गुरुवार, 19 जुलाई 2012

गुरु के भेद

शात्रों में गुरु के १२ भेद बतलाये गए हैं ---
अध्यापक २ पिता ३ज्येष्ठभाई ४राजा५मामा ६श्वसुर ७ रक्षक ८नाना ९ पितामह १०बन्धु ११अपने से बड़ा १२ चाचा ---
उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः! मातुलः श्वसुरस्त्राता मातामहपितामहौ !!
बन्धुर्ज्येष्ठःपितृव्यश्च पुन्स्येते गुरवः स्मृताः !!
स्त्री वर्ग में भी कौन २ गुरु हैं –इसकी भी परिगणना की गयी है –नानी ,मामी ,मौसी,सास, दादी ,अपने से बड़ी जो भी हो ,तथा जो पालन करने वाली है ! देखें ----
मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा !
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु !!
किन्तु जब प्राणी के ह्रदय में मुमुक्षा जागृत होती है तब उसे कहाँ जाना चाहिए इसका निर्देश भगवती श्रुति स्वयं कर रही है –तद्विज्ञानार्थं स गुरु मेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् !
श्रोत्रिय =शास्त्रवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास समिधा (एक बित्ते की कनिष्ठिका जितनी मोटी ३लकडियाँ) लेकर जाय ,इससे अपनी दीनता भी प्रकट होगी और राजा गुरु तथा देवता के पास रिक्त हस्त नहीं जाना चाहिए –रिक्तहस्तं नोपेयाद् राजानं दैवतं गुरुम् !---इस शास्त्र आज्ञा का पालन भी !ऐसे गुरुजन संसार से पूर्ण विरक्त आत्मचिंतननिष्ठ होते हैं ! तपश्चर्या और आत्मबल से परिपूर्ण इनका दर्शन भगवत्कृपा से ही संभव है ---
लभ्यतेपि तत्कृपयैव—नारदभक्तिसूत्र !ये ३ प्रकार के होते हैं ! जो विभाग इनकी क्रिया शैली के आधार पर किया गया है ---
१ स्पर्शदीक्षाप्रद गुरु ---स्पर्शमात्र से जो गुरुजन दीक्षा देते है वे इस कोटि में आते हैं इनके स्पर्श मात्र से कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण हो जाता है ! ये अपने स्पर्श से ही शिष्य का पोषण करने में समर्थ होते हैं ! उदाहरण के रूप में आप देख सकते हैं की पक्षी अपने बच्चों को चारा चुन्गाता है पर उनका संवर्धन अपने पंखों के द्वारा बार बार उन्हें पूर्ण स्पर्श पूर्वक ढककर करता है ! केवल आहार से पक्षियों के बच्चे नहीं बढते बल्कि माँ के स्पर्श से उनकी वृद्धि होती है! इसी श्रेणी के प्रथम गुरुजन हैं !
२ दृग्दीक्षाप्रद गुरु ---दृष्टि मात्र से जो जीवों का कल्याण करने में समर्थ होते है वे गुरुजन इस श्रेणी में आते हैं ! इसके दृष्टांत के रूप में हम मछली को प्रस्तुत करते हैं !मछली को दुग्ध नहीं होता इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं फिर वह अपने बच्चों का पालन कैसे करती है ? सुनें-- जब मछली जल में तैरती है तब छुधापीड़ित बच्चे उसकी आँखों के समक्ष आते हैं !मत्स्य की दृष्टि उन पर पड़ती है इसी से वे पुष्ट होते रहते हैं ! इस प्रकार के गुरुजन दुर्लभ होते हैं ये किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होते हैं !
३वैधदीक्षाप्रद गुरु ---ये गुरुजन उस कोटि के हैं जो अपने ध्यान मात्र से शिष्य का कल्याण करने में सक्षम होते हैं ! ये ध्यान मात्र से किसी की महाशक्ति कुण्डलिनी को जगा सकते हैं तथा भगवान की अविरल भक्ति प्राप्त कराने में भी समर्थ होते है इनसे एक बार किसी सौभाग्य शाली को जुड़ने का शुभ अवसर प्राप्त हो जाय तो उसे माया अपने मोह पाश में नहीं बाँध सकती है !भगवान कृष्णद्वैपायन व्यास जी में ये तीनों लक्षण थे ! तीर्थ, देवता और गुरु, विप्र तथा भगवान के पावन नाम में स्वल्प पुण्य वालों का विश्वास नहीं होता है ---
तीर्थे देवे गुरौ विप्रे ईश नाम्नि च पार्थिवे !
स्वल्प पुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते !!
गुरु को ब्रह्मा इसलिए कहा गया क्योंकि वे हमारे ह्रदय में विमल ज्ञान की सृष्टि करते है – गृ धातु से गुरु शब्द की निष्पत्ति होती है --गृणाति =उपदिशति ब्रह्म ज्ञानमिति गुरुः =जो भगवद् विषयक ज्ञान का उपदेश करें वे गुरु है ,अतः गुरु ब्रह्मा है नूतन ज्ञान की सृष्टि करने कारण !बार बार सचेत करते हुए उस ज्ञान का संरक्षण करते हैं इसलिए विष्णु हैं !और स्वप्रदत्त ज्ञान के द्वारा कुसंस्कारों तथा अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का विनाश करते हैं इसलिय संहारकारी शिव हैं !इन्हीं कारणों से उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा परब्रह्म कहा गया है -----
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः !
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः !! हाँ एक बात और जो मैंने इन ३ प्रकार की दीक्षाओं का निरूपण किया है ,वह कुलार्णव तंत्र में भगवान शिवजी के द्वारा भगवती पार्वती को उपदिष्ट हुई हैं और भागवत की श्रीधरी टीका पर जो वंशीधरी व्याख्या है उसमें १०/२/१८ में आप देख सकते हैं ! हम इस गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर इन सब गुरुजनो के श्रीचरणों में अपना श्रद्धासुमन समर्पित करते हुए कोटिशः प्रणाम करते हैं !

ब्राह्मण देवता क्यो है

दैवाधीनम जगत सर्वं , मंत्राधीनाश्च देवता |
ते मंत्रा ब्रम्हानाधीना , तस्मात् ब्राम्हण देवता
भावार्थ - सम्पूर्ण जगत देवताओं के अधीन है , देवता मन्त्रों के आधीन है , मंत्र ब्राम्हण के अधीन है , इसलिए ब्राम्हण देवता है |
भगवान श्री कृष्ण जी की वाणी
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“हे अर्जुन! न वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से, न योग और न मुद्रा आदि क्रियाओं से ही इस प्रकार तत्त्व रूप ‘मैं’ देखा जा सकता हूँ, जैसा मेरे को तुमने देखा है”। (श्रीमद भगवत गीता से)

भगवान श्री विष्णु जी... की वाणी
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“वेद पुराणों को जानता हुआ भी जो पुरुष परमार्थ तत्व को नहीं जानता, ऐसे उस विडम्बक का पड़ना और बोलना सब कुछ कौवों की तरह केवल टाय-टाय ही है”।

