सोमवार, 23 जुलाई 2012

पूजा पद्धति

ऋषिमुनियों द्वारा रचित यह पद्धति पूर्णत: वैज्ञानिक है एवं मनुष्यों को मानसिक और व्यक्तिगत ऊर्जा प्रदान करने वाली है।
हमारी पूजा पद्यति
हिंदू धर्म में पूजा उपासना का एक महत्वपूर्ण अंग है। मूर्तियों का पूजन कर्मकांड की पद्धतियों से किया जाता ...है। कर्मकांड हमारे जीवन में अनुशासन लाते हैं। हर कार्य को पूरी नीति से करने की प्रेरणा देते हैं। ऋषिमुनियों द्वारा रचित यह पद्धति पूर्णत: वैज्ञानिक है एवं मनुष्यों को मानसिक और व्यक्तिगत ऊर्जा प्रदान करने वाली है। पूजन पद्धतियां तीन प्रकार की है:1. पंचोपचार 2. दशोपचार 3. षोडशोपचार

1. पंचोपचार - पंचोपचार में पांच वस्तुओं से पूजन।2. दशोपचार - दशोपचार में दस वस्तुओं से पूजन।3. षोडषोपचार - षोडषोपचार में सोलह वस्तुओं से पूजन होता है। यह सबसे विस्तृत है। उपरोक्त दोनों पंचोपचार एवं दशोपचार षोडषोपचार में सम्मिलित है।यह सोलह वस्तुएं: दूध, दही, घी, शहद, शकर, वस्त्र, यज्ञोपवित, हल्दी, चंदन, कुमकुम, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवद्य, तांबुल।

1. कुश आसन हमारी धार्मिक मान्यताएं विज्ञान से प्रेरित हैं। कुश के आसन पर बैठना, सामने अपने ईष्ट देव की पीतल की या अष्टधातु की मूर्ति रखें। कुश का आसन क्यों ?कुश तालाब और नदियों पर उगने वाली एक घास है। वेद और पुराणों में कुश को पवित्र माना है। वैज्ञानिक कारण यह है कि कुश विद्युत का कुचालक होता है। पूजा, जाप से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है। वह कुश का आसन होने से जमीन में नहीं जाती। शरीर में ही बनी रहती है। यही सिद्धिकारक होती है। देवी भागवत में कहा है। कुश धारण करने वालों के बाल नहीं झड़ते और हृदयाघात नहीं होता।

2. आचमन यानी मन, कर्म और वचन से शुद्धि आचमन का अर्थ है अंजलि मे जल लेकर पीना, यह शुद्धि के लिए किया जाता है। आचमन तीन बार किया जाता है। हाथ में जल लेकर अंगुठे के मूल भाग से जल पिया जाता है। तीन बार आचमन करने से कंठ का सूखापन दूर होता है। श्वसन क्रिया अच्छी होती है। मन और बोलने से जो पाप होते हैं, उनका निवारण होता है। इसके पीछे विज्ञान यह है कि मुख शुद्धि होती तथा जल अंदर जाने से आलस्य समाप्त होता है। इससे मन की शुद्धि होती है। तथा पूजन करने से शक्ति प्राप्त होती है।

3. संकल्प लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी हैसंकल्प का अर्थ है दृढ़ निश्चय, विचार, प्रतिज्ञा। किसी भी कार्य को करने के लिए संकल्प अति महत्वपूर्ण होता है। यहां हम पूजा-पद्धति में भी संकल्प का महत्व बता रहे हैं। जैसे किसी से मिलने के लिए, उसको मिलने का कारण, दिनांक, प्रयोजन सब बताने होते हैं। वैसे ही पूजन के पहले अपने देवता को आज की दिनांक समय अपना परिचय और पूजन का कारण बताना पड़ता है ताकि वह हमारे प्रयोजन को समझे और उसे पूर्ण करें।संकल्प करके या ठानकर कोई काम किया जाता है तो उसको पूर्ण करने की शक्ति प्राप्त होती है तथा कार्यपूर्णता को प्राप्त होता है। संकल्प करने से मनोबल में वृद्धि होती है तथा कार्य करने में एकाग्रता बलवती होती है।

