गुरुवार, 30 अगस्त 2012

ब्राह्मण कौन है


ब्राह्मण कौन है ? – ( वज्रसूचि उपनिषद् )

वज्रसुचिकोपनिषद ( वज्रसूचि उपनिषद् )
यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! इसमें कुल ९ मंत्र हैं ! सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं ! क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ? इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गय
ा है , अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है !

वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रंज्ञानभेदनम ! दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञान चक्षुषाम !!१!!

अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेद्वचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम ! तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं आर्म किं धार्मिक इति !!२!!

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है ! अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेतन्न ! अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरुपत्वात एकस्यापी कर्मवशादनेकदेहसम्भवात सर्वशरीराणां जीवस्यैकरुपत्वाच्च ! तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति !!३!!

इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें ! उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है ! जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते !

तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेतन्न ! आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पान्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरुपत्वाज्जरामरणधर्माधर​्मादिसाम्यदर्शनाद ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्ण इति नियमाभावात ! पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्मह्त्यादिदोषसंभावाच्च ! तस्मान्न देहो ब्राह्मण इति !!४!!

क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है? नहीं, यह भी नहीं हो सकता ! चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं, उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं ! ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो, ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है ! अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !!

तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेतन्न ! तत्रजात्यंतरजंतुष्वनेकजातिसंभव​ा महर्षयो बहवः सन्ति ! ऋष्यश्रृंगो मृग्या: कौशिकः कुशात जाम्बूको जम्बूकात ! वाल्मिको वल्मिकात व्यासः कैवर्तकन्यकायाम शंशपृष्ठात गौतमः वसिष्ठ उर्वश्याम अगस्त्यः कलशे जात इति श्रुत्वात ! एतेषम जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति ! तस्मान्न जातिर्ब्राह्मण इति !!५!!

क्या जाति ब्राह्मण है ( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )? नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है ! जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जम्बुक से जाम्बूक की, वाल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी से वसिष्ठ की, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है ! इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए हैं, इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकती है !
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेतन्न ! क्षत्रियादयोSपि परमार्थदर्शिनोSभिज्ञा बहवः सन्ति !!६!!

क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये ? ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !

तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेतन्न ! सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसंचितागामिकर्मसाधर्म्य​दर्शानात्कर्माभिप्रेरिता: संतो जनाः क्रियाः कुर्वन्तीति ! तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति !!७!!

तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये? नहीं ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं ! अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !!

तर्हि धार्मिको इति चेतन्न ! क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति ! तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति !!८!!

क्या धार्मिक , ब्राह्मण हो सकता है? यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं ! अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !!

तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम ! यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मीषडभावेत्यादिसर्वदोषरहित​ं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूता​न्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्बहीश्चाकाशवदनुस्य​ूतमखंडानन्द स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमापरो​क्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य​ कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो​ दंभाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप​्रायः ! अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नासत्येव ! सच्चिदानंदमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानंद ब्रह्म भावयेदि त्युपनिषत !!९!!

तब ब्राह्मण किसे माना जाये ? (इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं – ) जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त ण हो; षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त ; अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त एनी किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता ! आत्मा सैट-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है ! इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है !

वज्रसुचिकोपनिषद : ( भाष्य:- पं श्रीराम शर्मा “आचार्य” )

रविवार, 19 अगस्त 2012

पीपल देववृक्ष है


देव वृक्ष पीपल में रहता है देवताओं का निवास
भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है। पीपल वृक्ष प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। ग्रंथों में पीपल को प्रत्यक्ष देवता की संज्ञा दी गई है। स्कन्दपुराणमें वर्णित है कि अश्वत्थ(पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरिऔर फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं। पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:मूर्तिमान स्वरूप है। यह सभी अभीष्टोंका साधक है। इसका आश्रय मानव के सभी पाप ताप का शमन करता है। भगवान कृष्ण कहते हैं-
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां
अर्थात् समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्वको व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि
अश्वत्थ: पूजितोयत्र पूजिता:सर्व देवता:।

अर्थात् पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं। पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए अश्वत्थस्तोत्रम्में दिया गया
मंत्र है-
अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन। इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तु​पराभवम्॥आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं।देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥
वृहस्पतिकी प्रतिकूलता से उत्पन्न होने वाले अशुभ फल में पीपल समिधा से हवन करने पर शांति मिलती है।
आप सभी को सब प्रकार से पीपल वृक्ष की आराधना करनी चाहिए। इसके पूजन से यम लोक के दारुण दु:ख से मुक्ति मिलती है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनकवर्णित करते हैं कि मंगल मुहूर्त में पीपल के वृक्ष को लगाकर आठ वर्षो तक पुत्र की भांति उसका लालन-पालन करना चाहिए। इसके अनन्तर उपनयनसंस्कार करके नित्य सम्यक् पूजा करने से अक्षय लक्ष्मी मिलती हैं।
पीपल वृक्ष की नित्य तीन बार परिक्रमा करने और जल चढाने पर दरिद्रता, दु:ख और दुर्भाग्य का विनाश होता है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है।
शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से तथा काले तिल से युक्त सरसोतेल के दीपक को जलाकर छायादानसे शनि की पीडा का शमन होता है।
अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या में पीपल वृक्ष के पूजन से शनि से मुक्ति प्राप्त होती है।
श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है।
पीपल का वृक्ष इसीलिए ब्रह्मस्थानहै। इससे सात्विकताबढती है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र,जप और ध्यान उपादेय रहता है।

रविवार, 12 अगस्त 2012

रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंगमें पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं। तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है।इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
रामचरित मानस एहिनामा सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा॥
शोधकर्ताओं के लिए रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें अनेक रत्न भरे पडे हैं तथा इसका अध्ययन-मंथन सदा नूतन लगता है। जितनी बार इसे पढा़ जाय, उतनी ही बार नई-नई रहस्यपूर्ण बातों का ज्ञान होता है।
रामचरितमानस में सात अध्याय यानी कांड है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि रामायण के किस कांड में राम के जीवन की कौन सी घटना का वर्णन है।
रामचरितमानस की में कुल सात अध्याय यानी कांड हैं।

1.बालकांड- इसमें रामचरितमानस मानस की भूमिका, राम के जन्म के पूर्व घटनाक्रम, राम और उनके भाइयों का जन्म, ताड़का वध, राम विवाह का प्रसंग आदि।
2. अयोध्या कांड- राम का वैवाहिक जीवन, राम को अयोध्या का युवराज बनाने की घोषणा, राम कोवनवास, राम का सीता लक्ष्मण सहित वन में जाना, दशरथ की मौत, राम-भरत मिलापए राम की चरणपादुका लेकर नंदीग्राम में भरत का राज स्थापित करना आदि।
3. अरण्य कांड- राम का वन में संतों से मिलना,चित्रकुट से पंचवटी तक सफर, शुर्पनखा का अपमान, खर-दूषण से राम का युद्ध, रावण द्वारा सीता हरण।
4.किष्किंधा कांड- राम लक्ष्मण का सीता को खोजना, राम-लक्ष्मण का हनुमान से मिलना, राम व सुग्रीव की मैत्री, बालि का वध, वानरों के द्वारा सीता की खोज।
5. सुन्दर कांड- हनुमान का समुद्र लांघना, विभीषण से मुलाकात, अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट, रावण के पुत्रों से अशोक वाटिका में हनुमान से युद्ध, लंकादहन, हनुमान का वापस लौटना, हनुमान द्वारा राम को सीता का संदेश सुनाना, लंका पर चढ़ाई की तैयारी, वानरसेना का समुद्र तक पहुंचना, विभीषण का राम की शरण में आना, राम का समुद्र से रास्ता मांगना।
6. लंका कांड- नल-नील द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना, वानर सेना का समुद्र पार कर लंका पहुंचना, अंगद को शांति दूत बनाकर रावण की सभा में भेजना, राम व रावण की सेना में युद्ध,राम द्वारा रावण और कुंभकरण का वध, राम का सीता का मिलना।
7. उत्तर कांड- राम का सीता व लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटना, अयोध्या में राम का राजतिलक, अयोध्या में रामराज्य का वर्णन, राम का अपने भाइयों को ज्ञान देना आदि घटनाक्रम का वर्णन।

रामचरितमानस

रामचरितमानस की सूक्तियाँ

संत गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंग में पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं। तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है। इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।रामचरितमानस के हर पद में महाकवि तुलसीदास के चिंतन, विचारों, अनुभवों के अमृतकण सूक्तियों के रूप में बिखरे हैं। विभिन्न भावों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियां नीचे प्रस्तुत हैं--

जो जग काम नचावन जेही..