“मुक्ति न तो वेदों के अध्यन से होती है और न तो शास्त्रों के पड़ने से ही। मुक्ति तो हे गरुण केवल तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होती है”।

“परमब्रह्म कल्याण रूप अद्वैत है। वह कर्मकाण्ड, योग-साधना, मुद्राओं आदि क्रियाओं के परिश्रम से नहीं प्राप्त होता है और न करोड़ों शास्त्रों के पड़ने से ही मिलता है, वह केवल गुरु के सदुपदेश से ही मिलता है”।

“तभी तक ही तप, व्रत, तीर्थटन, जप, होम और देव पूजा आदि है तथा तभी तक ही वेद, शास्त्र और आगमों की कथा है, जब तक कि तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर ये सब कुछ भी नहीं है”। (गरुण पुराण से)

पतंजलि द्वारा निरूपित ईश्वर

महर्षि ने पहले यह बताया था कि भजन बैराग और अभ्यास, बिना उकताए हुए चित्त से, सांगोपांग निरंतर करने प्रर दृढ स्थिति वाला होता है | इससे चित्त वृत्तियाँ शांत और निरुद्ध हो जाती हैं, किन्तु यह नहीं बताया कि अभ्यास में चित्त को ठहराएं कहाँ ? आरम्भ कहाँ से करें ? क्या मूर्ती पूजा ( दुर्गा, हनुमान या शिव लिंग कि पूजा) या हवन करें ? नहीं | कहा कि

ईश्वर प्रानि...धानाद्वा ||योग दर्शन - १ / २३ ||

ईश्वर के प्रति समर्पण से समाधि शीघ्र ही सिद्ध होती है | किन्तु ईश्वर को तो हमने देखा नहीं | ईश्वर का स्वरूप क्या है ? इस पर कहते हैं कि ----

क्लेशाकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:|| योग दर्शन १ / २४ ||

क्लेश, कर्म, विपाक और आशय - इन चारों से जो सम्बन्धित नहीं है, "अप्राराम्रिष्ट:" - पूर्णत: निर्लेप है, परे है, जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह पुरुष विशेष ईश्वर है | यही ईश्वर कि परिभाषा है | संसार क्लेश, कर्म, कर्मों के संग्रह और आशय से बंधा है, इन सबसे अत्यंत परे ( जैसे कोई सम्बन्ध था ही नहीं - इतना परे) विशेष पुरुश ईश्वर है |
क्लेश अर्थात अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश जो जीव के दु:ख का कारण है, शुभ-अशुभ मिश्रित एवं शुभाशुभरहित कर्म उनके परिणाम और उन कर्म-संस्कारों कि वासना से जो सर्वथा उपराम है, वही ईश्वर है |
अर्थात उसके अर्थस्वरूप उन परमेश्वर का ध्यान करें | उनके प्रति श्रद्धा स्थिर करें | किन्तु ईश्वर को हमने देखा नहीं तो तब चिंतन कैसे करे? पहले ध्यान श्रद्धा से ही होता है, क्रमश: ईश्वर ही बोध करा देता है कि सदगुरु कोन है | ध्यान सदगुरु का ही किया जाता है | सदगुरु अव्यक्त ईश्वर स्वरूप है, मानव-तन के आधार वाला होता है | गीता ९/११ में श्री कृष्ण कहते हैं कि "मै परम का स्पर्श करके परमभाव में स्थित हूँ किन्तु हूँ मनुष्य शरीर के आधारवाला |" यही सदगुरु का स्वरूप है | जब सदगुरु का परिचय मिल जाएगा तब ध्यान और स्पष्ट हो जाएगा |

मंगल पाण्डेय

वीर पुरुष मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 को उत्तरप्रदेश के वलिया जिले के नगवा गाँव के ब्रह्मण परीवार मे हुआ था।जो बंगाल नेटिभ इंफ़ेनटरी मे सिपाही थे पर ये सिपाही तो भारत माता का सिपाही था।परतंत्रता की बेड़ीयो मे जकाड़ी वसुंधरा के दर्द को यह सिपाही बर्दास्त नही कर सका और उसके अंदर की देशभक्ती की भावना अपने कंपनी से विद्रोह के लिये मचल उठी और उसने 29 मार्च 1857 को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया।
....................ऐसे वीर पुरुष को उनके जन्मदिवस पर सत सत नमन!

बेल पत्र का उपयोग शिव जी की आराधना में क्यों किया जाता है

बेल पत्र का उपयोग शिव जी की आराधना में क्यों किया जाता है?
सावन महीने में भगवन शिव की आराधना की जाती है| सारे सनातनी गंगा की पवित्र जल से भगवन शिव का अभिषेक करते है| शिव की पूजा में गंगा जल, बेल पत्र, चन्दन, दूध, धतूरा आदि चीजो का प्रयोग किया जाता है| आज हमें यह जानने की जरुरत है कि इन सबके पीछे कौन सी वैज्ञानिक सोच है..??

बेल का पेड़ एक औषधि का वृक्ष है जिसमे अनेको ऐसे औषधीय गुण है जो मानव को स्वस्थ तो रख ही सकते है साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्छ रख सकते है| बेल पत्र मे अनेको ऐसे तत्व मिलते है जो की कीटाणु और विषाणु नाशक है जैसे की सल्फर, फास्फोरस आदि |
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: पादप
(अश्रेणिकृत) एकबीजपत्री
(अश्रेणिकृत) रोसिदै
गण: सापीन्दालेस
कुल: रुतासेऐ
उपकुल: औरान्त्योइदेऐ
ट्राइब: क्लौसेनेऐ
प्रजाति: ऐग्ले
कोरेआ
जाति: ऐ. मार्मेलोस
द्विपद नाम
'ऐग्ले मार्मेलोस
(L.) कोर्र.सेर्

रासायनिक संगठन

बेल के फल की मज्जा में मूलतः ग्राही पदार्थ पाए जाते हैं। ये हैं-म्युसिलेज पेक्टिन, शर्करा, टैनिन्स। इसमें मूत्र रेचक संघटक हैं-मार्मेलोसिन नामक एक रसायन जो स्वल्प मात्रा में ही विरेचक है। इसके अतिरिक्त बीजों में पाया जाने वाला एक हल्के पीले रंग की तीखा तेल (लगभग १२ प्रतिशत) भी रेचक होता है। शक्कर ४.३ प्रतिशत, उड़नशील तेल तथा तिक्त सत्व के अतिरिक्त २ प्रतिशत भस्म भी होती है। भस्म में कई प्रकार के आवश्यक लवण होते हैं। बिल्व पत्र में एक हरा-पीला तेल, इगेलिन, इगेलिनिन नामक एल्केलाइड भी पाए गए हैं। कई विशिष्ट एल्केलाइड यौगिक व खनिज लवण त्वक् में होते हैं।