4. न्यास : श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण करने की क्रियान्यास द्वारा शरीर को पवित्र बनाना, आशय यह है कि देवता के तुल्य बनना। सभी अंगों को छूकर वहां पर देवता को मंत्रों के द्वारा स्थापित किया जाता है तथा शरीर को देवतुल्य बनाया जाता है।न्यास तीन प्रकार के होते हैं-1. अंग न्यास 2. कर न्यास 3. मातृका न्यास

१. अंग न्यास - इसके अंतर्गत सिर, नाक, हाथ, हृदय, उदर, जांघ, पैर आदि में सूर्य चंद्र का आह्वान किया जाता है।२. कर न्यास - हाथों से मनुष्य कर्म करता, कर न्यास में हाथों की अंगुलियों, अंगूठे और हथेली को पवित्र करते हैं। हमारे कर्म शुभ हो सबका भला करने वाले हो मुक्तिकारक हो यही मर्म है।३. मातृका न्यास - वाणी में सरस्वती वास करती है। चार प्रकार की वाणियां, परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी की वह स्वामिनी होती है। इस न्यास से साधक सरस्वती को शब्दों के रूप में शक्ति का अनुभव करता है।पूजन के पूर्व न्यास करने से शरीर तनावमुक्त बनता है। शरीर के हर अंग पर स्पर्श से, चिंता और थकावट से मुक्ति मिलती है।

5. दीपक, जीवन में ज्ञान के उजाले की तैयारीदीपक ज्ञान और रोशनी का प्रतीक है। पूजा में दीपक का विशेष महत्व है। आमतौर पर विषम संख्या वाले दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा चली आ रही है। दीप प्रज्जवलन का भाव है। हम अज्ञान का अंधकार मिटाकर अपने जीवन में ज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करें।प्राय: दीपक एक, तीन, पांच और सात की विषम संख्या में ही जलाए जाते हैं ऐसा मानना है। विषम संख्या में दीपों से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है।दीपक जलाने से वातावरण शुद्ध होता है। दीपक में गाय के दूध से बना घी प्रयोग हो तो अच्छा अथवा अन्य घी या तेल का प्रयोग भी किया जा सकता है। गाय के घी में रोगाणुओं को भगाने की क्षमता होती है। यह घी जब दीपक में अग्नि के संपर्क से वातावरण को पवित्र बना देता है। प्रदूषण दूर होता है। दीपक जलाने से पूरे घर को फायदा मिलता है। चाहे वह पूजा में सम्मिलित हो अथवा नहीं। दीप प्रज्जवलन घर को प्रदूषण मुक्त बनाने का एक क्रम है। दीपक में अग्नि का वास होता है। जो पृथ्वी पर सूरज का रूप है।