जगत में ऐसा कौन है, जिसे काम ने नचाया न हो [उत्तरकांड]

खल सन कलह न भल नहिं प्रीति
खल के साथ न कलह अच्छा न प्रेम अच्छा [उत्तरकांड]

केहिं कर हृदय क्रोध नहिं दाहा
क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया [उत्तरकांड]

चिंता सांपिनि को नहिं खाया
चिंता रूपी सांपिन ने किसे नहीं डंसा [उत्तरकांड]

तप ते अगम न कछु संसारा
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके [बालकांड]

तृष्णा केहि न कीन्ह बीराहा
तृष्णा ने किसको बावला नहीं किया [उत्तरकांड]

नवनि नीच के अति दुःखदाई, जिमि अंकुस धनु उरग विलाई
नीच का झुकना भी अत्यन्त दुखदायी होता है, जैसे -अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना [उत्तरकांड]

परहित सरस धरम नहिं भाई
परोपकार के समान दूसरा धर्म नहीं है [उत्तरकांड]

पर पीडा़ सम नहिं अधमाई
दूसरों को पीडित करने जैसा कोई पाप नहीं है [उत्तरकांड]

दुचित कतहुं परितोष न लहहीं
चित्त के दोतरफा हो जाने से कहीं परितोष नहीं मिलता [अयोध्या कांड]

तसि पूजा चाहिअ जस देवा
जैसा देवता हो, वैसी उसकी पूजा होनी चाहिए [अयोध्याकांड]

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं
संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो [बालकांड]

प्रीति विरोध समान सन करिअ नीति असि आहि
प्रीति और बैर बराबरी में करना चाहिए [लंकाकांड]

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला
सभी मानस रोगों की जड़ मोह / अज्ञान है [उत्तरकांड]

कीरति भनिति भूति भलि सोई सुरसरि सम सब कहं हित होई कीर्ति,
कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की भांति सबका हित करती है [बालकांड]

सचिव बैद गुरु तीनि जौं , प्रिय बोलहिं भय आस राज, धर्म,तन तीनि कर, होई बेगहिं नास
मंत्री, बैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशा से ठकुरसुहाती कहते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीथ्र ही नाश हो जाता है [सुन्दरकांड]

लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु
लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड]
श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास
का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था।
पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था।
तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास
रखा गया। गोस्वामी तुलसीदास

जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण
ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३
की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से
हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे।
पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग
की परिणति वैराग्य में हुई।एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे।
पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा -
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।। गोस्वामी तुलसीदास के लिखे दोहावली, कवित्तरामायण,
गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल,
जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य
संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई,
संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा,
रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं। १२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी,
शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया। संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

पुराण क्या है ?

सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्मा ने सर्वप्रथम स्वयं जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। इस धर्मग्रंथ में लगभग एक अरब श्लोक हैं। यह बृहत् धर्मग्रंथ पुराण, देवलोक में आज भी मौजूद है। मानवता के हितार्थ महान संत कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने एक अरब श्लोकों वाले इस बृहत् पुराण को केवल चार लाख श्लोकों में सम्पादित किया। इसके बाद उन्होंने एक बार फिर इस पुराण को अठारह खण्डों में विभक्त किया, जिन्हें अठारह पुराणों के रूप में जाना जाता है। ये पुराण इस प्रकार हैं :

1. ब्रह्म पुराण
2. पद्म पुराण
3. विष्णु पुराण
4. शिव पुराण
5. भागवत पुराण
6. भविष्य पुराण
7. नारद पुराण
8. मार्कण्डेय पुराण
9. अग्नि पुराण
10. ब्रह्मवैवर्त पुराण
11. लिंग पुराण
12. वराह पुराण
13. स्कंद पुराण
14. वामन पुराण
15. कूर्म पुराण
16. मत्स्य पुराण
17. गरुड़ पुराण
18. ब्रह्माण्ड पुराण

पुराण शब्द का शाब्दिक अर्थ है पुराना, लेकिन प्राचीनतम होने के बाद भी पुराण और उनकी शिक्षाएँ पुरानी नहीं हुई हैं, बल्कि आज के सन्दर्भ में उनका महत्त्व और बढ़ गया है। ये पुराण श्वांस के रूप में मनुष्य की जीवन-धड़कन बन गए हैं। ये शाश्वत हैं, सत्य हैं और धर्म हैं। मनुष्य जीवन इन्हीं पुराणों पर आधारित है।

पुराण प्राचीनतम धर्मग्रंथ होने के साथ-साथ ज्ञान, विवेक, बुद्धि और दिव्य प्रकाश का खज़ाना हैं। इनमें हमें प्राचीनतम् धर्म, चिंतन, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति और अन्य अनेक विषयों का विस्तृत विवेचन पढ़ने को मिलता है। इनमें ब्रह्माण्ड (सर्ग) की रचना, क्रमिक विनाश और पुनर्रचना (प्रतिसर्ग), अनेक युगों (मन्वन्तर), सूर्य वंश और चन्द्र वंश का इतिहास और वंशावली का विशद वर्णन मिलता है। ये पुराण के साथ बदलते जीवन की विभिन्न अवस्थाओं व पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये ऐसे प्रकाश स्तंभ हैं जो वैदिक सभ्यता और सनातन धर्म को प्रदीप्त करते हैं। ये हमारी जीवनशैली और विचारधारा पर भी विशेष प्रभाव डालते हैं। गागर में सागर भर देना अच्छे रचनाकार की पहचान होती है। किसी रचनाकार ने अठारह पुराणों के सार को एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया गया है:
परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीड़नम्। अष्टादश पुराणानि व्यासस्य वचन।।
अर्थात्, व्यास मुनि ने अठारह पुराणों में दो ही बातें मुख्यत: कही हैं, परोपकार करना संसार का सबसे बड़ा पुण्य है और किसी को पीड़ा पहुँचाना सबसे बड़ा पाप है। जहाँ तक शिव पुराण का संबंध है, इसमें भगवान् शिव के भव्यतम व्यक्तित्व का गुणगान किया गया है। शिव- जो स्वयंभू हैं, शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता है, विश्व चेतना हैं और ब्रह्माण्डीय अस्तित्व के आधार हैं। सभी पुराणों में शिव पुराण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने का दर्जा प्राप्त है। इसमें भगवान् शिव के विविध रूपों, अवतारों, ज्योतिर्लिंगों, भक्तों और भक्ति का विशद् वर्णन किया गया है।