अब हम बेल पत्र के उपयोग की पूरी प्रक्रिया को समझते है| सबसे पहले भक्त बेल पत्र को इकठ्ठा करने के लिए सुबह उठ कर आस पास के बगीचे में जाता है जहाँ उसे टहलने के क्रम में घास पर टहल कर जाना होता है जिससे उसे स्वास्थगत लाभ मिलता है घास पर ओस की बूंदों से वो काफी स्वस्थ महसूस करता है साथ ही उसके आँखों जी ज्योति भी बढती है| इसके उपरान्त हाथो से जब वो बेल पत्रों को तोड़ता है तो ओस की बूंदों को स्पर्श करता है जिससे वो और भी तरोताजा महसूस करता है इन बेल पत्रों को को इकठ्ठा करने के क्रम में भी उसे अनेको लाभ मिलते है|

पूजा करते समय बेल पत्रों को जल के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है| और भक्त पुरे मन से शिव की आराधना करते है| जिससे की भक्त को एक अलौकिक सुख मिलता है| संध्या को मंदिर का पुजारी सारे पुष्प और बेल पत्रों को एकत्र करके पास के नदी या तालाब में ड़ाल देता है| जैसा की हम लोग जानते है सावन में जोरो की बारिश होती है और ये बारिश का पानी सभी जगह के गंदगियो को बहा कर अपने साथ नदियों और तालाब में ले आता है| इस गंदगी के वजह से सारे नदी और तालाब गंदे हो जाते है और उसमे रहने वाले जीव जंतु मरने लगते है| इसलिए तालाब को साफ़ रखने के लिए कोई भी कारगर उपाय नहीं होता है| इसलिए उसमे बैल पत्र डालने से उनका पानी अपने आप साफ और स्वच्छ हो जाता है|

बैल पत्रों में निहित तत्व गंदगियो को समेट कर नदी के किनारों पर जमा करने लगती और तालाब में इन गंदगियो को समेट कर तालाब के तली में और किनारों पर जमा करने लगती है जिससे की नदी और तालाब साफ़ हो जाते है| उसके दूषित तत्व पानी से अलग हो जाते है और उसका पानी निर्मल हो जाता है साथ है उसमे औषधीय गुण भी आ जाते है जो त्वचा रोग को ठीक कर सकता है|

अतः मूर्ख लोगो द्वारा कहा जाना की ये सिर्फ एक रूढ़िवादिता है एक बहुत बड़ी मूर्खता है| सनातन धर्म के विज्ञानं को समझाने की जरुरत है जो की हमारे फायदे के लिए बनाया गया है| ताकि हम अपना जीवन स्वस्थ रख सके साथ ही वातावरण को भी स्वस्थ रख सके|

बिल्वपत्र का महत्त्व एवं प्रयोग----पंडित दयानन्द शास्त्री

मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।

महादेव का रूप है वृक्ष---
बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-

बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्।
य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्रापनुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥ शिवपुराण १३/१४

अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है।
जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।

बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्र----
बिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा।
गृहामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥ [ -आचारेन्दु]

अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।

पत्तियां कब न तोड़ें

विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-

>> सोमवार के दिन >> चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को। >> संक्रांति के पर्व पर।

अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवास।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ लिंगपुराण
अर्थ
अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।


क्या चढ़ाया गयाबिल्व-पत्र भी चढ़ा सकते हैं---
शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्व-पत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ स्कन्दपुराण, आचारेन्दु,

अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।

विभिन्न रोगों की कारगर दवा--बिल्व-पत्र----

आचार्य चरक और सुश्रुत दोनों ने ही बेल को उत्तम संग्राही बताया है। फल-वात शामक मानते हुए इसे ग्राही गुण के कारण पाचन संस्थान के लिए समर्थ औषधि माना गया है। आयुर्वेद के अनेक औषधीय गुणों एवं योगों में बेल का महत्त्व बताया गया है, परन्तु एकाकी बिल्व, चूर्ण, मूलत्वक्, पत्र स्वरस भी अत्यधिक लाभदायक है। चक्रदत्त बेल को पुरानी पेचिश, दस्तों और बवासीर में बहुत अधिक लाभकारी मानते हैं। बंगसेन एवं भाव प्रकाश ने भी इसे आँतों के रोगों में लाभकारी पाया है। यह आँतों की कार्य क्षमता बढ़ती है, भूख सुधरती है एवं इन्द्रियों को बल मिलता है ।

बेल फल का गूदा डिटर्जेंट का काम करता है जो कपड़े धोने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। यह चूने के प्लास्टर के साथ मिलाया जाता है जो कि जलअवरोधक का काम करता है, और मकान की दीवारो सीमेंट में जोड़ा जाता है। चित्रकार अपने जलरंग मे बेल को मिलाते है जो कि चित्रों पर एक सुरक्षात्मक परत लगाता है। बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। वर्त्तमान समय में लोक वजन घटाने के लिए डाईटिंग करते है उनके लिए बेल का फल वरदान है बेल के फल का गूदा खाने से भूख नहीं लगती
इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।
पूजन में महत्व---

वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है।

भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दु:ख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वत: प्रेरित करती है।

पूजा में चढ़ाने का मंत्र---
भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र पौराणिक है।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता

काशी


काशी संसार की सबसे पुरानी नगरी है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है-काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:।पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवरबन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधवके नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने कुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दि...या, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षो तक अनेक तीर्थो में भ्रमण करने पर भी वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थकहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजीसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गई। एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगातटपर वाराणसी नगर बसाया  था

विज्ञान के अछूते पहलू

जिस समय न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की
गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना
बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये
हमारे लिए शर्म की बात है.

... भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-

आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी
पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर
जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश
में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ
संतुलन बनाए रखती हैं।

ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे
आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता
स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है !
अगर आप अपनी पोस्ट को
अपनी भाषा हिंदी में लिखें तो निश्चय ही आपका प्रभाव और भी बढ़ जायेगा .
हिंदी हमारे देश भारत वर्ष की राष्ट्र भाषा है .....प्रयोग कीजिये ...अच्छा
लगता है ..इसके प्रयोग से हमारा मान सम्मान और भी बढ़ जाता

विज्ञान के अछूते पहलू

जिन्हें भी भौतिक विज्ञान की थोड़ी जानकारी होगी, वे जानते होंगे की
प्रत्यास्थता पदार्थों का वह गुण है जिसके प्रभाव से बाहरी दवाब पड़ने पर भी
वह अपने आकार को दुबारा पा लेते हैं।
यह पदार्थों के ऐसा गुण है, जिससे वाह्य बल लगाने पर उसमें विकृति आती है।
लेकिन बल हटते ही वह अपनी मूल स्थिति में आ जाता है।
... हम सब जानते हैं कि ब्रिटिश भौतिक शास्त्री Robert Hooke ने सन 1676 ईस्वी में
एक नियम भी दिया। इसके अनुसार, किसी प्रत्यास्थ वस्तु की लम्बाई में परिवर्तन,
उस पर आरोपित बल के समानुपाती होता है।

अब भारतीय हिन्दू विद्वान श्रीधराचार्य की चर्चा कि जाए। 991 ईस्वी में
इन्होंने एक श्लोक लिखा :

ये घना निबिड़ाः अवयवसन्निवेशाः तैः विशष्टेषु
स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमानः स्थितिस्थापकः स्वाश्रयमन्यथा
कथमवनामितं यथावत् स्थापयति पूर्ववदृजुः करोति।