6. आह्वान - देवताओं को आमंत्रणआह्वान में अपने इष्टदेव को निमंत्रित किया जाता है कि वह हमारे सामने विराजमान हो।आह्वान का अर्थ है पास लाना। ईष्ट देवता को अपने सम्मुख या पास लाने के लिए आह्वान किया जाता है। उनसे निवेदन किया जाता है कि वे हमारे सामने हमारे पास आए, इसमें भाव यह होता है। कि वह हमारे ईष्ट देवता की मूर्ति में वास करें, तथा हमें आत्मिक बल एवं आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करें, ताकि हम उनका आदरपूर्वक सत्कार करें। जिस प्रकार मनोवांछित मेहमान या मित्र को अपने यहां आया देखकर आनंद प्रसन्नता होती है। वही आनंद उमंग अपने देवता के आह्वान से अर्थात् अपने पास बुलाने से होती है।आह्वान करने का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि भक्त या साधक अपने ईष्ट देवता के प्रति समर्पण भाव से विनम्रता व्यक्त करता है। आह्वान के पश्चात् भक्त के मन में यह भावना दृढ़ हो जाती है कि पूजा स्थल पर आमंत्रित दैवीय शक्ति का आगमन हो चुका है। इस प्रकार भक्त का मनोयोग पूजा कार्य में अधिक एकाग्रता पूर्वक संलग्न हो जाता है।
पाद्यं, अध्र्य, स्नान यह तीनों सम्मान सूचक है। ऐसा भाव है कि भगवान के प्रकट होने पर उनके हाथ पावं धुलाकर आचमन कराकर स्नान कराते हैं तथा उन्हें आसन देकर आराम से बैठाते हैं।भाव यह है कि हमारे इष्टदेव आज हमारे सामने पधारे हैं। हम उनका पूरे भक्तिभाव से आदर सम्मान करें।
चन्दनस्नान के बाद देवी देवता की प्रतिमा को चंदन समर्पित किया जाता है। पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतल है। भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल होवे यानी ठंडे दिमाग से काम करना। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है।चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी ङ्क्षबदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।

पंचामृतपंचामृत का अर्थ है 'पांच अमृत' इनमें दूध, दही, घी, शक्कर, शहद को मिलाकर पंचामृत बनाया जाता है। इसी से भगवान का अभिषेक किया जाता है। दरअसल पंचामृत आत्मोन्नति के पांच प्रतीक है। यह पांचों सामग्री किसी न किसी रूप में आत्मोन्नति का संदेश देती है।-दूध- दूध पंचामृत का प्रथम भाग है। यह शुभ्रता का प्रतीक है। अर्थात् हमारा जीवन दूध की तरह निष्कलंक होना चाहिए।-दही- दही भी दूध की तरह सफेद होता है। लेकिन इसकी खूबी है यह दूसरों को अपने जैसा बनाता है। दही चढ़ाने का अर्थ यही है कि पहले हम निष्कलंक हो सद्गुण अपनाए और दूसरों को भी अपने जैसा बनाएं।-घी- घी स्निग्धता और स्नेह का प्रतिक है। स्नेह और प्रेम हमारे जीवन में स्नेह की तरह काम करता है। सभी से हमारे स्नेहयुक्त संबंध हो यही भावना है।-शहद- शहद मीठा होने के साथ ही शक्तिशाली भी होता है। निर्बल व्यक्ति जीवन में कुछ नहीं कर सकता, तन और मन से शक्तिशाली व्यक्ति ही सफलता पा सकता है। शहद इसका ही प्रतीक है।- शक्कर- शक्कर का गुण है मिठास, शक्कर चढ़ाने का अर्थ है जीवन में मिठास घोले। मिठास, प्रिय बोलने से आती है। प्रिय बोलना सभी को अच्छा लगता है। और इससे मधुर व्यवहार बनता है।हमारे जीवन में शुभ रहे, स्वयं अच्छे बनें, दूसरों को अच्छा बनाएं, शक्तिशाली बनें, दूसरों के जीवन में मधुरता लांए, मधुर व्यवहार बनाएं। इससे सफलता हमारे कदम चूमेगी। साथ ही हमारे अंदर महानता के गुण पैदा होंगे।वस्त्रपंचामृत स्नान के बाद भगवान का शुद्धिकरण स्नान किया जाता है तथा उनको वस्त्र अर्पण किए जाते हैं। वैसे तो भगवान भाव के भूखे हंै, लेकिन विधि विधान में वस्त्र चढ़ाने में हमारा भाव यह है कि यह वस्त्र भगवान को सर्दी-गर्मी से रक्षा करें। लज्जा से बचाएं और शरीर को सुंदरता प्रदान करें।वस्त्र हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण है यह हम सभी जानते हैं, लेकिन पूजन में भाव यह होता है कि जो वस्त्र हमें पहनने के लिए मिलें वह भगवान की शक्ति से ही मिले । इसलिए भगवान को वस्त्र अर्पित करने से हमने कृतज्ञता की भावना बनी रहती है। यह भाव हमारे जीवन में अहंकार को दूर कर विनम्रता लाता है। विनम्र व्यक्ति हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है।आपके घर या कार्यालय में मंदिर हो तो आसन का वस्त्र साफ रखे, प्रतिमा का वस्त्र साफ स्वच्छ रखें। अपने पहनने के वस्त्र हमेशा साफ स्वच्छ रखें इससे आपका मन हमेशा प्रसन्न रहेगा और प्रसन्नता जीवन का मूल है।

