों की सम्मति क्या है इसे उनकी सप्तसती की पुस्तक से जान सकते हैं ! यहाँ जो विशेष ग्रन्थ और साधकों के अनुभव है उनके आधार पर लिखा जा रहा है !अनुष्ठान प्रकाश के अनुसार ओं का उच्चारण करके कवच अर्गला कीलक पढकर चंडी पाठ का विधान बतलाया गया है—पृष्ठ २१८ ,यहाँ शापोद्धार एवं उत्कीलन कि चर्चा नहीं है ! हमारे विश्वविद्यालय में व्याकरण पीठाध्यक्ष श्रीबद्रीप्रसाद प्रपूरणा जी जो ९५ वर्ष के हो चुके है वे बताए कि उनकी परम्परा में भी शापोद्धार एवं उत्कीलन नहीं है !वे कहते है कि वैदिक परंपरा के अनुसार इसकी कोई आवश्यकता नहीं है !ब्रह्मगायत्री जप में भी मुद्रा एवं शाप विमोचन अनिवार्य नहीं है !जो करते है वे लोग तांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रहे है ,परमात्मा को कोई शापित कर सके यह सामर्थ्य किसी में नहीं है !भृगु जी ने विष्णु भगवान को शाप दिया उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो उनकी आराधना करके भृगु जी भगवान से शाप स्वीकार करने का वर मांगे ,अतः शाप के असम्भव होने से शापोद्धार की आवश्यकता नहीं है !प्रपूरणा जी मुझे बतलाये कि जब वे ८० वर्ष पूर्व काशी में पढ़ रहे थे तो उनके व्याकरण के गुरुदेव मैथिल श्री श्रीकान्तझा जी जो बंगाल के थे वे प्रतिदिन सप्तसती का पाठ मात्र १३ अध्यायों का ही करते थे !शापोद्धार और उत्कीलन की बात क्या, वे तो कवच अर्गला और कीलक भी नहीं करते थे !और उन्हें सप्तसती ऐसी सिद्ध थी कि जब वे सप्तसती के “गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत् पिबाम्यहम् ---“अ03/38,इस मन्त्र का उच्चारण करते समय मधु (शहद) की धारा भी गिराते जाते थे उस समय अग्नि स्वयं प्रकट हो जाती थी और उसके द्वारा मधु को जगदम्बिका भगवती स्वयं ग्रहण करती थीं !और मन्त्र के अंतिम शब्द देवताः का जब उच्चारण समाप्त करते थे तब अग्नि देव भी अंतर्धान हो जाते थे ! इस प्रकार के वे बीच में प्रतिदिन करते थे !उन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं !प्रपूरणा जी अभी भी विश्वविद्यालय में मेरे आवास के पास ही रहते है !(अनिरुद्ध राठौर प्रश्नकर्ता मेरे विश्वविद्यालय का ही नहीं अपितु मेरा प्रिय छात्र भी है!समयाभाव के कारण विलम्ब से उत्तर किया गया है !)
--इससे यह निष्कर्ष निकला कि सप्तसती का पाठ शापोद्धार और उत्कीलन के विना भी सिद्धिप्रद है !किन्तु जो जिस परम्परा से जो पद्धति प्राप्त कर चुका है उसे उसी का पालन अनिवार्य है –जय मातःदुर्गे ---जय श्रीराम

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