गुरुवार, 19 जुलाई 2012

भारतीय वर्ण व्यवस्था मे शूद्र को जाने-इतिहास के पन्नो से

सोचिये जरा...!!
जिन लोगो को आज हम, मेहतर, या बाल्मीकि कहते है.जिन्हें सर पर मैला ढोने के कारण अछूत कहा गया जिनको दुत्कारा गया ये लोग चन्द्रवंशी क्षत्रिय हुआ करते थे जिन्होंने मुगलों से हार जाने और बंदी बनने के बाद भी सर पर मैला ढोया कोड़े खाए मगर इस्लाम नहीं कबूला ये सच्चे राष्ट्रवादी और धर्मनिष्ठ थे...
मुसलमानों का अत्याचार सहा हिन्दुओं का उपहास सहा
मगर न राम को भूले न कृष्ण को ये पूज्य नहीं तो और कौन हैं... इनसे बढ़ के हिन्दू कौन है...???
इन्होने अपनी बस्तियों के पास सूअर पाले.. उनसे बिष्ठा साफ करवाया..
मिएँ डर से इनकी बस्तियों पर हमला नहीं करते थे... सूअरों के कारण...
इनकी सेवा करने के लिए इनकी जाति में ही जन्म लेना जरूरी नहीं..
केवल एक करुणामय ह्रदय होना चाहिए...!
मित्रो सच का सामना करो देश के लिए जिन्होंने इतना सहा है उनको उनका हक़ व् सन्मान दो तभी हिंदुत्व बचेगा

यदि कोई इस समाज का हमारे पास आता है, तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। उसे घर के अन्दर नहीं लेते परन्तु जब कोई मुसलमान हमसे मिलता है तो हम उससे बिना झिझक मिलते है जबकि ये मुसलमान तो गद्दार है क्योकि उस समय मुगलों ने जजिया नाम का कर लगाया था जिसमे हिन्दू को अपनी चोटी रखने के लिए जजिया नाम का कर देना होता था जो संपन्न थे वे देदेते थे लेकिन जो दे नहीं पाते थे वो इस्लाम कबूल कर लेते थे आज भारत के सारे मुसलमान इसी तरह हिन्दू से मुसलमान बने है लेकिन कुछ दिलेर लोग थे जिन्होंने न तो कर दिया और न इस्लाम कबूला ये लोग ही आज के वाल्मीकि समाज के है

कालान्तर में ब्राह्मणों के छुआछूत के कारण ईसाई मिशनरीज ने इनको बरगला कर ईसाई बनाने का षडयंत्र किया जब उसके सीर पर एक कटोरा पानी डालकर किसी पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना दिया जिसे बप्तिस्मा कहा जाता फिर वह व्यक्ति कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच सकता है , उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है? इसी कारण अंग्रजो के काल में हिन्दुओ का ईसाई कारण हुआ आज, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग इन भोले भाले अछूत कही जाने वाली जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...
वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है!

उपरोक्त बाते मेने नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर के उपन्यास के आधार पर लिखी है

नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर का, उनके अब तक के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा मौलिक उपन्यास है। इसमें ‘मेहतर’ कहे जानेवाले अछूतों में भी अछूत, अभागे अंत्यजों के चारों ओर कथा का ताना-बाना बुना गया है और उनके अंतरंग जीवन की करुणामयी, रसार्द्र और हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की गई है। ‘मेहतर’ जाति किन सामाजिक परिस्थितियों में अस्तित्व में आई, उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं क्या हैं, आदि प्रश्नों के उत्तर तो दिए ही गए हैं, साथ ही वर्तमान शताब्दी के पूर्वार्द्ध की राष्ट्रीय और सामाजिक हलचलों का दिग्दर्शन भी जीवंतता के साथ कराया गया है। वस्तुतः ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ की कथा का सुंगुम्फन एक बहुत व्यापक कैनवास पर किया गया है।