इसका मतलब है:

लचीलापन सघन बनावट वाले पदार्थों का मौलिक गुण है। यह वाह्य बल लगाने के
बावजूद पदार्थ को वापस उसके मूल आकार में आने में मदद करता है।

स्पष्टतः हिंदुओं को पश्चिम से लगभग 7 शताब्दी पूर्व ही इसका ज्ञान था

काशी विश्वनाथ मंदिर

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, स्‍वामी दयानंद, गोस्‍वामी तुलस...ीदास सभी का आगमन हुआ हैं।

पहले सम्राट अकबर ने इस मंदिर को बनवाने की अनुमति दी थी। बाद में औरंगजेब ने १६६९ में इसे तुड़वा दिया और यहाँ ज्ञानवापी नामक सरोवर के स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी थी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन् १७८० में करवाया गया था। बाद में महाराजा रंजीत सिंह द्वारा १८५३ में १,००० कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा निर्मित या सुशोभित कराया गया था।

हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होँने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्री वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।

सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहाँ प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवं दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है।

विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं।
* दशाश्वेमघ,
* लोलार्ककुण्ड,
* बिन्दुमाधव,
* केशव और
* मणिकर्णिका
और इनहीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है।

भारतीय वर्ण व्यवस्था मे शूद्र को जाने-इतिहास के पन्नो से

सोचिये जरा...!!
जिन लोगो को आज हम, मेहतर, या बाल्मीकि कहते है.जिन्हें सर पर मैला ढोने के कारण अछूत कहा गया जिनको दुत्कारा गया ये लोग चन्द्रवंशी क्षत्रिय हुआ करते थे जिन्होंने मुगलों से हार जाने और बंदी बनने के बाद भी सर पर मैला ढोया कोड़े खाए मगर इस्लाम नहीं कबूला ये सच्चे राष्ट्रवादी और धर्मनिष्ठ थे...
मुसलमानों का अत्याचार सहा हिन्दुओं का उपहास सहा
मगर न राम को भूले न कृष्ण को ये पूज्य नहीं तो और कौन हैं... इनसे बढ़ के हिन्दू कौन है...???
इन्होने अपनी बस्तियों के पास सूअर पाले.. उनसे बिष्ठा साफ करवाया..
मिएँ डर से इनकी बस्तियों पर हमला नहीं करते थे... सूअरों के कारण...
इनकी सेवा करने के लिए इनकी जाति में ही जन्म लेना जरूरी नहीं..
केवल एक करुणामय ह्रदय होना चाहिए...!
मित्रो सच का सामना करो देश के लिए जिन्होंने इतना सहा है उनको उनका हक़ व् सन्मान दो तभी हिंदुत्व बचेगा

यदि कोई इस समाज का हमारे पास आता है, तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। उसे घर के अन्दर नहीं लेते परन्तु जब कोई मुसलमान हमसे मिलता है तो हम उससे बिना झिझक मिलते है जबकि ये मुसलमान तो गद्दार है क्योकि उस समय मुगलों ने जजिया नाम का कर लगाया था जिसमे हिन्दू को अपनी चोटी रखने के लिए जजिया नाम का कर देना होता था जो संपन्न थे वे देदेते थे लेकिन जो दे नहीं पाते थे वो इस्लाम कबूल कर लेते थे आज भारत के सारे मुसलमान इसी तरह हिन्दू से मुसलमान बने है लेकिन कुछ दिलेर लोग थे जिन्होंने न तो कर दिया और न इस्लाम कबूला ये लोग ही आज के वाल्मीकि समाज के है

कालान्तर में ब्राह्मणों के छुआछूत के कारण ईसाई मिशनरीज ने इनको बरगला कर ईसाई बनाने का षडयंत्र किया जब उसके सीर पर एक कटोरा पानी डालकर किसी पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना दिया जिसे बप्तिस्मा कहा जाता फिर वह व्यक्ति कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच सकता है , उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है? इसी कारण अंग्रजो के काल में हिन्दुओ का ईसाई कारण हुआ आज, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग इन भोले भाले अछूत कही जाने वाली जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...
वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है!

उपरोक्त बाते मेने नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर के उपन्यास के आधार पर लिखी है

नाच्यौ बहुत गोपाल’ यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर का, उनके अब तक के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा मौलिक उपन्यास है। इसमें ‘मेहतर’ कहे जानेवाले अछूतों में भी अछूत, अभागे अंत्यजों के चारों ओर कथा का ताना-बाना बुना गया है और उनके अंतरंग जीवन की करुणामयी, रसार्द्र और हृदयग्राही झांकी प्रस्तुत की गई है। ‘मेहतर’ जाति किन सामाजिक परिस्थितियों में अस्तित्व में आई, उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं क्या हैं, आदि प्रश्नों के उत्तर तो दिए ही गए हैं, साथ ही वर्तमान शताब्दी के पूर्वार्द्ध की राष्ट्रीय और सामाजिक हलचलों का दिग्दर्शन भी जीवंतता के साथ कराया गया है। वस्तुतः ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ की कथा का सुंगुम्फन एक बहुत व्यापक कैनवास पर किया गया है।

ढाई-तीन वर्षों के अथक परिश्रम से, विभिन्न मेहतर-बस्तियों के सर्वेक्षण व वहां के निवासियों के ‘इंटरव्यू’ के आधार पर लिखी गई इस बृहद् औपन्यासिक कृति में नागरजी के सहृदय कथाकार और सजग समाजशास्त्री का अद्भुत समन्वय हुआ है।

आईये थोड़ा इतिहास का अवलोकन कर ले

भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल एवं प्राचीन देश है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों के अंतर्गत तकरीबन साढ़े छह हजार जातियां हैं, जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं मेहतर को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है.
मनु महाराज अपने ग्रंथ मनु स्मृति में अध्याय 10 के श्लोक 51 से 56 तक में लिखते हैं कि चांडालों के आवास गांव से बाहर होंगे. उन्हें अपात्र बना देना चाहिए. वे चिह्रित प्रतीकों के जरिये पहचाने जायें, दूसरे लोग उनके संपर्क में न आयें. चांडालों का पात्र टूटा हुआ बरतन होगा, भोजन जूठा व बासी होगा, जो दूसरों द्वारा दिया हुआ होगा. इनका कार्य होगा लावारिस लाशों को दफनाना. संपत्ति होंगे कुत्ते व गधे और वस्त्र होगा मुरदों का उतरन.

पराशर स्मृति (अध्याय- छह, श्लोक - 24) तथा व्यास स्मृति (अध्याय-1 /11, श्लोक - 12) में चांडालों के बारे में लिखा गया है कि अगर कोई व्यक्ति चांडाल, को भूल से भी देख ले तो उसी समय सूर्य की ओर देख ले और स्नान क रे, तभी वह शुद्ध हो सकता है.