यज्ञोपवीत - यज्ञोपवीत भगवान को समर्पित किया जाता है। यह देवी को अर्पण नहीं किया जाता है। यज्ञोपवीत दो शब्दों से मिलकर बना है। यज्ञ और उपवीत, यज्ञ अर्थात् शुभ कर्म और उपवीत का अर्थ सूत्र यज्ञोपवीत अर्थात् शुभ कर्मों के लिए धारण किया जाने वाला सूत्र इसे जनेऊ भी कहते हैं। यह सूत के धागे से बनता है।यज्ञोपवीत धारण करने से व्यक्ति की उम्र, ताकत, बुद्धि और विवेक बढ़ता है।यज्ञोपवीत पवित्रता का सूचक है। यज्ञोपवीत कान पर लपेटकर मलमूत्र त्यागने से कब्ज का नाश होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से यह एक्युप्रेशर का काम करती है। कान के पास की नसे दबने से ब्लडप्रेशर नियंत्रित रहता है। यह हृदय रोगों से भी रक्षा करता है। वीर्य की रक्षा करता है। मूत्र त्याग के समय जनेऊ को कान पर लपेटने से, डायबीटिज, प्रमेह बहुमूत्र रोग नहीं होते। इसलिए यह भगवान के पूजन उपचार में प्रयोग होती है।

आभूषणषोडषोपचार में देवी-देवता पर आभूषण चढ़ाए जाते हैं। पूजा में स्वर्णआभूषण चढ़ाने का विशेष महत्व है। यह धन, संपदा तथा सौंदर्य के प्रतीक हंै।स्वर्ण आत्मा का प्रतीक है जिस तरह आत्मा अजर अमर शुद्ध है। उसी प्रकार स्वर्ण हर काल में शुद्ध है। भाव यह है कि हम आभूषण के रूप में अपनी आत्मा को देवता के चरणों में समर्पित कर रहे हैं। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। स्वर्ण धातु, स्वर्णभस्म, शक्तिवर्धक टॉनिक एवं औषधियों मेें प्रयोग होती है। श्वंास, कफ, नपुसंकता, शीघ्र वीर्यपात, टीबी, आदि रोगों को दूर करने में यह प्रयोग होती है।ऐसी मान्यता है कि जिस घर में स्वर्ण होता है। वहां लक्ष्मी का वास होता है। धन, धान्य का अभाव नहीं रहता। स्वर्णाभूषण पहनने वाली महिला के पास दरिद्रता नहीं आती।जिस तरह स्वर्ण मूल्यवान है। हमारा शरीर भी मूल्यवान है। स्वर्ण की तरह मूल्यवान हमारा यह शरीर भगवान को समर्पित हो यही भावना रहती है। स्वर्ण को छूते ही शरीर में सुरक्षा तेज, स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।