ढाई-तीन वर्षों के अथक परिश्रम से, विभिन्न मेहतर-बस्तियों के सर्वेक्षण व वहां के निवासियों के ‘इंटरव्यू’ के आधार पर लिखी गई इस बृहद् औपन्यासिक कृति में नागरजी के सहृदय कथाकार और सजग समाजशास्त्री का अद्भुत समन्वय हुआ है।

आईये थोड़ा इतिहास का अवलोकन कर ले

भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल एवं प्राचीन देश है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों के अंतर्गत तकरीबन साढ़े छह हजार जातियां हैं, जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं मेहतर को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है.
मनु महाराज अपने ग्रंथ मनु स्मृति में अध्याय 10 के श्लोक 51 से 56 तक में लिखते हैं कि चांडालों के आवास गांव से बाहर होंगे. उन्हें अपात्र बना देना चाहिए. वे चिह्रित प्रतीकों के जरिये पहचाने जायें, दूसरे लोग उनके संपर्क में न आयें. चांडालों का पात्र टूटा हुआ बरतन होगा, भोजन जूठा व बासी होगा, जो दूसरों द्वारा दिया हुआ होगा. इनका कार्य होगा लावारिस लाशों को दफनाना. संपत्ति होंगे कुत्ते व गधे और वस्त्र होगा मुरदों का उतरन.

पराशर स्मृति (अध्याय- छह, श्लोक - 24) तथा व्यास स्मृति (अध्याय-1 /11, श्लोक - 12) में चांडालों के बारे में लिखा गया है कि अगर कोई व्यक्ति चांडाल, को भूल से भी देख ले तो उसी समय सूर्य की ओर देख ले और स्नान क रे, तभी वह शुद्ध हो सकता है.

इतिहासकार झा और श्रीमाली अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास (पृष्ठ संख्या-310) में लिखते हैं कि जिस प्रकार फाहियान ने पांचवी शताब्दी में अछूतों का वर्णन कि या है, उसी प्रकार ह्वेनसांग ने भी अस्पृश्यता का उल्लेख किया है. वह लिखता है कि कसाई और मेहतर नगर के बाहर ऐसे मकानों में निवास करते थे, जो विशेष चिह्र से जाने जा सकते थे. साधारणत: चांडालों की श्रेणी से मेहतर और डोम नाम की जाति प्रकट हुई, जिनका पेशा सड़कों और गलियों को साफ करना, विष्ठा(मल)उठाना, श्मशान में शवों को दफन करना, अपराधियों को फांसी पर लटकाना और रात में चोरों को पकड़ना था.
एक दूसरे मत के अनुसार गुप्त काल में भूमि हस्तानांतरण अथवा भूमि राजस्व की प्रथा से कायस्थों के रूप में एक नयी जाति का जन्म हुआ, जिन्होंने ब्राह्मणों के लेखन संबंध एकाधिकार को चुनौती देते हुए उनके वर्चस्व को समाप्त कर दिया. यही कारण है कि परवर्ती ब्राह्मण साहित्य में कायस्थों की बड़ी भर्त्सना की गयी है, उन्हें शूद्र तक कहा गया है.

ठीक उसी समय (गुप्त काल) उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गांव के सरदारों और मुखिया की एक श्रेणी उभर कर आयी जो महत्तर कहलाते थे. उन्हें जमीन की अदला-बदली की सूचना दी जाती थी, जो बाद में एक जाति के रू प में परिणत हो गये. संभवत: आज के मेहतर ही गुप्त काल में महत्तर कहलाता हो. और गुप्तकालीन महत्तर का अपभ्रंश होकर आज मेहतर हो गया हो, जिसका आधिपत्य मुखिया और सरदार के रूप में उत्तर भारत के गांवों में रहा होगा. मेहतर समाज के सामाजिक ढांचे में भी पुराने समय से मुखिया और सरदारी प्रथा कायम है जो गुप्त कालीन महत्तर समाज से मेल खाता है. हो सकता है कायस्थों की तरह गुप्त काल में मेहतरों ने भी ब्राह्मणों को चुनौती दी हो और कुपित ब्राह्मणों ने उन्हें भी नीच, पतित और चांडाल घोषित कर समाज से बहिष्कृत कर इनसे शिक्षा और शासन का अधिकार छीन लिया हो. इस तरह मुख्यधारा से कटे तथा समाज से भंग किये हुए लोग कालांतर में इस समाज के कहलाये हों और सजा के तौर पर मानव के मल को ढोने को मजबूर कर दिये गये हों.

विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यता, सिंधु घाटी के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई से भी यह स्पष्ट हो गया है कि उस समय मानव मल ढोने की प्रथा नहीं थी, बल्कि आज की तरह आधुनिक सीवर प्रणाली के शौचालयों का प्रमाण मिलता है. इससे पता चलता है कि मानव से मल ढुलवाने की प्रथा शुरू की नहीं है, बल्कि बाद की है.

ऐसा नहीं है की यह समाज हमेशा से ही गरीब विपन्न था किसी जमाने में मेहतर समाज से भी राजा हुआ करते थे देखिये यह कहानी जिससे पता चलता हैकि इन लोगो का इतिहास बहुत पुराना और गौरव शाली रहा है

जगन्नाथ मन्दिर से जुड़ी ऐसी तमाम कथायें और परम्पराये मन्दिर की मांदरा – पंजी (पंजिका) में दर्ज हैं
इस बार के ओड़िशा प्रवास में हम पुरी से आ रहे हैं यह जानने के बाद ९३ वर्षीय अन्नपूर्णा महाराणा ने पंजी के बारे में तथा इस पंजी में दर्ज कुछ कहानियाँ हमें सुनाई । कहानियाँ सुनाने की उनकी इस अद्भुत क्षमता का लाभ हमें मिल। अपनी आत्मकथा के लिए उन्हें ओड़िशा राज्य साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है । स्वतंत्रता-समर में वानर-सेना में संगठन से उनकी सक्रियता शुरु हुई फिर १९३० से १९४२ के बीच की कई जेल-यात्राओं का लाभ उन्हें मिला । स्वयं ’पण्डों के जगन्नाथ’ मन्दिर में नहीं जातीं क्योंकि गांधी और विनोबा को मंदिर में नहीं जाने दिया गया । इन दोनों को जाने नहीं दिया गया क्योंकि इनके साथ दलित मन्दिर-प्रवेश करते।

सबसे बेहतर मेहतर
पुरी के जगन्नाथ शबर आदिवासियों के पास थे । पुरी के राजा ने उनसे कहा कि वे जगन्नाथ को उन्हें दे दें। साबरों ने इन्कार कर दिया । पुरी की राजा का एक मन्त्री शबर लोगों के राज में जा कर बसा , वहाँ की राज-कन्या से ब्याह रचाया और तब जगन्नाथजी को माँग कर पुरी में बसाया गया। यह समझौता हुआ कि साल में एक माह जगन्नाथ की सेवा-टहल शबर ही करेंगे । जिस पेड़ की लकड़ी से प्रतिमा बनाई जाती है उसकी तलाश आज भी साबर ही करते हैं । यह परम्परा आज भी चली आ रही है ।
कांची की राज कन्या अपरूपा थी । पुरी के राजा ने राजदूत भेज कर उससे विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। कांची के राजा ने यह कह कर प्रस्ताव नामंजूर कर दिया कि पुरी का राजा तो मेहतर है , झाड़ू लगाता है । कांची के राजा के मन्त्री ने रथ यात्रा के सामने पुरी के राजा को झाड़ू लगाते देखा था।

पुरी के राजा ने तय किया कि वह कांची पर आक्रमण करेगा। राजा ने अपने आराध्य देवता से प्रार्थना की कि वे इस युद्ध में उसका साथ दें । कहा जाता है कि जगन्नाथ और बलभद्र ने भी राजा का साथ दिया । मन्दिर में खुदे एक शिल्प में दोनों भाइयों को घोड़ों पर सवार दिखाया भी गया है । श्यामवर्णी जगन्नाथ और गौर बलभद्र । दोनों भाई जब पुरी के निकट मानिक पटना पहुंचे तब उन्हें प्यास लगी । वहां एक बुढ़िया से उन्होंने पानी माँगा । बुढ़िया ने पानी के बजाए उन्हें दही दिया। इस इन भाइयों की पास चूँकि पैसे नहीं थे इसलिए जगन्नाथ ने उसे अपनी अँगूठी दे दी । वृद्धा का नाम मनिका था। गांव का नाम इन्हीं के नाम से मानिक पटना पड़ा । मानिक पटना का दही आज भी प्रसिद्ध है ।