इतिहासकार झा और श्रीमाली अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास (पृष्ठ संख्या-310) में लिखते हैं कि जिस प्रकार फाहियान ने पांचवी शताब्दी में अछूतों का वर्णन कि या है, उसी प्रकार ह्वेनसांग ने भी अस्पृश्यता का उल्लेख किया है. वह लिखता है कि कसाई और मेहतर नगर के बाहर ऐसे मकानों में निवास करते थे, जो विशेष चिह्र से जाने जा सकते थे. साधारणत: चांडालों की श्रेणी से मेहतर और डोम नाम की जाति प्रकट हुई, जिनका पेशा सड़कों और गलियों को साफ करना, विष्ठा(मल)उठाना, श्मशान में शवों को दफन करना, अपराधियों को फांसी पर लटकाना और रात में चोरों को पकड़ना था.
एक दूसरे मत के अनुसार गुप्त काल में भूमि हस्तानांतरण अथवा भूमि राजस्व की प्रथा से कायस्थों के रूप में एक नयी जाति का जन्म हुआ, जिन्होंने ब्राह्मणों के लेखन संबंध एकाधिकार को चुनौती देते हुए उनके वर्चस्व को समाप्त कर दिया. यही कारण है कि परवर्ती ब्राह्मण साहित्य में कायस्थों की बड़ी भर्त्सना की गयी है, उन्हें शूद्र तक कहा गया है.

ठीक उसी समय (गुप्त काल) उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गांव के सरदारों और मुखिया की एक श्रेणी उभर कर आयी जो महत्तर कहलाते थे. उन्हें जमीन की अदला-बदली की सूचना दी जाती थी, जो बाद में एक जाति के रू प में परिणत हो गये. संभवत: आज के मेहतर ही गुप्त काल में महत्तर कहलाता हो. और गुप्तकालीन महत्तर का अपभ्रंश होकर आज मेहतर हो गया हो, जिसका आधिपत्य मुखिया और सरदार के रूप में उत्तर भारत के गांवों में रहा होगा. मेहतर समाज के सामाजिक ढांचे में भी पुराने समय से मुखिया और सरदारी प्रथा कायम है जो गुप्त कालीन महत्तर समाज से मेल खाता है. हो सकता है कायस्थों की तरह गुप्त काल में मेहतरों ने भी ब्राह्मणों को चुनौती दी हो और कुपित ब्राह्मणों ने उन्हें भी नीच, पतित और चांडाल घोषित कर समाज से बहिष्कृत कर इनसे शिक्षा और शासन का अधिकार छीन लिया हो. इस तरह मुख्यधारा से कटे तथा समाज से भंग किये हुए लोग कालांतर में इस समाज के कहलाये हों और सजा के तौर पर मानव के मल को ढोने को मजबूर कर दिये गये हों.

विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यता, सिंधु घाटी के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई से भी यह स्पष्ट हो गया है कि उस समय मानव मल ढोने की प्रथा नहीं थी, बल्कि आज की तरह आधुनिक सीवर प्रणाली के शौचालयों का प्रमाण मिलता है. इससे पता चलता है कि मानव से मल ढुलवाने की प्रथा शुरू की नहीं है, बल्कि बाद की है.

ऐसा नहीं है की यह समाज हमेशा से ही गरीब विपन्न था किसी जमाने में मेहतर समाज से भी राजा हुआ करते थे देखिये यह कहानी जिससे पता चलता हैकि इन लोगो का इतिहास बहुत पुराना और गौरव शाली रहा है

जगन्नाथ मन्दिर से जुड़ी ऐसी तमाम कथायें और परम्पराये मन्दिर की मांदरा – पंजी (पंजिका) में दर्ज हैं
इस बार के ओड़िशा प्रवास में हम पुरी से आ रहे हैं यह जानने के बाद ९३ वर्षीय अन्नपूर्णा महाराणा ने पंजी के बारे में तथा इस पंजी में दर्ज कुछ कहानियाँ हमें सुनाई । कहानियाँ सुनाने की उनकी इस अद्भुत क्षमता का लाभ हमें मिल। अपनी आत्मकथा के लिए उन्हें ओड़िशा राज्य साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है । स्वतंत्रता-समर में वानर-सेना में संगठन से उनकी सक्रियता शुरु हुई फिर १९३० से १९४२ के बीच की कई जेल-यात्राओं का लाभ उन्हें मिला । स्वयं ’पण्डों के जगन्नाथ’ मन्दिर में नहीं जातीं क्योंकि गांधी और विनोबा को मंदिर में नहीं जाने दिया गया । इन दोनों को जाने नहीं दिया गया क्योंकि इनके साथ दलित मन्दिर-प्रवेश करते।

सबसे बेहतर मेहतर
पुरी के जगन्नाथ शबर आदिवासियों के पास थे । पुरी के राजा ने उनसे कहा कि वे जगन्नाथ को उन्हें दे दें। साबरों ने इन्कार कर दिया । पुरी की राजा का एक मन्त्री शबर लोगों के राज में जा कर बसा , वहाँ की राज-कन्या से ब्याह रचाया और तब जगन्नाथजी को माँग कर पुरी में बसाया गया। यह समझौता हुआ कि साल में एक माह जगन्नाथ की सेवा-टहल शबर ही करेंगे । जिस पेड़ की लकड़ी से प्रतिमा बनाई जाती है उसकी तलाश आज भी साबर ही करते हैं । यह परम्परा आज भी चली आ रही है ।
कांची की राज कन्या अपरूपा थी । पुरी के राजा ने राजदूत भेज कर उससे विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। कांची के राजा ने यह कह कर प्रस्ताव नामंजूर कर दिया कि पुरी का राजा तो मेहतर है , झाड़ू लगाता है । कांची के राजा के मन्त्री ने रथ यात्रा के सामने पुरी के राजा को झाड़ू लगाते देखा था।

पुरी के राजा ने तय किया कि वह कांची पर आक्रमण करेगा। राजा ने अपने आराध्य देवता से प्रार्थना की कि वे इस युद्ध में उसका साथ दें । कहा जाता है कि जगन्नाथ और बलभद्र ने भी राजा का साथ दिया । मन्दिर में खुदे एक शिल्प में दोनों भाइयों को घोड़ों पर सवार दिखाया भी गया है । श्यामवर्णी जगन्नाथ और गौर बलभद्र । दोनों भाई जब पुरी के निकट मानिक पटना पहुंचे तब उन्हें प्यास लगी । वहां एक बुढ़िया से उन्होंने पानी माँगा । बुढ़िया ने पानी के बजाए उन्हें दही दिया। इस इन भाइयों की पास चूँकि पैसे नहीं थे इसलिए जगन्नाथ ने उसे अपनी अँगूठी दे दी । वृद्धा का नाम मनिका था। गांव का नाम इन्हीं के नाम से मानिक पटना पड़ा । मानिक पटना का दही आज भी प्रसिद्ध है ।

कांची में हुए युद्ध में पुरी नरेश की सेना पराजित हो रही थी । जगन्नाथ – बलभद्र भी हार गये। जगन्नाथ के ३६ सेवकों ने तब युद्ध की अनुमति मांगी। यह सेवक खण्डायत ( क्षत्रीय ) न थे इसलिए युद्ध में भाग नहीं ले रहे थे। कोई सिर की मालिश करने वाला ,कोई हाथ दबाने वाला , कोई चरणकमलरजधूलिदास-ऐसे ही कुल ३६ सेवक ! राजा ने इन ३६ सेवकों को युद्ध करने की इजाजत दे दी । इन्होंने राजा को जिता दिया ।