नानाद्रव्य (कुमकुम, गुलाल, अबीर, हल्दी, सिंदूर)आभूषण के पश्चात् देवी-देवता पर कंकु, गुलाल, अबीर, हल्दी, सिंदूर चढ़ाए जाते हैं।कंकुकंकु पूजा की अनिवार्य सामग्री है। यह लाल रंग का होता है। लाल रंग प्रेम, उत्साह, उमंग, साहस और शौर्य का प्रतीक है।कुमकुम सम्मान, विजय और आकर्षण का प्रतीक है। पुरुष अपने ललाट पर लंब एवं महिलाएं बिंदिया लगाती है। कुमकुम विजय का प्रतीक है। अत: हर कार्य को शुरू करने के पूर्व तिलक या बिंदिया लगायी जाती है।हल्दी, चूना, नींबू से मिलकर कुमकुम का निर्माण होता है। यह तीनों त्वचा का सौंदर्य बढ़ाने के काम आते हैं। कुमकुम से रक्त शोधन और मस्तिष्क के तंतु व्यवस्थित होते हैं।

गुलाल - पूजन में केवल लाल गुलाल का ही उपयोग होता है। चौक बनाने और अभिषेक में गुलाल का उपयोग होता है। भगवान को लाल गुलाल लगाकर हम अपने भाव और संवेदना को व्यक्त करते हैं। लाल गुलाल का इसलिए महत्व बढ़ जाता है कि यह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता हे। इसमें तरंग शक्ति अधिक एवं यह रंग तेज वर्ण, ऊर्जा, साहस और बल का प्रतीक है।

अबीर - एक तरह से यह भगवान की श्रृंगार सामग्री है। अबीर में सुगंध होती है। जो चारों ओर के वातावरण को पवित्र बना देती है।अबीर मुख्यत: दो रंगों में मिलता है। हल्का पीला और सफेद रंग।अबीर देवता को अर्पण करना वस्तुत: विज्ञान और मनोविज्ञान का समन्वय है। यह सुगंध देता है। साधारण मनोविज्ञान है कि प्रात: अच्छी सुगंध से मन और वातावरण स्वच्छ एवं प्रसन्न होता है। आत्मबल का संचार होता है। सकारात्मक सोच आती है। विज्ञान यह है कि इसकी सुगंध से रोग फैलाने वाले कीटाणु नष्ट होते हैं।

हल्दी - इसके औषधि गुण के कारण इसका पूजा में प्रयोग किया जाता है।हल्दी का पीला रंग हमारे मस्तिष्क में नई शक्ति का संचार करता है। इसमें स्थित एंटिबायोटिक गुण हमारे छूने से हमारी त्वचा और सभी अंगों को लाभ पहुंचाते है।हल्दी का रंग पीला होता है। जो मंगल का सूचक है। घर से निकलते समय या सुबह उठकर प्रथम पीला रंग दिखने से शुभ मंगल होता है।

सिंदूर - सिंदूर का उपयोग भी भगवान के पूजन में होता है। सिंदूर पूजा में उपयोग के साथ ही श्री हनुमानजी, माताजी, भैरवजी पर इनका चौला भी चढ़ाया जाता है। सुख और सौभाग्य का दाता भी सिंदूर को माना जाता है।सिंदूर पूजन के साथ भारतीय हिंदू महिलाएं शादी के बाद मांग में भरती हैं। जो सौभाग्य का दाता है। सिंदूर का रंग आरोग्य, बुद्धि, त्याग और देवी महत्वकांक्षा का प्रतीक है। साधु-संत के वस्त्र का रंग भी ऐसा ही होता है।सिंदूर में पारा होता है। जो हमारे शरीर के लिए लाभकारी है। सिंदूर से मांग भरने से महिला के शरीर में स्थित वैद्युतिका उत्तेजना नियंत्रित होती है।