शनिवार, 11 अगस्त 2012

योगिराज श्रीकृष्ण का अवतरण


 पृथ्वी पर सभ्यता और संस्कृति के आविर्भाव तथा विकास की दृष्टि से भारतीय और यूनानी संस्कृति और सभ्यता प्राचीनतम है। भारत और ग्रीक दोनों स्थलों की सृष्टि की उत्पत्ति और विकास अलग-अलग रूप से चित्रित किए गए हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में सृष्टि का विकास और ब्रह्म के अवतारवाद की विचारधारा ईश्वरवादी दृष्टिकोण से की गई है। इसी दृष्टिकोण में हमारे विश्वास में धार्मिक और वैज्ञानिक-दोनों आधारों का समावेश देखा जा सकता है।
युगों-युगों से चली आ रही मान्यता ऐसी है कि सृष्टि के आदि में आदिरूप भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। इस आदिपुरुष में दस इंद्रियां, एक मन और पाँच भूत और सोलह कलाएँ थीं।

उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। इस प्रकार जो अजन्मा है, जो भगवान आदि रूप हैं—उनसे ही भगवान का वह विराट् रूप उत्पन्न हुआ। उस महारूप के अंग-प्रत्यंग में...
ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है। वही है भगवान् की विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप।
जो योगी हैं उन्हें भगवान के इसी रूप का दर्शन मिलता है, जिसे वे अपनी साधना द्वारा उपलब्ध करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण—उसमें हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएं हैं। वस्तुतः वे सृष्टि में निहित अनेक रूपों, शक्तियों एवं क्रियाओं आदि का प्रतीक हैं।

भगवान का वह आदिरूप पुरुष है, वह महापुरुष, वह विराट पुरुष है जिसे नारायण कहते हैं, जो अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इसी रूप के छोटे-से-छोटे अंश से पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनियों की सृष्टि होती है अर्थात यह उर्जा का वह महाकोष है जिसके ऊर्जांश असंख्य रूपों में गति भर सकते हैं।
हमारी चिंतन परंपरा के अनुसार भगवान कृष्ण का अवतार भगवान विष्णु का आठवां, अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवतार है।

चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद पर आधारित आरक्षण की गंदी राजनीति

प्राचीन भारत की चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा वास्तव में व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुणों के आधार पर कर्म अथवा व्यवसाय के चयन की व्यवस्था थी, जो सभी व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास हेतु सपर्पित संपूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था थी, तथा जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, तथा सही रूप में जिसका पालन कर आज भी सभी व्यक्ति एवं समाज का सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास संभव है । परन्तु मध्यकालीन भारत में चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा की गलत व्याख्या कर उच्च वर्ग के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने जातिवाद की गंदी राजनीति कर छुआ- छुत को बढावा दिया तथा चतुर्वर्ण व्यवस्था एवम जाति प्रथा का विकृत रूप समाज में पेश किया, जिसका अनुचित लाभ उठाकर वर्त्तमान भारत के परम स्वार्थी दुष्ट राजनीतिज्ञों ने स्वतंत्र भारत में जाति की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकना शुरु कर दिया और धर्म, नियम, कानून और जनतंत्र के मूल सिद्धान्त, संविधान की मूल आत्मा, स्वतंत्रता आंदोलन के महान उद्देश्य, मानवाधिकार के सिद्धान्त तथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध "जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण" का गंदा खेल खेलना शुरु किया, जो बदस्तूर अब भी जारी है, जिसका खामियाजा सभी व्यक्ति और समाज को ही नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र और मानव जाति को भुगतना पडा है और भुगतना पड रहा है तथा समाज के एक बहुत बडे वर्ग की शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता, योग्यता एवं प्रतिभा व्यर्थ चली गयी तथा व्यर्थ चली जा रही है। "जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण" का गंदा खेल भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) की समस्या को जन्म दे रहा है, भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा कर रहा है, वैमनस्य का विष घोल रहा है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित कर रहा है।

 जो व्यक्ति जातिवाद को गालिया देता है और जातिवाद के खिलाफ नारे लगता है, वही व्यक्ति अपने निहित स्वार्थ और फायदे के लिए जातिवाद को समाप्त नहीं होने देता | भारतीय सविधान में अम्बेडकर इफ्फेक्ट और जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण पद्धति का दुष्परिणाम है कि यदि किसी को मुंह से दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार कह दिया जाये तो वह जघन्य अपराध और नॉन बेलेबुल ऑफेन्स हो जायेगा, लेकिन जाति पर आधारित आरक्षण का लाभ उठाने के लिए वही व्यक्ति घुस देकर भी दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार होने का लिखित प्रमाणपत्र बनवाता है |

प्राचीन भारत में सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में बांटा गया था, यथा- ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग), क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग), वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) तथा शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) । सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में वर्गीकरण को ही चतुर्वर्ण व्यवस्था अथवा वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया । ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) के लोग मुख्य रूप से शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अपने बुद्धिबल से समाज को नियंत्रित कर सभी वर्ग के व्यक्ति, समाज, राज्य, राष्ट्र, समग्र मानव जाति तथा संपूर्ण विश्व के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास के लिये निरंतर कार्य करते हुए निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में समर्पित हुआ करते थे । इसी प्रकार क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) के लोग मुख्य रूप से राजा, शासक, सैनिक, सेनापति, रक्षक, जन – रक्षक, युद्ध – कला में दक्ष महान योद्धा का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज में शांति एवम कानून एवम व्यवस्था बनाये रखने हेतु समाज पर शासन करते थे तथा बाह्य आक्रमण से राज्य के लोगों को सुरक्षा प्रदान किया करते थे । ठीक इसी प्रकार वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) के लोग मुख्य रूप से किसान, पशु पालक, लोहार, सोनार, तेली, बनिया, बढई, बुनकर, दुकानदार, व्यापारी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अर्थोपार्जन कर संपूर्ण समाज तथा समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को धन, भोजन, वस्त्र एवम दैनिक उपयोग की समस्त वस्तु उपलब्ध कराया करते थे । इसी प्रकार शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) के लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर, औद्योगिक मजदूर, घरेलु नौकर – दाई, कुली, सेवक, अनुसेवक, श्रमिक, सहायक आदि का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को उनके कार्य मे सहायता प्रदान किया करते थे तथा जो समस्त प्रकार के कृषि, उद्योग, व्यवसाय एवम वाणिज्य व्यापार को आधार प्रदान किया करते थे । इसीलिये उपरोक्त चार वर्णों को उनके कर्मों तथा समाज में उनकी भूमिका एवम उपयोगिता के अनुसार ही ब्राह्मण वर्ण को समाज रूपी शरीर का मस्तक (मस्तिष्क), क्षत्रिय वर्ण को समाज रूपी शरीर की भुजा, वैश्य वर्ण को समाज रूपी शरीर का धड (मुख्य शरीर अर्थात दिल, सीना, पेट, पाचन तंत्र एवम मल – मूत्र विसर्जन तंत्र) तथा शूद्र वर्ण को समाज रूपी शरीर का आधार स्तंभ पैर अथवा पांव (समाज की संपूर्ण शारीरिक ढांचा का आधार स्तंभ) की संज्ञा दी गयी ।
इस सम्बंध में गीता में भगवान कृष्ण का निम्न कथन प्रासंगिक हैः-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥
अर्थात् हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न उनके गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं । गीता- १८.४१

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, आभ्यंतर शौच एवम बाह्य शौच का पालन कर आंतरिक एवम बाह्य शुद्धि निरंतर बनाये रखना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल बनये रखना; समस्त प्रकार के वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि का सम्यक् ज्ञान रखना तथा उनमें श्रद्धा रखना, वेद शास्त्रों का अध्ययन – अध्यापन (पठन – पाठन) करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना – ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४२

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव – ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४३

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
अर्थात् कृषि (खेती), गोपालन और क्रय – विक्रय का व्यापार स्वरूप सत्य व्यवहार – ये सब के सब ही वैश्य के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । इसी प्रकार सभी वर्ण के लोगों की सेवा कर उनके कार्यों में हर संभव सहयोग करना शूद्र के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४४