कांची की राज-कन्या को लेकर पुरी राजा लौटे । रास्ते में मानिक पटना में उसी बुढ़िया ने जगन्नाथ की दी हुई अंगूठी राजा को देकर पैसे पा लिए ।राजा ने अपने मन्त्री को कहा कि विजित राज-कन्या को ले जाये तथा योग्यतम मेहतर देख कर उसका ब्याह दे दे । मन्त्री भारी सोच में पड़ गया । आखिरकार उसने रथयात्रा के सामने जब राजा झाड़ू लगा रहा था उसी समय राजा के गले में जयमाल डालने के लिए कहा । इस प्रकार योग्यतम मेहतर से कांची की राज-कन्या पद्मावती का विवाह सम्पन्न हुआ।
पुरी में धूम-धाम से जश्न मनाया गया । तमाम योद्धाओं को राजा ने सम्मानित किया । उन ३६ सेवकों ने भी राजा से कहा कि हमें भी सम्मानित किया जाए । राजा ने मन्त्री से पूछा कि इन्हें कैसे सम्मानित किया जाए ? मन्त्री ने सलाह दी कि उन्हें खण्डायत घोषित किया जाए । राजा ने ऐसा ही किया । वे तेली खण्डायत , नाऊ खण्डायत जैसे नामों से जाने गये ।

 1857 क्रांति के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष की लगातार उपेक्षा की गई है

'इतिहास वह नहीं होता जो हम पढ़ते हैं बल्कि इतिहास अतीत के साथ संवाद का दूसरा नाम है। इतिहास जिस तरह से हमें पढ़ाया गया है उससे हम अपने अतीत को सही तरीके से नहीं देख सकते। 1857 की क्रांति का यदि मूल्यांकन करें उस पर पुनर्विचार करें तो हम देखेंगे कि इस क्रांति के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष की लगातार उपेक्षा की गई है। मातादीन हेला, लाजो, गंगादीन मेहतर, बिजली पासी, झलकारी बाई, अवंतीबाई लोधी, उदा देवी आदि अवर्ण योध्दाओं, वीरांगनाओं की भूमिका को हमने कम करके आंका है। यहां तक कि उस पर पर्दा डालने की लगातार कोशिश की गई है जबकि उनकी सहभागिता उल्लेखनीय थी और उनके बहादुरी की गाथायें इतने सालों बाद भी जनमानस में, लोक कथाओं में मौजूद हैं'। यह उद्गार थे सुभाष गाताडे के|
म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ की शिवपुरी इकाई द्वारा शहीद तात्याटोपे मेला मंच पर '1857 की क्रांति में दलित एवं आदिवासियों के योगदान' विषय पर
आयोजित विचार गोष्ठी में सामाजिक चिंतक, लेखक, पत्रकार सुभाष गाताडे ने आगे कहा पर मंजर यह है कि दलितों की दावेदारी सियासत में बढ़ी तभी हमने उसे इतिहास में रेखांकित किया है। समय के साथ अतीत बदलता जाता है। हमें इतिहास की विवेचना करनी चाहिये। राष्ट्रवादी विमर्श की कुछ सीमायें हैं। वर्णाश्रमी आग्रहों को नजरअंदाज कर ही हम 1857 क्रांति की सही विवेचना कर पायेंगे। क्यों दलित आदिवासी 1857 विमर्श से गायब हो गये? मातादीन हेला, लाजो, गंगू मेहतर के नाम क्यों कोई नहीं जानता? ये कुछ सवाल हैं जिनके जवाब हमें खोजना होंगे। इतिहास को रिकवर करना पड़ेगा तभी हम 1857 महासमर के शूद्र-अतिशूद्र पक्ष के साथ इंसाफ कर पायेंगे। 1857 क्रांति के विरोधभासी चरित्र और क्रांति की विफलता की समीक्षा करते हुये श्री गाताडे ने आगे कहा सामंती राजा-महाराजाओं के उस समय के यदि घोषणा पत्र देंखे तो हमें मालूम चलेगा कि वह किस तरह का समाज बनाना चाहते थे। घोषणा में कई बातें प्रतिक्रियावादी थीं और इस हकीकत से कौन इनकार कर सकता है कि जिन 8-10 लोगों के नाम क्रांति में प्रमुखता से आते हैं उनमें से कई लोगों ने बाद में अंग्रेजों के दरबार में माफी की गुहार लगाई थी

विचार

आज इस समत्व की आवश्यकता सबसे अधिक सामाजिक क्षेत्र में है। भारतीय समाज की अवधारणा व प्रयोजन आनंद की प्राप्ति है। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में व्याप्त विभिन्न दृष्टिकोणों और प्रयोजनों में समतुल्यता हो अर्थात् समाज में कोई विचारधारा विशेष न तो अतिशय उग्र हो और न अत्यंत क्षीण या निर्बल हो। धनी-निर्धन, अभिजात वर्ग तथा जनसाधारण, ग्राम्य और नगर के बीच की दूरी कम हो। स्वार्थ लोलुपता न हो। स्व और आत्म का... चेतनायुक्त विकास महत्वपूर्ण है। यहा बाहरी दुनिया को, समाज को अपने अंतस का सर्वश्रेष्ठ दिए जाने का संकल्प है। हमारे वेदों और साहित्य में प्रयुक्त श्लोक, सूक्ति, ऋचा, मंत्र और दोहे-चौपाई, इसी कल्याणकारी भावना से भरे-पूरे हैं। यह भाव मानवता का संचार करता है और चेतना का अहर्निश विस्तार। गोस्वामी तुलसीदास, वाल्मीकि आज इसीलिए अमर हैं, क्योंकि उन्होंने राम के रूप में एक ऐसा आदर्श हमारे सामने रखा, जिसने जीवन के हर क्षेत्र में समरसता का उदाहरण प्रस्तुत किया। महात्मा गाधी के नेतृत्व में स्वाधीनता की प्राप्ति हेतु देशवासियों ने अपनी निजी सत्ता, धर्म-सत्ता तथा अर्थ-सत्ता का सामूहिकता में लोप कर दिया था। हमारे यहा एक नहीं महापुरुषों के ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जिन्होंने समाज के लिए अपने जीवन को अर्पित कर दिया

आरोग्यनिधि

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में इन तीन बातों की अत्यधिक आवश्यकता होती है – स्वस्थ जीवन, सुखी जीवन तथा सम्मानित जीवन। सुख का आधार स्वास्थ्य है तथा सुखी जीवन ही सम्मान के योग्य है।
...
उत्तम स्वास्थ्य का आधार है यथा योग्य आहार-विहार एवं विवेकपूर्वक व्यवस्थित जीवन। बाह्य चकाचौंध की ओर अधिक आकर्षित होकर हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं इसलिए हमारा शरीर रोगों का घर बनता जा रहा है।