अक्षत - अक्षत का अर्थ है जो टूटा न हो। लोकाचार मे इसे चावल कहते हैं। पूजन की यह सबसे महत्वपूर्ण सामग्री है। पूजन में अक्षत तो अर्पण किया ही जाता है आमतौर पर तिलक करने में भी इसका उपयोग किया जाता है।अक्षत पूर्णता का प्रतीक है। इसका रंग सफेद होता है। जो शुभता का प्रतीक है। भगवान को अक्षत चढ़ाने का भाव यह है कि जिस तरह हमने पूर्ण चावल आपको चढ़ाया है हमें भी आप हमारे सत्कर्मों का पूर्ण फल प्रदान करें।अक्षत हमारे दैनिक उपयोग की वस्तु है, तथा यह हमें ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुआ है, इसलिए भी उनको अर्पण किया जाता है।अक्षत (चावल) एक प्रोटीनदायक स्वादिष्ट एवं पौष्टिक आहार है जो इस्तेमाल करने वालों को बड़ा ही लाभकारी सिद्ध होता है। इसमें प्रोटीन के अलावा स्टार्च भी होता है। भारत के कई प्रदेशों में भोजन में मुख्यत: चावल ही प्रयोग किया जाता है।

दूर्वा - दूर्वा यानि दूब यह एक तरह की घास है जो पूजन में प्रयोग होती है। एक मात्र गणेश ही ऐसे देव है जिनको यह चढ़ाई जाती है। दूर्वा से गणेश जी प्रसन्न होते हैं।दूर्वा गणेशजी को अतिशय प्रिय है। इक्कीस दूर्वा को इक्क_ी कर एक गांठ बनाई जाती है तथा कुल 21 गांठ गणेशजी को चढ़ाई जाती है।कथा- गणेशजी को दूर्वा प्रिय क्यों है? इस बारे में एक कथा प्रचलित है। ऋषि-मुनि और देवता लोगों को एक साथ राक्षस परेशान किया करता था। जिसका नाम था अनलासुर (अनल का अर्थ है आग) देवताओं के अनुरोध पर गणेशजी ने उसे निगल लिया। इससे उनके पेट में तीव्र जलन हो गई तब कश्यप मुनि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर उन्हें खिलाई जिससे यह जलन शांत हो गई।यह एक औषधि है। मानसिक शांति के लिए बहुत लाभप्रद है। यह विभिन्न बीमारियों में एंटिबायोटिक का काम करती है। उसको देखने और छूने से मानसिक शांति और जलन शांत होती है।वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि केंसर रोगियों के लिए भी यह लाभप्रद है।

पुष्पमाला - इसके बाद में देवताओं को हार और पुष्प अर्पण किए जाते हैं। पुष्प सुंदरता और सुंगध के प्रतिक हैं। हमारा जीवन भी सुंदर और सुंगध से भरपूर हो। यही इसको चढ़ाने का भाव होता है। पुष्प रंग-बिरंगे भी होते हैं तथा इनको देखकर मन-मस्तिष्क प्रसन्न हो जाता है। पूजन में भी सुंदरता बिखर जाती है। इनकी सुंगध से चारों ओर का वातावरण खुशनुमा हो जाता है।

नैवेद्य इसके बाद देवी-देवता को भोग या नैवेद्य निवेदित किया जाता है। उनसे निवेदन किया जाता है कि हे प्रभु, इस भोग को ग्रहण कीजिए हम को कृतार्थ कीजिए यह भोग मीठा तथा शक्तिदायक है। फिर प्रसाद के रूप में इसी भोग को सभी ग्रहण करते हैं।नैवेद्य अर्पित करने से हमारा अतिथि सत्कार एवं प्रेम भाव प्रकट होता है। पूजन में हम मानते हैं कि देवी-देवता हमारे सामने उपस्थित है। अत: हम उनको भोग के लिए मिष्ठान दे जो उनकी कृपा से ही हमें प्राप्त हुआ है।हमारे भोजन विधान में भी यह नियम है कि भोजन शुरू करने से पहले कुछ मिष्ठान अवश्य खावें फिर अंत में भी मिष्ठान का प्रयोग करें।मिष्ठान्न का निर्माण दूध, घी, शक्कर से होता है। जो शक्तिदायक होने के साथ ही चिकना भी होता है जिससे हमारी आंतों में फसी पुरानी गंदगी साफ हो जाती है तथा कब्ज एवं गैस का नाश होता है। पेट की जलन शांत होती है तथा जठराग्नि मजबूत होती है।