कांची में हुए युद्ध में पुरी नरेश की सेना पराजित हो रही थी । जगन्नाथ – बलभद्र भी हार गये। जगन्नाथ के ३६ सेवकों ने तब युद्ध की अनुमति मांगी। यह सेवक खण्डायत ( क्षत्रीय ) न थे इसलिए युद्ध में भाग नहीं ले रहे थे। कोई सिर की मालिश करने वाला ,कोई हाथ दबाने वाला , कोई चरणकमलरजधूलिदास-ऐसे ही कुल ३६ सेवक ! राजा ने इन ३६ सेवकों को युद्ध करने की इजाजत दे दी । इन्होंने राजा को जिता दिया ।

कांची की राज-कन्या को लेकर पुरी राजा लौटे । रास्ते में मानिक पटना में उसी बुढ़िया ने जगन्नाथ की दी हुई अंगूठी राजा को देकर पैसे पा लिए ।राजा ने अपने मन्त्री को कहा कि विजित राज-कन्या को ले जाये तथा योग्यतम मेहतर देख कर उसका ब्याह दे दे । मन्त्री भारी सोच में पड़ गया । आखिरकार उसने रथयात्रा के सामने जब राजा झाड़ू लगा रहा था उसी समय राजा के गले में जयमाल डालने के लिए कहा । इस प्रकार योग्यतम मेहतर से कांची की राज-कन्या पद्मावती का विवाह सम्पन्न हुआ।
पुरी में धूम-धाम से जश्न मनाया गया । तमाम योद्धाओं को राजा ने सम्मानित किया । उन ३६ सेवकों ने भी राजा से कहा कि हमें भी सम्मानित किया जाए । राजा ने मन्त्री से पूछा कि इन्हें कैसे सम्मानित किया जाए ? मन्त्री ने सलाह दी कि उन्हें खण्डायत घोषित किया जाए । राजा ने ऐसा ही किया । वे तेली खण्डायत , नाऊ खण्डायत जैसे नामों से जाने गये ।

 1857 क्रांति के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष की लगातार उपेक्षा की गई है

'इतिहास वह नहीं होता जो हम पढ़ते हैं बल्कि इतिहास अतीत के साथ संवाद का दूसरा नाम है। इतिहास जिस तरह से हमें पढ़ाया गया है उससे हम अपने अतीत को सही तरीके से नहीं देख सकते। 1857 की क्रांति का यदि मूल्यांकन करें उस पर पुनर्विचार करें तो हम देखेंगे कि इस क्रांति के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष की लगातार उपेक्षा की गई है। मातादीन हेला, लाजो, गंगादीन मेहतर, बिजली पासी, झलकारी बाई, अवंतीबाई लोधी, उदा देवी आदि अवर्ण योध्दाओं, वीरांगनाओं की भूमिका को हमने कम करके आंका है। यहां तक कि उस पर पर्दा डालने की लगातार कोशिश की गई है जबकि उनकी सहभागिता उल्लेखनीय थी और उनके बहादुरी की गाथायें इतने सालों बाद भी जनमानस में, लोक कथाओं में मौजूद हैं'। यह उद्गार थे सुभाष गाताडे के|
म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ की शिवपुरी इकाई द्वारा शहीद तात्याटोपे मेला मंच पर '1857 की क्रांति में दलित एवं आदिवासियों के योगदान' विषय पर
आयोजित विचार गोष्ठी में सामाजिक चिंतक, लेखक, पत्रकार सुभाष गाताडे ने आगे कहा पर मंजर यह है कि दलितों की दावेदारी सियासत में बढ़ी तभी हमने उसे इतिहास में रेखांकित किया है। समय के साथ अतीत बदलता जाता है। हमें इतिहास की विवेचना करनी चाहिये। राष्ट्रवादी विमर्श की कुछ सीमायें हैं। वर्णाश्रमी आग्रहों को नजरअंदाज कर ही हम 1857 क्रांति की सही विवेचना कर पायेंगे। क्यों दलित आदिवासी 1857 विमर्श से गायब हो गये? मातादीन हेला, लाजो, गंगू मेहतर के नाम क्यों कोई नहीं जानता? ये कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें खोजना होंगे। इतिहास को रिकवर करना पड़ेगा तभी हम 1857 महासमर के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष के साथ इंसाफ कर पायेंगे। 1857 क्रांति के विरोधभासी चरित्र और क्रांति की विफलता की समीक्षा करते हुये श्री गाताडे ने आगे कहा सामंती राजा-महाराजाओं के उस समय के यदि घोषणा पत्र देंखे तो हमें मालूम चलेगा कि वह किस तरह का समाज बनाना चाहते थे। घोषणा में कई बातें प्रतिक्रियावादी थीं और इस हकीकत से कौन इनकार कर सकता है कि जिन 8-10 लोगों के नाम क्रांति में प्रमुखता से आते हैं उनमें से कई लोगों ने बाद में अंग्रेजों के दरबार में माफी की गुहार लगाई थी