‘चरक संहिता’ में कहा गया हैः

आहाराचारचेष्टासु सुखार्थी प्रेत्य चेह च।
परं प्रयत्नमातिष्ठेद् बुद्धिमान हित सेवने।।
'इस संसार में सुखी जीवन की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान व्यक्ति आहार-विहार, आचार और चेष्टाएँ हितकारक रखने का प्रयत्न करें।'

उचित आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य – ये तीनों वात, पित्त और कफ को समान रखते हुए शरीर को स्वस्थ व निरोग बनाये रखते हैं, इसीलिए इन तीनों को उपस्तम्भ माना गया है। अतः आरोग्य के लिए इन तीनों का पालन अनिवार्य है।

यह एक सुखद बात है कि आज समग्र विश्व में भारतीय के आयुर्वेद के प्रति श्रद्धा, निष्ठा व जिज्ञासा बढ़ रही है क्योंकि श्रेष्ठ जीवन-पद्धति का जो ज्ञान आयुर्वेद ने इस विश्व को दिया है, वह अद्वितीय है। अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ केवल रोग तक ही सीमित हैं लेकिन आयुर्वेद ने जीवन के सभी पहलुओं को छुआ है। धर्म, आत्मा, मन, शरीर, कर्म इत्यादि सभी विषय आयुर्वेद के क्षेत्रान्तर्गत आते हैं।

आयुर्वेद में निर्दिष्ट सिद्धान्तों का पालन कर के हम रोगों से बच सकते हैं, फिर भी यदि रोगग्रस्त हो जावें तो यथासंभव एलोपैथिक दवाइयों का प्रयोग न करें क्योंकि ये रोग को दूर करके 'साइड इफेक्ट' के रूप में अन्य रोगों का कारण बनती हैं।

श्री योग वेदान्त सेवा समिति ने प्रस्तुत पुस्तक में आयुर्वेद के विभिन्न अनुभूत नुस्खों का संकलन कर ऐसी जानकारी देने का प्रयास किया है जिससे आप घर बैठे ही विभिन्न रोगों का प्राथमिक उपचार कर सकें। आशा है आप इसका भरपूर लाभ लेंगे।

विनीत,
श्री योग वेदान्त सेवा समिति,
अमदावाद आश्रम।
 

कैसे हुई स्थूल जगत की रचना

 जल तत्त्व
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चेतन, आकाश, वायु तथा तेज द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न एक द्रव विशेष ही जल है। दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग आक्सीजन के मेल से उत्पन्न द्रव पदार्थ जल(H २O ) है।
... गुण – शुक्र, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार ये पाँच जल तत्त्व के गुण हैं। शरीर संचालन हेतु वायु के समान ही रक्त की भी आवश्यकता होती है और रक्त जल के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। यही कारण है कि संचालन में जलतत्त्व की भी एक विशेष भूमिका होती है।
रस - जल तथा जल से युक्त वस्तु की यथार्थतः पहचान करने वाले विषय को रस कहते हैं।
यह बात भी सत्य है कि आकाश, वायु, तथा तेज इन तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के मेल से उत्पन्न चौथा पदार्थ जल (H २O ) है। इसी कारण यह भी सत्य है कि तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के गुण व विषय भी जल पदार्थ में समाहित हों अर्थात् जल की जानकारी शब्द, स्पर्श, रूप आदि के माध्यम से भी इनकी अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा हो सकती है परन्तु स्पष्टतः पहचान रस से ही होगी क्योंकि रस जल मात्र का ही अपना विशेष विषय है।
अतः “जलतत्त्व की यथार्थतः पहचान कराने वाला विषय मात्र ही रस है।”
रसना (जीभ)- जल तथा जल से युक्त पदार्थ की यथार्थ जानकारी तथा पहचान कराने वाले रस को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही रसना है। चूंकि जल में आकाश, वायु तथा तेज तत्त्व भी समाहित रहता है क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इन उपर्युक्त तीनों पदार्थों के गुण व विषय का होना स्वाभाविक ही है। इसलिए जल को हम शब्द, स्पर्श रूप के माध्यम से कर्ण, त्वचा, चक्षु के द्वारा भी जान सकते। अतः रस व रसना ही जल का अपना विषय व ज्ञानेन्द्रिय है जिसके माध्यम से ही जल की यथार्थता की जानकारी व पहचान होती है अन्य से नहीं।
लिंग- यह वह इन्द्रिय है जो जल के माध्यम से शरीर की गंदगी को साफ करते हुये गंदगी से युक्त जल (शुक्र, मूत्र आदि) को बाहर कर देती है। इसीलिए इसे कर्मेन्द्रिय कहते हैं। यह (लिंग) जल तथा जल से युक्त पदार्थों के त्याग के द्वारा अपने प्रधान ज्ञानेन्द्रिय रसना को जल की शुद्धता-अशुद्धता के ज्ञान तथा ग्रहण करने में सहयोग प्रदान करता है। चूंकि लिंग का अभीष्ट देवता प्रजापति होता है, इसलिए यह शुक्र के त्याग द्वारा प्रजाओं की उत्पत्ति में भी एक मात्र सहयोगी का कार्य करता है जो सामान्य स्थिति में इसके बिना असम्भव होता है।
 

पृथ्वी तत्त्व
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“चेतन, आकाश, वायु, तेज, जल द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न ठोस पदार्थ ही पृथ्वी तत्त्व है।”
... पृथ्वी वह पदार्थ है जो उपर्युक्त चारों पदार्थों तथा उन चारों की संयुक्त क्रियाशीलता से उत्पन्न पाँचवाँ पदार्थ जो ठोस रूप में ही हो, साथ ही जिसमें सभी विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गन्ध से युक्त हो तथा जिसकी जानकारी में भी समस्त इंद्रियाँ सहयोगी हों, वही पदार्थ पृथ्वी तत्त्व है।

गुण- शरीर में अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी और रोम ये पाँच गुण पृथ्वी तत्त्व के हैं।

गन्ध- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित विषयों की यथार्थ जानकारी एवं पहचान कराने वाला विषय ही गन्ध है। हालांकि जानकारी के सभी विषय- शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस भी गन्ध में समाहित होते हैं फिर भी गन्ध के बिना पृथ्वी तत्त्व की जानकारी व पहचान पूर्ण नहीं मानी जा सकती क्योंकि इसका अपना विशेष विषय गन्ध ही है। इसलिए जब तक गन्ध की स्वीकारोक्ति नहीं होती, तब तक पृथ्वी तत्त्व को उसकी मान्यता नहीं मिल सकती।