फल - नैवेद्य के बाद देवी-देवताओं को फल चढ़ाए जाते हैं। फल पूर्णता का प्रतीक है। फल चढ़ाकर हम अपने जीवन को सफल बनाने की कामना भगवान से करते हैं। मौसम के अनुसार पांच प्रकार के फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। शक्ति अनुसार कम भी चढ़ सकते हैं।फल पूर्ण मीठे रसदार रंग और सुगंध से पूर्णता का प्रतीक है। हम भी रसदार, मीठे, नई रंग भरे जीवन जीएं तथा सफल होवें। जीवन में अच्छे कर्म करें। फल, जैसे सद्गुणों की खान है। वैसे ही हम भी बनें। क्योंकि अच्छे कार्य का फल अच्छा ही होता है।

तांबुल - तांबुल का अर्थ पान है। यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। पान, मुख शुद्धि के साथ भोजन को पचाने में भी सहायक होता है। यह कई रोगों की रोकथाम में प्रयुक्त किया जाता है। अत: इसका पूजन सामग्री में प्रयोग होता है।पान खिलाकर हम अतिथि का सत्कार करते हैं। भोजन के बाद पान खिलाकर हम मेहमानवाजी की पूर्णता प्रदान करते हैं। मांगलिक कार्यों में भी पान का प्रयोग अनिवार्य होता है।पान में औषधिय गुण है। पान, तीक्ष्ण, कसैला, चटपटा, वातनाशक, भुख बढ़ाने वाला होता है। सर्दी-जुकाम, पेट दर्द की बीमारियां, गठान, सूजन में पान का पत्ता लाभकारी होता है।

दक्षिणा - तांबुल के बाद दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। भगवान भाव के भूखे हैं। अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है। द्रव्य के रूप में रुपए,स्वर्ण, चांदी कुछ की अर्पित किया जा सकता है। इसमें अपने आपका अर्पण भी भगवान के चरणों में किया जाता है।सीखाता है त्याग- दक्षिणा का भगवान के चरणों में समर्पण, हमें त्याग सीखाता है। धन में जो मोह है आसक्ति है। उससे हमारा मन हटने से सुख संतोष प्राप्त होता है। यह उनका ही दिया है। तथा उनको ही समर्पित हो यही इसका भाव है।

आरती - आरती यानी आर्त होकर, व्याकुल होकर भगवान को याद करना, उनका स्तवन करना। आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।

मंत्र पुष्पांजली - मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।

परिक्रमा - आरती के बाद देवी-देवता की परिक्रमा की जाती है। प्रदक्षिणा का अर्थ है। अपना दाहिना भाग मूर्ति की ओर रखकर उसकी परिक्रमा करना। अलग-अलग देवी-देवता की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है। जैसे गणेशजी की तीन, विष्णु की चार, शंकर की आधी परिक्रमा आदि ईश्वरीय भावना से भगवान की मूर्ति या उनकी लीलाओं से जुड़े स्थानों की जब परिक्रमा करते हैं तो उनके गुण भी हममें उतरते है।

क्षमा प्रार्थना - क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।क्षमा मांगने से हमारे अंदर विनम्रता आती है। अपनी गलती मानने की शक्ति आती है, और हम उसमें सुधार कर सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी गलती मानते हैं और उनमें सुधार करते है वह विनम्र होने के साथ अपने जीवन में लक्ष्य को पाते हैं। तथा नई ऊंचाइयों को छूते हैं।क्षमा के बाद सब कुछ उन्हीं को अर्पण कर पूजन पूर्ण किया जाता है।
 

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