यहां यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि ब्राह्मण वर्ण के साथ साथ सभ्य समाज के सभी वर्ग के सभी लोगों को आभ्यंतर शौच (आन्तरिक शुद्धि) एवम बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) – दोनों प्रकार के शौच (शुद्धि) का पालन करना चाहिये । ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, पूर्वाग्रह, पक्षपात, भय, घृणा और अहंकार – इन दस प्रकार के मानव दुर्गुणों से मुक्त होना ही आभ्यंतर शौच (आंतरिक शुद्धि) कहलाता है । हाथ, पैर, मुंह, नाक, दांत, जीभ, चेहरा, माथा, जननांग, मल – मूत्र विसर्जन अंग, सम्पूर्ण शरीर, वस्त्र, बिछावन, निवास स्थान आदि की नित्य प्रति निरंतर सफाई ही बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) कहलाता है ।

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था अथवा चतुर्वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त पेशा अथवा व्यवसाय के नाम के अनुसार जाति व्यवस्था भी प्रचलित थी । वस्तुतः पेशा अथवा व्यवसाय के नाम को ही जाति की संज्ञा दी गयी थी, जिसके अनुसार लोहा का काम करने वाले को लोहार, चमडा का काम करने वाले को चमार (चर्मकार), लकडी का काम करने वाले को बढई, मिट्टी का बर्तन बनाने वाले को कुम्हार (कुम्भकार), गाय (गौ) पालन करने वाले को ग्वाला की संज्ञा दी गयी ।

यह बात एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि माता – पिता के सद्गुण एवम दुर्गुण आनुवंशिक (जेनेटिक) रूप से उनके पुत्र एवम पुत्रियों में हस्तांतरित हो जाते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के समस्त गुण और व्यक्तित्व का ३० % निर्धारित करते हैं, व्यक्ति के शेष ३० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनके परिवार का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं, तथा व्यक्ति के शेष ४० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनकी शिक्षा एवम शैक्षणिक संस्थान का माहौल तथा उनके इर्द गिर्द सामाजिक परिवेश का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि जो व्यक्ति जिस परिवार मे पैदा होता है, उस परिवार में माता – पिता के पेशा एवं व्यवसाय के कार्यों को बचपन से ही देखते समझते तथा उन कार्यों में सहयोग करते करते १८ – २० साल की उम्र होते – होते वह व्यक्ति बिना किसी विशेष शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के, अपने परिवार के व्यवसाय मे तथा व्यावसायिक दक्षता में उस स्तर की पूर्ण महारत हासिल कर लेता है, जिसे कोइ दूसरे व्यवसाय को धारण करने वाले दूसरे परिवार मे जन्मा व्यक्ति ५ – ६ साल की विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद भी हासिल नहीं कर सकता । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि प्रत्येक माता – पिता की चाहत होती है कि जिस व्यवसाय को उसने अपनाया है तथा जिस व्यवसाय को सफल बनाने और उसे अधिकतम संभव ऊंचाई तक ले जाने के लिये उसने जीवन भर कठिन परिश्रम किया है, उस व्यवसाय को उसके उत्तराधिकारी वंशज भी अपनायें तथा उसे और आगे बढायें । इसीलिये पीढी – दर – पीढी निरंतर लोग अपने परिवार मे माता – पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगे तथा व्यावसायिक कार्यों में परस्पर सहयोग एवम सहुलियत के लिये लोग अपने ही पेशा या व्यवसाय (जाति) के लडका – लडकी से विवाह करने लगे तथा समान पेशा या व्यवसाय के लोग एक साथ एक मोहल्ला या टोली बनाकर रह्ने लगे, जिससे भिन्न - भिन्न पेशा या व्यवसाय के लोगों ने अपनी विशेष प्रकार की व्यावसायिक कार्य संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जाति प्रथा का विकास हुआ और इसी जाति प्रथा के कारण भारत मे समस्त प्रकार के उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सम्पूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सभ्यता - संस्कृति का विकास हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व में उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सभ्यता – संस्कृति को विकसित किया तथा सम्पूर्ण विश्व की सभ्यता – संस्कृति को प्रभावित किया ।

प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति अत्यन्त ही उन्नत, सार्थक एवम पूर्णरूपेण व्यावहारिक थी । सुप्रसिद्ध ॠषियों (प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) द्वारा घने जंगलों में प्राकृतिक वातावरण में चलाये जाने वाले ॠषि आश्रम (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला)) में सुयोग्य व्यक्तियों को समस्त शस्त्र एवम शास्त्र (धर्म शास्त्र, व्यवहार विज्ञान, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, धनुर्विद्या, सैन्य शास्त्र आदि) की शिक्षा एवम व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर सभी छात्रों को व्यावहारिक जीवन की समस्त परिस्थितियों का सामना करते हुए सफल जीवन जीने की कला में पारंगत किया जाता था तथा ॠषि आश्रम में ब्राह्मण ॠषि द्वारा निःस्वार्थ भाव से सभी धनी एवं गरीब छात्रों को बिना किसी भेद भाव के एक समान निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवम प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था । ॠषि आश्रमों में छात्र – छात्राओं के समस्त अन्तर्निहित गुणों, शारीरिक एवम मानसिक शक्तियों तथा उनकी प्रतिभा का समग्र रूप में विकास कर उन्हें व्यावहारिक जीवन की परिस्थितियों का तथा दुष्ट प्रकृति के राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम बनाया जाता था । इसीलिये समाज में ब्राह्मण (बुद्धिजीवी शिक्षक) एवम ॠषि (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला के संचालक सुप्रसिद्ध प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) को बहुत ही आदर की दृष्टि (नजर) से देखा जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पूजा- पाठ एवम यज्ञ की समाप्ति के समय ब्राह्मण एवम ॠषि को आवाहन (सादर आमंत्रित) कर के समाज के सभी वर्ग के लोग यथा संभव सर्वाधिक चल एवम अचल सम्पत्ति तथा नकद धन राशी उन्हें समर्पित करते थे ।

इतिहास साक्षी है - दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज की हर व्यवस्था का दुरुपयोग किया है, तथा जिस किसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को समाज के लोगों ने सम्मान दिया, उसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को धारण कर ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज को तथा समाज के भोले भाले लोगों को ठगा है और यह प्रक्रिया आज भी बदस्तुर जारी है । पूर्व काल में चूंकि समाज में ब्राह्मण और ॠषि को लोग बहुत आदर कि दृष्टी से देखते थे, इसलिये दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये ब्राह्मण और ऋषि क रूप धारण किया करते थे । ठीक उसी प्रकार आज के जमाने में भी दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये दुष्ट प्रवृत्ति के अदूरदर्शी परम स्वार्थी तत्व वर्त्तमान व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर बुद्धिजीवी वर्ग (अर्थात् शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी आदि) का पेशा अपना कर हर बात की गलत व्याख्या कर लोगों को उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं तथा समाज में विष वमन कर समाज मे वैमनस्य फैला रहे हैं ।

अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिये सत्ता में दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों का समावेश हो गया, जो सस्ती लोकप्रियता बनाये रखने और निरंतर सत्ता मे अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाते रहे तथा जाति और मजहब की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकने में निरंतर भिडे रहे और आज भी भिडे हुए हैं । स्वतंत्र भारत में अलग – अलग मजहब के लोगों के लिये अलग अलग कानून बनाये गये – हिन्दू एवम मुसलमान के लिये अलग अलग कानून की व्यवस्था की गयी तथा हर क्षेत्र में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जिसे भारतीय संविधान में “अम्बेडकर इफेक्ट” के रूप मे जाना जाता है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, जो धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है, जो पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है, जो अयोग्यता एवं अक्षमता को प्रोत्साहित करता है, जो प्रतिभाशाली व्यक्तियों की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, शक्ति एवम दक्षता को कुंठित करता है तथा उनका समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सदुपयोग नहीं होने देता है तथा जो प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की समस्या का जन्मदाता है, जो समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सबसे बडी बाधा है ।