7 टिप्‍पणियां:

  1. मादळापाँजि Maadalaapanji
    सही उच्चारण है
    ये जगन्नाथ संस्कृति से जुड़ा पंजिका है ।

    ओड़िशा का काँचि अभियानवाली कथा आपने वर्ड़प्रेस कि एक ब्लॉगर के लेख को यहाँ उदृत किया है

    काँचि अभियान एक जनसृति है
    और हर जनसृति के पिछे गहरे राज़ छिपे होते हे ।

    ईश्वर का राजा के साथ मिलकर युद्ध करने जाना ये ग्रीक् लोक कथा से प्रेरित लगता है....
    ऐसी कथाएँ गढ़ी गयी कि भगवन युद्धभूमि मे युद्ध करने गये थे...

    पुरुषोत्तम देव एकबार काँचिराजा से हारचुके थे
    उन्हे जीतना था
    उधर सैनिकोँ का मनोवल टुटचुका था
    ऐसे मे ये प्रचार किया गया

    उधर राजा ने घोषणा करदिया
    कि जो भी चाहेँ युद्ध कर सकता है वो खण्डायत हो या न हो कोई फर्क नहीँ पड़ता

    और तब जाके राजा को जीत हासिल हुई

    ज्ञात रहे यहाँ मूलतः 36 जातिआँ ही पायेजाते है....

    वे जात भूलाकर सब मिलकर लढ़े इसलिये जीतपाये थे

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  2. अगर इतिहास को शुद्ध तरीके से नहीं पढ़ पाएंगे तो नहीं जान सकते हैं सही क्या था ओर आज के समय में सब आधुनिक बनने की होड़ मे पढ़ना ही नहीं चहता लेकिन इतिहास मे बहुत कुछ गलत लिखा गया है ये गलत हैं काफी

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  3. वर्ण व्यवस्था को समाप्त करना बहुत जरूरी है

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  4. रामगढ़ की रानी अवंती बाई लोधी
    शहीद उधम सिंह जाट
    राजा ठाकुर किशोर सिंह (हिंडोरिया राज्य)
    1842की क्रांति नेतृत्व करता ( राजा हिरदेशा )
    नाराहट के बुंदेला भाई

    ये हैं असली वीर देश के

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  5. कृपया जो भी लिखें सबूत के साथ पोस्ट करें कुछ भी अपने मन से ना डालें माना कि ओबीसी में आने वाले कुछ जाति छत्रिय होती हैं जैसे लोधी राजपूत रावणा राजपूत कर्नाटक की ब्राह्मण भी ओबीसी में आते हैं लेकिन सच को सच रहने दो

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  6. ठीक उसी तरह भंगी भारद्वाज पंडित है

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