नाक- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित वस्तुओं की जानकारी और पहचान कराने वाले विषय (गन्ध) को पकड़ने वाली (जानकारी कराने वाली) इन्द्रिय ही नाक है। यह इन्द्रिय मात्र जानकारी करने-कराने का ही कार्य करती है। इसीलिए इसे ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम एवं पाँचवाँ स्थान है।
नाक गन्ध लेने के अतिरिक्त एक ऐसा कार्य भी करती है जो शरीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है, वह कार्य है स्वास लेना व छोड़ना। स्वास-प्रस्वास वह क्रिया है जिसके माध्यम से शक्ति (प्राण-शक्ति) शरीर में प्रवेश करती व बाहर आती-जाती रहती है। जिससे समस्त प्राणियों का जीवन कायम रहता है, यह स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया नाक से ही होती रहती है जिसको योगी, ऋषि-महर्षि आदि साधना के माध्यम से स्वांस-प्रस्वांस से प्रवेश व निकास वाली शक्ति को अनुभव के द्वारा पकड़ते हैं, जो अजपा-जप या अजपा गायत्री रूप हँसो, सोsहं है तथा वैज्ञानिकगण उसी प्राण वायु को मात्र बाह्य जानकारी के आधार पर आक्सीजन (O २) और कार्बन डाई आक्साइड (C O २) बताते हैं। परन्तु दोनों आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ही एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं की जीवनी-शक्ति (जीवन) हेतु शरीर में स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्रिया है जो नाक द्वारा होती है।
अतः समस्त ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम व पाँचवाँ स्थान होने के बावजूद भी अपना एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। जिसके कारण महत्व एवं श्रेणी में रखने पर नाक समस्त ज्ञानेन्द्रियों में अन्तिम होने के बावजूद भी प्रथम स्थान पर है। इसे प्रथम कहा जाय या अन्तिम अथवा अन्तिम कहा जाय या प्रथम दोनों ही उपयुक्त हैं।

गुदा- गुदा वह कर्मेन्द्रिय है जिसका पृथ्वी तथा पृथ्वी तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं से सार रहित तथा विकार से युक्त पदार्थ (मल) को शरीर से बाहर करना होता है जिससे कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु सार युक्त पदार्थ पुनः पहुँचकर अपना कार्य करता रहे।
क्रमशः .......
---------संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
 

जय माता की

जम्मू कश्मीर में जहां वैष्णो माता विराजमान है, वह एक मनमोहक स्थल है, मां वैष्णो देवी का यह प्रसिद्ध दरबार हिन्दू धर्मावलम्बियों का एक प्रमुख तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ 51 शक्तिपीठों में से एक मानी जाती हैं, माता वैष्णो ज्ञान, वैभव और बल का सामुहिक रुप है. क्योंकि यहां आदिशक्ति के तीन रुप हैं मां गुफा में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती पिंडी रूप में स्थापित हैं.. पहली महासरस्वती... जो ज्ञान की देवी हैं, दूसरी महालक्ष्मी जो धन-वैभव की देवी और तीसरी महाकाली या दुर्गा शक्ति स्वरुपा मानी जाती है,वैष्णो देवी की इस पवित्र यात्रा के दौरान भक्तगण देवामाई, बाण गंगा, चरण पादुका, गर्भ जून गुफा, भैरव मंदिर आदि तीर्थों के भी दर्शन का लाभ उठाते हैं. यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है। इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल द्वारा की जाती है.जहाँ दूर-दूर से लाखों श्रद्धालु माँ के दर्शन के लिए आते हैं. यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है.

दुर्गासप्तसती पाठ की परंपरा

 सप्तसती पाठ कैसे करें क्योंकि वह कीलित है !अतः शापोद्धार और उत्कीलन आवश्यक है सप्तसतीसर्वस्व और कात्यायनी तंत्र में इस विषय का विशेष विवेचन किया गया है वहाँ शापोद्धार मन्त्र ---ओंह्रीं---कुरु स्वाहा ,तथा उत्कीलन मन्त्र –ओं श्रीं---स्वाहा का क्रमशः जप कहा गया है किन्तु कुछ लोग उत्कीलन तथा शापोद्धार के विना पाठ करते हैं उन्हें लाभ होगा या नहीं –इस प्रकारक...ा प्रश्न मंच कि ओरसे अनिरुद्ध राठौर ने किया था !
इस विषय में गीता प्रेस के विद्वानों की सम्मति क्या है इसे उनकी सप्तसती की पुस्तक से जान सकते हैं ! यहाँ जो विशेष ग्रन्थ और साधकों के अनुभव है उनके आधार पर लिखा जा रहा है !अनुष्ठान प्रकाश के अनुसार ओं का उच्चारण करके कवच अर्गला कीलक पढकर चंडी पाठ का विधान बतलाया गया है—पृष्ठ २१८ ,यहाँ शापोद्धार एवं उत्कीलन कि चर्चा नहीं है ! हमारे विश्वविद्यालय में व्याकरण पीठाध्यक्ष श्रीबद्रीप्रसाद प्रपूरणा जी जो ९५ वर्ष के हो चुके है वे बताए कि उनकी परम्परा में भी शापोद्धार एवं उत्कीलन नहीं है !वे कहते है कि वैदिक परंपरा के अनुसार इसकी कोई आवश्यकता नहीं है !ब्रह्मगायत्री जप में भी मुद्रा एवं शाप विमोचन अनिवार्य नहीं है !जो करते है वे लोग तांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रहे है ,परमात्मा को कोई शापित कर सके यह सामर्थ्य किसी में नहीं है !भृगु जी ने विष्णु भगवान को शाप दिया उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो उनकी आराधना करके भृगु जी भगवान से शाप स्वीकार करने का वर मांगे ,अतः शाप के असम्भव होने से शापोद्धार की आवश्यकता नहीं है !प्रपूरणा जी मुझे बतलाये कि जब वे ८० वर्ष पूर्व काशी में पढ़ रहे थे तो उनके व्याकरण के गुरुदेव मैथिल श्री श्रीकान्तझा जी जो बंगाल के थे वे प्रतिदिन सप्तसती का पाठ मात्र १३ अध्यायों का ही करते थे !शापोद्धार और उत्कीलन की बात क्या, वे तो कवच अर्गला और कीलक भी नहीं करते थे !और उन्हें सप्तसती ऐसी सिद्ध थी कि जब वे सप्तसती के “गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत् पिबाम्यहम् ---“अ03/38,इस मन्त्र का उच्चारण करते समय मधु (शहद) की धारा भी गिराते जाते थे उस समय अग्नि स्वयं प्रकट हो जाती थी और उसके द्वारा मधु को जगदम्बिका भगवती स्वयं ग्रहण करती थीं !और मन्त्र के अंतिम शब्द देवताः का जब उच्चारण समाप्त करते थे तब अग्नि देव भी अंतर्धान हो जाते थे ! इस प्रकार के वे बीच में प्रतिदिन करते थे !उन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं !प्रपूरणा जी अभी भी विश्वविद्यालय में मेरे आवास के पास ही रहते है !(अनिरुद्ध राठौर प्रश्नकर्ता मेरे विश्वविद्यालय का ही नहीं अपितु मेरा प्रिय छात्र भी है!समयाभाव के कारण विलम्ब से उत्तर किया गया है !)
--इससे यह निष्कर्ष निकला कि सप्तसती का पाठ शापोद्धार और उत्कीलन के विना भी सिद्धिप्रद है !किन्तु जो जिस परम्परा से जो पद्धति प्राप्त कर चुका है उसे उसी का पालन अनिवार्य है –जय मातःदुर्गे ---जय श्रीराम