जो भी व्यक्ति विकास की दौड में पीछे रह गये हैं, जो शैक्षणिक, सामाजिक एवम आर्थिक रूप से पिछडे हुए हैं, उन सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत पिछडेपन के आधार पर तमाम प्रकार की हर संभव सुविधा प्रदान कर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल कर उनके सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये । परंतु किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव नहीं किया जाना चाहिये । किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव अथवा जाति पर आधारित आरक्षण की पद्धति भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा करता है तथा वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है।

कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद की गंदी राजनीति” नामक पुस्तक से उद्धृत)

विचार

स्वागत करो मृत्यु का
सजग होकर अपने जीवन को देखना एक कला है। इस प्रतिक्रिया में अपने आप समाधि लग जाती है। एक ऐसी समाधि जिसमें आदमी को स्वयं का बोध हो जाता है और संसार की फालतू बातें छूट जाती हैं। संसार का जो अनर्गल है वह हमें बहुत भारी बना देता है। जब हम दूर खड़े होकर तटस्थ भाव से अपने ही जीवन को देखने लगते हैं तो सब कुछ बहुत हल्का हो जाता है।

सुकरात के जीवन की एक कथा है। जब उनका अंतिम समय आया, शिष्य रोने लगे। तब सुकरात ने कहा, ‘‘रोना बंद करें। मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। लेकिन मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं कि मैं अपनी इस मृत्यु को होशपूर्वक देखूं। अब सब कुछ छूट रहा है। जितना छूटेगा उतना ही स्वयं बच जाएगा। जगत का बोध समाप्त होगा और स्वयं का बोध जागने लगेगा। सुकरात ने कहा कि मैं आज मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा, सिर्फ यह देख रहा हूँ कि मरना होता क्या है ? यह मौका मुझे आज मिला है, इसलिए आप लोग रोते हुए मेरी समाधि में व्यवधान पैदा न करें, और सचमुच तो बचते चले गए मौत होती चली गई। वे संदेश दे गए मृत्यु प्रतिदिन निकट आ रही है और जिंदगी प्रतिदिन घट रही है। इसलिए मृत्यु का भय न करें, उसके स्वागत की तैयारी की जाए।’’

सूखा नारियल अपनी खोल के भीतर पक जाता है। खोलने पर वह पूरा बाहर आता है। किंतु जो गीला नारियल होता है उसक फोड़ने पर वह अपनी खोल से चिपका रहता है। कई बार तो उसको निकालने के लिए उसके टुकड़े हो जाते हैं। ऐसा ही शरीर और आत्मा के साथ हैं। स्वयं शरीर से अलग हो जाने का अर्थ है पका हुआ होना, अपने आत्मभाव में पहुंच जाना और शरीर से चिपकते हुए मृत्यु वरण का अर्थ है गीलें खोल की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर पिलपिले होना। इसलिए शांति से जीवन में इस बोध को लाना बड़ा उपयोगी होता है।

सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है

वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नद पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू, और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं।
प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म मेंगाणपतय, शैव वैष्णव,शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे।गाणपतयगणेशकी वैष्णव विष्णु की, शैव शिव की और शाक्त शक्ति और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थ...
ों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरूओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ,उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है। कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।
सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है

भैरव का अर्थ

।। ॐ हंषंनंगंकंसंखं महाकाल भैरवाय नम:।।
भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जात  है। भैरव का जन्म : काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है। बटुक भैरव : 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उक्त आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।। काल भैरव : यह भगवान का साहसिक युवा रूप है। उक्त रूप की आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय की प्राप्ति होती है। व्यक्ति में साहस का संचार होता है। सभी तरह के भय से मुक्ति मिलती है। काल भैरव को शंकर का रुद्रावतार माना जाता है। काल भैरव की आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ भैरवाय नम:।। भैरव आराधना : एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं। आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएँ। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दाँत और आँत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है। भैरव तंत्र : योग में जिसे समाधि पद कहा गया है, भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख
किया है..............................

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

वर्णाश्रम एवं चातुर्वर्ण्य

वैदिक परम्परा में वर्णाश्रम धर्म एवं चार वर्णों को आधार माना जाता है । परन्तु वर्तमान में इसका जो रूप हमें दिखायी देता है, वह शास्त्रों की परिभाषा के विपरीत है । वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सदैव ही समाज में रही है और रहेगी । अगर हम कहें कि वैश्‍विक किरणें ( cosmic rays) प्रत्येक वस्तु या वाणी पर अपना प्रभाव डालती हैं, तो यह मात्र हमारी कल्पना नहीं अपितु अटल सत्य है । वर्णाश्रम व्यवस्था चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सम्पूर्ण मानव जाति की वास्तविक अवस्था है, जिसका अचेषण एवं धारणा वैदिक परम्परा के ऋषि-मुनियों ने की थी । आज हिन्दु समाज में जिस जाति व्यवस्था, ऊँच नीच का भेदभाव या छूआछूत की बात होती है वह वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में कहीं नहीं है । वर्तमान व्यवस्थायें स्वार्थी एवं पाखंडी लोगों एवं तथाकथित धर्म एवं सत्ता के गठजोड़ की ही देन हैं ।

फिर वर्णाश्रम एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था क्या है? इसका उत्तर जानने के लिये हमें शास्त्रों को खंगालना होगा । हमारे शास्त्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था से मानव को धर्म की उन्‍नति होगी । शास्त्र कहते हैं ‘पिंडे पिंडे मतिभिन्‍ना’ यानि हर व्यक्‍ति का धर्म अलग होता है । अगर ऐसा हुआ तो संसार में अनगिनत धर्म खड़े हो जायेंगे । परन्तु यहाँ धर्म का मतलब नहीं अपितु व्यक्‍तिगत धारणा की अवस्था है । पिता, माता, पुत्र, भाई, बहन सबका धर्म अलग-अलग हो सकता है । इसीलिये शास्त्रों ने धर्म की व्याख्या की है “धारणात्‌ धर्मा इत्याहू: धर्मो धारयते प्रजा:” । ब्रह्‍माण्ड में जो अनन्‍त शक्‍तियाँ सदा बहती रहती हैं, उनको सुयोग्य धारणा एवं उनसे जनकल्याण के उपाय करना ही धर्म है ।

वर्णाश्रम धर्म का व्यापक अर्थ स्वयं इसी में छुपा है । वर्ण यानि दिव्य रंग जो प्रत्येक व्यक्‍ति के शरीर के चारों ओर रहने वाले प्रकाशवलय में रहता है । यह प्रकाशवलय, व्यक्‍ति गुण, स्वभाव के अनुसार प्रभावित होकर उसका तेजोवलय ( AURA) बनकर दिखाई देता है । दिव्य योगी एवं सन्त इस तेजोवलय को देखने में सक्षम होते हैं, हाँ आज विज्ञान भी इसे स्वीकार करता है एवं विशेष यन्त्रों से देखने में सक्षम है । इस तेजोवलय को व्यक्‍ति के गुण स्वभाव एवं प्रकृति के आधार पर वैदिक धारणा में विभिन्‍न वर्णों में बाँटा गया, जिसे वर्णाश्रम कहा गया । उदाहरणार्थ - अत्यन्त शुद्ध आचार विचार वाले व्यक्‍ति के तेजोवलय का वर्ण शुक्‍ल रहता है । शास्त्रों में ऐसे व्यक्‍ति को ब्राह्मण कहा गया । इसमें जाति, मजहब का कोई आधार नहीं है । चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का उद्‍गम इसी प्रकार के वर्णाश्रम धर्म से हुआ । इस प्रकार चातुर्वर्ण्य एवं वर्णाश्रम व्यवस्था, गुण, कर्म, स्वभाव एवं संस्कारों पर निर्भर है, न कि जन्मजात व्यक्‍ति व्यवस्था पर । यह एक दिव्य प्राकृतिक अवस्था है । वैदिक परम्परा ने यह दिव्य अवस्था का अध्ययन कर समाज के कल्याण एवं सुचारू संचालन के लिये कुछ नियम बनाये जिन्हें वर्णाश्रम धर्म एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था कहा गया । श्रीगीता में चातुर्वर्ण्य के बारे में स्पष्ट कहा गया है ।


चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
वस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमक्ष्ययम्‌ ॥
जन्मतः कोई ब्राह्मण नहीं है । जन्मत: सारे शूद्र हैं । उत्तम संस्कारों के कारण कोई भी ब्राह्मण बन सकता है । शास्त्रानुसार -
जन्मता जायते शूद्रः संस्कारात्‌ द्विज उच्यते । ”
फिर ब्राह्मण कौन है? जो ब्रह्म जानता है वही ब्राह्यण है
“ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ।



चातुर्वर्ण्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चार वर्णों का निर्धारण मनुष्य के चतुर्विध पुरूषार्थ पर निर्धारित कर दिया गया ।

ब्राह्मण - वैदिक परम्परा का मुख्य ध्येय आदर्श ब्राह्मण बनना है । इसके अनुसार कोई भी सुयोग्य आचार, विचार का पालन कर ब्राह्मण बन सकता है । जिसका आचार, विचार आध्यात्मिक भाव का यानि ब्रह्मा को जानने का है, वही ब्राह्मण बन सकता है । ब्राह्मण बने व्यक्‍ति का तेजोवलय शुक्ल वर्ण का होता है । अर्थात शुक्ल दिव्य वलयवर्ण का व्यक्‍ति ब्राह्मण है । ऐसा व्यक्‍ति आध्यात्म साधना एवं चिन्तन में लिप्त रहता है तथा कामिनी, कंचन एवं कीर्ति से बचकर रहता है । उपनिषद के अनुसार शुक्ल वर्ण दिव्यवलय वाला व्यक्‍ति किसी भी जाति, धर्म अथवा त्वचा के रंग का हो, ब्राह्मण ही कहलायेगा । जैसा कि ऊपर भी लिखा गया है कि जन्म से सब शूद्र हैं, अतः कोई भी सुयोग्य साधना कर ब्राह्मण बन सकता है ब्राह्मण समाज के आदर्श का प्रतीक है न कि जाति व्यवस्था का ।

क्षत्रिय - जो अपने क्षेत्र की रक्षा करता है वह क्षत्रिय है । प्रश्‍न उठता है कि कौन सा क्षेत्र ? श्री गीता में कहा गया है-


इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्र मित्ययिधीयते ।
एतद्यो वेत्‍ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इतितद्विदः ॥


आशय यह है कि अपना शरीर ही वह क्षेत्र है तथा जो शरीर की रक्षा कर वह क्षत्रिय है । कहा गया है कि सर्वसाधना का पल उपकरण है जिसकी आत्मसाधना के कारण रक्षा करना आवश्यक है । शरीर की रक्षा शरीर के लिये नही वरण आत्मसाधन के लिये जरूरी है । आत्मसाधना का फल आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान होते हैं । परन्तु सभी एकदम से ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकते । इस उच्च अवस्था तक पहुँचने के लिये आत्मसाधना करनी पड़ती है । आत्मसाधना के लिये शरीर की रक्षा करना आवश्यक है । अतः जो साधक नियमबद्ध रहकर शरीर की रक्षा करता है वह क्षत्रिय कहलाता है । इस प्रकार अपना स्वास्थ्य एवं कृतिक्षेत्र की रक्षा करने वाले जन जहाँ भी होंगे वे उस समाज के क्षत्रिय माने जायेंगे । क्षत्रिय के सम्बन्ध में पुराणों में परशून्य कथा का उल्लेख है कि उन्होंनें पृथ्वी को इक्‍कीस बार निःक्षत्रिय किया था यहाँ पृथ्वी से तात्पर्य वह स्थान जिसकी क्षत्रिय रक्षा करता है अर्थात सम्पूर्ण शरीर से है । फिर वह कौन से क्षत्रिय हैं जिन्हें परशुराम ने मार डाला । जब हम अपने कृतिरक्षण की अवस्था से आगे बढ़ते हैं तब हम क्षत्रिय से ब्राह्मणत्व की ओर बढ़ते हैं । कृतिशून्य साधक ही ब्राह्मण है । हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि हमारा अस्तित्व इक्‍कीस सूक्ष्म-सूक्ष्मतर अवस्थाओं में रहता है । हर एक अवस्था को लेकर साधक की कृतियाँ उसी आधार से रहती हैं । हमारी पंचकर्मेन्द्रियां, पंचज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्यात्राएं एवं पचं महायत्रों को लेकर कुल बीस तत्वास्थाएं हैं । इन बीस तत्वास्थाओं को संचालित करने वाला इक्‍कीसवाँ हमारा मन है । इन इक्‍कीस अवस्था में स्थित आग्रही मनरूप या कृतिरूप क्षत्रियों का संहार करना ही ब्राह्मण बनने की इच्छा करने वाले परशुराम के लिये आवश्यक था । इस प्रकार परशुराम ने ब्राह्मण बनने के लिये अपने शरीररूपी पृथ्वी से सभी इक्‍कीस कृतियों पर विजय पायी ।

वैश्य - ‘विश’ यानि प्रजा तथा वैश्य यानि प्रजा का पोषण करने वाला । प्रजा यानि कृतिरूप अवस्था । आध्यात्म साधना जिन कृतियों का पोषण करना स्वीकार करते हैं उन्हें शास्त्र वैश्य कहते हैं । कुछ साधक सारे जीवन तक एक ही कृति को धारण कर कर्मठता से मग्न रहते हैं, और अपनी कृति का पोषण करते हैं, शास्त्रकार उन्हें वैश्य कहते हैं । अपने कर्म विशेष में मशगूल रहना, कर्मठता के साथ आगे बढ़ना, अपनी कृति के पोषण में लगे रहना वाला व्यक्‍ति वैश्य है । वैश्य कृति के व्यक्‍ति का स्वभाव संचय के साथ-साथ मुक्‍त मन से दया, धर्म देश के प्रति निष्ठावान्‌ एवं दानी होता है । धर्म की परिभाषा है “यतोम्यूदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः” इस परिभाषा के धारण करने वाला व्यक्‍ति/साधक ही वैश्य है ।

शूद्र - जिस साधक को थोड़ी भी साधना करने के बाद उसका आविर्भाव या अहंकार अधिक हो जाता है, यह कुछ करने के पश्‍चात्‌ चित्त का उद्रेक अधिक हो जाता है, ऐसे व्यक्‍तियों को शास्त्रों में शू-उद्रः यानि शूद्रः कहा जाता है । शूद्र जाति नहीं वरण वृत्तिविस्फोट है । ऐसे शूद्र वृत्ति वाले मनुष्य प्रत्येक समाज में बहुलता में पाये जाते हैं । इसलिये ऐसे व्यक्‍तियों को वृत्तिउद्रेक शान्त करने के लिये, विनम्र बनने के लिये सन्त, महात्मा, भगवान, ब्राह्मण या अन्यों की सेवा करने के लिये कहा जाता है ताकि उनका भावनाउद्रेक का अहंकार कम हो सके । जिन साधकों में साधना के कारण अहंकार आता है वह शूद्रकृत्ति के साधक साधना ही न करें, यह अच्छा है । इसलिये शुद्रों के लिए तप या साधना करना मना किया है । शूद्र केवल संतजनों के सेवा फिर वही उसका धर्म है ।

उपरोक्‍त तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्ण यानि हर एक व्यक्‍ति के चारों ओर एक तेजोवलय होता है । प्रत्येक वृत्ति का अलग वयविलय होता है जिस व्यक्‍ति का वर्ण वलय शुक्ल होगा वह ब्राह्मण, जिसका ताम्रवर्यी वह क्षत्रिय, पीतवर्ण वाला वैश्य तथा शूद्रों का वर्ण वलय कृष्ण, श्याम या काला होता है । इस वर्णवलय में किसी भी जाति, समाज या धर्म का वर्गान्तर नहीं होता है ।


सन्दर्भ ग्रन्थ - जन्म मृत्यु विज्ञान (योगीमनोहर)
- कार्तवीर्यार्जुन पुराण

कृष्ण जन्माष्टमी: कहानी कृष्ण जन्म की

मुरली मनोहर कृष्ण कन्हैया जमुना के तट पे विराजे हैं
मोर मुकुट पर कानों में कुण्डल कर में मुरलिया साजे है

मानव जीवन सबसे सुंदर और सर्वोत्तम होता है. मानव जीवन की खुशियों का कुछ ऐसा जलवा है कि भगवान भी इस खुशी को महसूस करने समय-समय पर धरती पर आते हैं. शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु ने भी समय-समय पर मानव रूप लेकर इस धरती के सुखों को भोगा है. भगवान विष्णु का ही एक रूप कृष्ण जी का भी है जिन्हें लीलाधर और लीलाओं का देवता माना जाता है.

मान्यता है कि द्वापर युग के अंतिम चरण में भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था. इसी कारण शास्त्रों में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी के दिन अर्द्धरात्रि में श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी मनाने का उल्लेख मिलता है. पुराणों में इस दिन व्रत रखने को बेहद अहम बताया गया है.

कृष्ण जन्मकथा
श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्र रूप में हुआ था. कंस ने अपनी मृत्यु के भय से अपनी बहन देवकी और वसुदेव को कारागार में कैद किया हुआ था. कृष्ण जी जन्म के समय घनघोर वर्षा हो रही थी. चारो तरफ़ घना अंधकार छाया हुआ था. भगवान के निर्देशानुसार कुष्ण जी को रात में ही मथुरा के कारागार से गोकुल में नंद बाबा के घर ले जाया गया.

नन्द जी की पत्नी यशोदा को एक कन्या हुई थी. वासुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को अपने साथ ले गए. कंस ने उस कन्या को वासुदेव और देवकी की संतान समझ पटककर मार डालना चाहा लेकिन वह इस कार्य में असफल ही रहा. दैवयोग से वह कन्या जीवित बच गई. इसके बाद श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया. जब श्रीकृष्ण जी बड़े हुए तो उन्होंने कंस का वध कर अपने माता-पिता को उसकी कैद से मुक्त कराया.

विधि

श्रीकृष्णजन्माष्टमीका व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना गया है। इस दिन उपवास रखें तथा अन्न का सेवन न करें। समाज के सभी वर्ग भगवान श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव-महोत्सव को अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार उत्साहपूर्वक मनाएं। गौतमीतंत्रमें यह निर्देश है-

उपवास: प्रकर्तव्योन भोक्तव्यंकदाचन। कृष्णजन्मदिनेयस्तुभुड्क्तेसतुनराधम:। निवसेन्नरकेघोरेयावदाभूतसम्प्लवम्॥

अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक में रहना पडता है।

धार्मिक गृहस्थोंके घर के पूजागृह तथा मंदिरों में श्रीकृष्ण-लीला की झांकियां सजाई जाती हैं। भगवान के श्रीविग्रहका शृंगार करके उसे झूला झुलाया जाता है। श्रद्धालु स्त्री-पुरुष मध्यरात्रि तक पूर्ण उपवास रखते हैं। अर्धरात्रिके समय शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम का दूध, दही, शहद, यमुनाजल आदि से अभिषेक होता है। तदोपरांत श्रीविग्रहका षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। कुछ लोग रात के बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीक स्वरूप खीरा चीर कर बालगोपाल की आविर्भाव-लीला करते हैं।

जागरण

धर्मग्रंथों में जन्माष्टमी की रात्रि में जागरण का विधान भी बताया गया है। कृष्णाष्टमी की रात में भगवान के नाम का संकीर्तन या उनके मंत्र
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जाप अथवा श्रीकृष्णावतारकी कथा का श्रवण करें। श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए रात भर जगने से उनका सामीप्य तथा अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जन्मोत्सव के पश्चात घी की बत्ती, कपूर आदि से आरती करें तथा भगवान को भोग में निवेदित खाद्य पदार्थो को प्रसाद के रूप में वितरित करके अंत में स्वयं भी उसको ग्रहण करें।
आज जन्माष्टमी का व्रत करने वाले वैष्णव प्रात:काल नित्यकर्मो से निवृत्त हो जाने के बाद इस प्रकार संकल्प करें-
ॐविष्णुíवष्णुíवष्णु:अद्य शर्वरीनामसंवत्सरेसूर्येदक्षिणायनेवर्षतरैभाद्रपदमासेकृष्णपक्षेश्रीकृष्णजन्माष्टम्यांतिथौभौमवासरेअमुकनामाहं(अमुक की जगह अपना नाम बोलें) मम चतुर्वर्गसिद्धिद्वारा श्रीकृष्णदेवप्रीतयेजन्माष्टमीव्रताङ्गत्वेनश्रीकृष्णदेवस्ययथामिलितोपचारै:पूजनंकरिष्ये।
वैसे तो जन्माष्टमी के व्रत में पूरे दिन उपवास रखने का नियम है, परंतु इसमें असमर्थ फलाहार कर सकते हैं।

जन्माष्टमी 10 को, जानिए श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े अनछूए पहलूओं को

भगवान विष्णु संसार के पालनकर्ता हैं। संसार में धर्म की स्थापना व अधर्म के नाश के लिए भगवान विष्णु ने कई अवतार लिए। इनमें से कुछ अंशावतार थे तो कुछ पूर्णावतार। द्वापर युग में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में आठवां अवतार लिया। श्रीकृष्ण का जन्म भादौ मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। हर वर्ष इस तिथि को दुनिया भर में भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव धूम-धाम व पूर्ण आस्था के साथ मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 10 अगस्त, शुक्रवार को है।

श्रीकृष्ण का पूरा जीवन हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। इनके जीवन चरित्र से हमें जीवन के कई अनमोल सूत्र मिलते हैं, जो वर्तमान समय के लिए बेहद जरुरी है। इन्हीं सूत्रों को अपनेजीवन से जोड़कर हम भी कामयाबी पा सकते हैं। इसके लिए आपको अपने जीवन में श्रीकृष्ण को उतारना होगा। केवल श्रीकृष्ण के आवरण को नहीं उनके आचरण को भी समझना होगा। भगवान श्रीकृष्ण की आराधना सबसे सरल और सीधी मानी गई है, जो शीघ्रफल देती है। श्रीकृष्ण कर्मकांड, जीवन में सफलता के सूत्र से लेकर...
तंत्र तक हर विधा में उच्च फल देते हैं।

जानिए, क्या है भगवान श्रीकृष्ण की 16 कलाओं का रहस्य

भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक रूपों में हमें जीवन के गूढ़ रहस्य समझाए हैं लेकिन श्रीकृष्ण की कुछ बातें आज भी हमें हमारी बुद्धि से परे हैं। हम सभी ने कभी न कभी यह जरुर सुना होगा कि भगवान श्रीकृष्ण 16 कलाओं से पूर्ण थे। किंतु यह कलाओं के पीछे क्या तथ्य हैं, यह बहुत कम लोगों को मालूम है। यहां हम आपको बता रहे हैं श्रीकृष्ण की इन्हीं 16 कलाओं का रहस्य-

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में रात को 12 बजे वृषभ लग्न में हुआ। अष्टमी के चंद्रमा को पूर्ण बली कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चंद्रमा की 16 कलाएं होती हैं जो प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक दिखाई देती है। रोहिणी चंद्रमा की सबसे प्रिय पत्नी है। इस काल में चंद्रमा उच्च पर होता है। ऐसे ही काल में चंद्रवंशी होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण चंद्रवंश के संपूर्ण प्रतिनिधि के रूप में 16 कलाओं से युक्त कहलाएं।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

भक्ति क्या है

विष्णु पुराण-में भक्ति की सर्वोत्तम परिभाषा दी गयी है
“ या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरत: सा मे हृदयान्मापसमर्पतु ॥"
‘‘हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे ।’’
सरल शब्दों में अपनी कमजोरियों को जानकर, मानकर व स्वीकार कर भगवान की शरण में जाना गहरे सुख व शांति देते हैं। ऐसी ही शरणागति के छ: उपाय शास्त्रों में बताए गए हैं-
प्रपत्तिरानुकूलस्य संकल्पोप्रतिकूलता।।
विश्वासो वरणं न्यास: कार्पण्यमिति षड्विधा।।
सार है कि छ: बातें स्मरण रख भगवान की शरण में जाएं -
- भगवान की भक्ति का संकल्प यानी उनके ही मुताबिक होने का मजबूत इरादा रखें। सद्गुणों, अच्छे विचार-व्यवहार को अपनाएं।
- भगवान के विपरीत न हों यानी अहंकार और अन्य सभी बुराईयों से दूर रहें।
- भगवान में गहरा विश्वास रखें।
- यह मानकर चलना कि भगवान हमारी रक्षा करेंगे।
- आप तन, मन या धन से कितने ही सबल हो, किंतु भगवान की भक्ति में दीनता का भाव रखें।
- भगवान के प्रति समर्पण का भाव।

महामृत्युंजय मंत्र का तार्किक अर्थ

त्रयम्बक -तीन आँखोवाले जो संहारक हैं, महाकाल हैं, कैसे मृत्यु से मुक्त कर सकते हैं ? जब जब उनकी तीसरी आँख खुली है संहार हुआ है | फिर इस त्र्यम्बक की यजामह अर्थात आराधना क्यूँ ?



क्या आपने महामृत्युंजय मंत्र के शब्दार्थ पर गौर किया है ?

मृत्यु और अनिष्ट से डरकर भगवान के शरण में जाना और फिर महामृत्युंजय मंत्र का अतार्किक पाठ शायद यही नियति बन गयी है | हमारे ऋषि मुनियों ने विज्ञान को धर्म से जोड़ा था कि लोग धर्मभीरुता में ही सही कम से कम वैज्ञानिक तथ्यों को अपने जीवन में आत्मसात करेंगे | मगर कालांतर में सामाज कि यही धर्मभीरुता धर्माधिकारियों के लिए जीविका पर्याय बन गया | तथ्य को छुपाया गया या तोड़ मरोड़ कर उसे विकृत रूप दे दिया गया | हिन्दुधर्म सिर्फ धर्म नहीं बनाया गया था बल्कि एक सहज जीवन प्रवाह था जिसे पोंगा पंथियों ने अपने फायदे के लिए क्लिष्ट कर दिया है | आइये समझते हैं महाकाल को प्रसन्न करने के लिए जपे जानेवाले महामृत्युंजय के शाब्दिक तथ्य को|

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

(भावार्थ-समस्त संसार के पालनहार तीन नेत्रों वाले शिव की हम आराधना करते हैं | विश्व में सुरभि फैलानेवाले भगवान शिव हमे मृत्यु ना की मोक्ष से हमें मुक्ति दिलायें|)

आखिर भावार्थ में जो भाव बताया गया है, इस की गहराई क्या है ?
त्रयम्बक -तीन आँखोवाले जो संहारक हैं, महाकाल हैं, कैसे मृत्यु से मुक्त कर सकते हैं ? जब जब उनकी तीसरी आँख खुली है संहार हुआ है | फिर इस त्र्यम्बक की यजामह अर्थात आराधना क्यूँ?
मृत्यु सत्य है, फिर इससे बचने के लिए, मृत्यु को अपने से दूर रखने का प्रयास क्यूँ? इसके लिए महाकाल की प्रार्थना क्यूँ? कहीं ये चापलूसी तो नहीं !!!???

त्र्यम्बक शायद यही शब्द वो कुंजी है जिसे लोगों ने छुपा कर रखा है | आप किसी आयुर्वेद के मर्मग्य से त्र्यम्बक का अर्थ पूछिए शायद आपकी शंका वो दूर कर सके |

हमारे शरीर के तीन तत्व वात-पित्त-कफ का सामजस्य ही हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है | यह आयुर्वेद का मत है | इनके असंतुलन होने पर शरीर में व्याधियां होती हैं |  यही वात-पित्त और कफ हमारे शरीर के सुगन्धित धातुओं (रक्त, मांस और वीर्य) का पोषण और पुष्टि करते हैं |  अगर ये धातु शरीर में पुष्ट हैं तो जरा-व्याधियां नहीं सताती |
महर्षि सुश्रुत अपनी संहिता के सूत्रस्थान में एक स्थान पर लिखते हैं कि-
विसगार्दानविक्षेपैः सोमसूयार्निला यथा ।

धारयन्ति जगद्देहं वात पित्त कपस्तथा । ।(सु०सू०२१)

अथार्त् जैसे वायु, सूर्य, चंद्रमा परस्पर विसर्ग आदान और विक्षेप करते हुए जगत को धारण करते हैं, उसी प्रकार वात, पित्त और कफ शरीर को धारण करते हैं । इस प्रकार शरीर में दोषों की उपयोगिता और महत्त्व इनके प्राकृत और अप्राकृतिक कर्मों के आधार पर है । यानि प्राकृतावस्था में शरीर का धारण तथा विकृतावस्था में विनाश ।
शिव के त्रिनेत्र हमेशा अधमुंदे दिखाए गए हैं | साम्य-सौम्य की प्रतिमूर्ति शिव जब रौद्र रूप धारण करते हैं तो त्रिनेत्र खुल जाते हैं | उनमे असंतुलन आ जाता है | फिर शिव संहारक बन शव की ढेर लगा देते हैं | अर्थात संसार का विनाश संभव हो जाता है |  यही हाल शरीर का भी है, अगर वात-पित्त-कफ संतुलित हैं तो आप स्वस्थ हैं | अन्यथा इनके असंतुलन से व्याधियां आ सकती हैं और मृत्यु भी निश्चित है |
शिव जब शांत होते हैं तो काल कूट हलाहल का भी शमन कर लेते हैं | वही हाल इस शरीर रूपी शिव का भी है | जब स्वस्थ है, संतुलित है तो यह भी बाह्य विषाणुओं का शमन कर लेता है |

मृत्यु एक अटल सत्य है | और सत्य से डरकर रहना निजहित में नहीं होता | हाँ यह मृत्यु अस्वाभाविक हुयी तो जरुर भय होता है | अपने शरीर में स्थित शिव तत्व को पहचानिये, आप स्वयं शिव हैं | शिव कि अर्चना कीजिये , इस शिव तत्व को पुष्ट कीजिये | जो आपको जरा व्याधियों के भय से हमेशा मुक्त रखे |

तो अगली बार जब आपको मृत्यु से भय लगे तो आप प्रसन्नचित होकर निज शिव कि शरण में जाएँ और करबद्ध प्रार्थना करें-

हम भगवान शिव की आराधना करते हैं , वो हमारे शरीर के तीनों तत्वों (वात-पित्त-कफ) के संतुलन से उत्पन्न सुगन्धित धातुओं(रक्त-माँस-वीर्य) की पुष्टि करें | जिससे हमें मृत्यु नहीं(मृत्यु सत्य है), बल्कि जरा-व्याधियों के भय से मुक्ति मिले |