शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

गुरु नानक ब्राह्मण थे

हम ब्राह्मणो की एक पीडी से दुसरी पीडी सुनती आ रही है कि मुगल आक्रमणकारियो का सामना करने के लिये ब्राह्मणो ने ही अपने सबसे बडे पुत्र का लगातार बलिदान देते हुये सिख संप्रदाय की स्थापना की है , परन्तु आज सिख यह भूल चुके है , वे यह मानने के लिये तैय्यार ही नही है कि सिख ब्राह्मणो की वन्शज है ? और सिख स्म्प्रदाय की स्थापना हिन्दुओ की रक्षा के लिये की गई थी । परन्तु हम ब्राह्मण तो यह जानते ही है और इसके प्रमाण भी है । सिख संप्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जन्म और माता पिता से स्म्बन्धित जानकारी को यदि आप देखे तो आप भी समझ जायेगे कि पुर्व मे सिख शुद्ध ब्राह्मण ही थे गुरु नानक के जन्म से संबन्धित इस जान्कारी को देखिये (१). हिन्दु विक्रम संवत के प्रयोग से सिख स्म्प्रदाय का हिन्दु प्रमाणित होना :- गुरू नानक देव या नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे । गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) 15 अप्रैल 1469 ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। तलवंडी पाकिस्तान के लाहौर जिले से 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। (२). गुरु नानक के पिता का ब्राह्मण होना :- नानकदेवजी के जन्म के समय प्रसूति गृह अलौकिक ज्योत से भर उठा। शिशु के मस्तक के आसपास तेज आभा फैली हुई थी, चेहरे पर अद्भुत शांति थी। पिता बाबा कालूचंद्र बेदी ( कंही कालुचन्द्र मेहता तो कंही कालुचन्द्र मेहता पुर्व मे दोनो ही ब्राह्मण हुआ करते थे )और माता त्रिपाता ने बालक का नाम नानक रखा। गाँव के पुरोहित पंडित हरदयाल ने जब बालक के बारे में सुना तो उन्हें समझने में देर न लगी कि इसमें जरूर ईश्वर का कोई रहस्य छुपा हुआ है। (३). गुरु नानक देव का एक ब्राह्मण द्वारा शिक्षा दिया जाना :-बचपन से ही नानक के मन में आध्यात्मिक भावनाएँ मौजूद थीं। पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। पंडितजी ने नानक को और ज्ञान देना प्रारंभ किया तो बालक ने अक्षरों का अर्थ पूछा। पंडितजी निरुत्तर हो गए। नानकजी ने क से लेकर ड़ तक सारी पट्टी कविता रचना में सुना दी। पंडितजी आश्चर्य से भर उठे। (४). नानक का जनेउ ( उपनयन ) संस्कार होना हिन्दुत्व की पह्चान :-जब नानक का जनेऊ संस्कार होने वाला था तो उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि अगर सूत के डालने से मेरा दूसरा जन्म हो जाएगा, मैं नया हो जाऊँगा, तो ठीक है। लेकिन अगर जनेऊ टूट गया तो? ( यंहा यह भी ध्यान देने वाली बात है कि गुरु नानक देव के उपनयन मे सूत का जनेउ ( उपनयन ) पहनाया जा रहा था । सूत का जनेउ वेदिक नियमानुसार सिर्फ़ ब्राह्मणो को ही पहनाया जा सकता है । दूसरे वर्णो जैसे क्षत्रियो का सन का वेश्यो का भेड एके बाल का आदि होता है )
धर्म-पुस्तकें टूरिस्ट-गाईड की तरह हैं, जो केवल उस राह का इशारा देती हैं | संत नाम के जहाज को भरकर जीवों को ले जानी वाली हस्तियाँ हैं, जिनके पास से पासपोर्ट या टिकट लेकर (दीक्षित होकर) उनके नाम या शब्द रूपी जहाज पर सवार होकर, जिसके वे स्वयं कप्तान हैं, मालिक के देश पहुंचा जा सकता है |

धर्म-पुस्तकों का विचार निसंदेह अच्छा है, पर ले जानी वाली शक्ति केवल गुरु और शब्द या राम-नाम ही है | जब तक वे न मिलें, मालिक के धुर-धाम पहुँचना असम्भव है | यदि हम सिर्फ रास्ता ही पूछते ही रहे और मंजिल की तरफ एक कदम भी न रखें तो केवल विचारों के ख्याली पुलाव या तर्क-वितर्क से कैसे उस परवरदिगार के देश में पहुँच सकते हैं ? भाई गुरदास जी फरमाते हैं:

पूछत पथिक तिहं मारग न धारै पग, प्रीतम कै देस कैसे बातन से जाईये || (कवित्त-सवैये ४३९)
...
उस मार्ग पर ग्रन्थ-पोथीयाँ पढ़कर अपने आप जाने की कोशिश करना गुमराही का कारण बनता है, जिसके लिए इनसान को पछताना पड़ता है | यदि गुरु का संग प्राप्त हो जाये तो जीव मालिक के देश में आसानी से पहुँच जाता है | गुरु अर्जुन साहिब पूछते हैं की अगर मालिक से मिलना हमारे वश में है तो अभी तक हम बिछुड़े न रहते:

आपण लीआ जे मिलै बिछुड़ी किउ रोवंनी ||
साधू सांगू परापते नानक रंग माणनि || (आदि ग्रन्थ, प्र. १३४)

जिस चीज़ को हमें ढूँढना हो वह हो तो कहीं परन्तु हम उसकी तलाश किसी और जगह करें तो वह कैसे मिल सकती है ? जब हम भेदी को साथ ले लें तो हम उस वास्तु को अवश्य पा लेते हैं, करोडो जन्मों का रास्ता पल भर में पूरा हो जाता है | कबीर साहिब फ़रमाते हैं:

वस्तु कहीँ ढूँढें कहीँ, केही विधि आवै हाथ |
कहैं कबीर तब पाइए, जब भेदी लीजे साथ ||
भेदी लीन्हा साथ कर, दीन्ही वास्तु लखाय |
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाये || (कबीर साखी संग्रह, प्र. ५)

शिव और जैव-विविधता ही संसार है

भारतीय पौराणिक प्रसंग प्रतीकात्मकता से भरपूर हैं। वाचिक परंपरा अर्थात ओरल ट्रेडिशन में कथा-कथन एक बेहद महत्वपूर्ण विधा रही है, इसके माध्यम से विद्वजन साधारण जनमानस के बीच अच्छे विचार भेजते रहे हैं। आमजन उन विचारों को सहजता से ग्रहण कर पाए इस हेतु तरह-तरह के किस्सों, रूपकों और प्रतीकों के जरिए इन्हें सरलीकृत भी किया गया।

धर्मप्राण आम जनता इस साहित्य को अंगीकार कर ले इसलिए ये आख्यान धर्म का चोला प...हने हुए हैं और सदियों से भारत की हवा में प्रवाहित हैं। ऐसा ही एक पौराणिक परिवार है शिव का परिवार। इस परिवार में एक अद्भुत बात है। विभिन्नताओं में एकता और विषमताओं में संतुलन। कैसे?

शिव परिवार के हर व्यक्ति के वाहन या उनसे जुड़े प्राणियों को देखें तो शेर-बकरी एक घाट पानी पीने का दृश्य साफ दिखाई देगा। शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, मगर शिवजी के तो आभूषण ही सर्प हैं। वैसे स्वभाव से मयूर और सर्प दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि साँप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती स्वयं शक्ति हैं, जगदम्बा हैं जिनका वाहन शेर है। मगर शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। बेचारे बैल की सिंह के आगे औकात क्या? परंतु नहीं, इन दुश्मनियों और ऊँचे-नीचे स्तरों के बावजूद शिव का परिवार शांति के साथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्नतापूर्वक समय बिताता है।

शिव-पार्वती चौपड़ भी खेलते हैं, भाँग भी घोटते हैं। गणपति माता-पिता की परिक्रमा करने को विश्व-भ्रमण समकक्ष मानते हैं। स्वभावों की विपरीतताओं, विसंगतियों और असहमतियों के बावजूद सब कुछ सुगम है, क्योंकि परिवार के मुखिया ने सारा विष तो अपने गले में थाम रखा है। विसंगतियों के बीच संतुलन का बढ़िया उदाहरण है शिव का परिवार।

यहाँ इकोलॉजिकल बैलेंस या पारिस्थितिकीय संतुलन का पाठ भी है। हम सारे प्राणी और हमारा पर्यावरण एक-दूसरे से एक भोजन श्रृंखला के जरिए जुड़े हुए हैं। इसमें कोई भक्षी है, कोई भक्षित है, तो वही भक्षित किसी और का भक्षी है। यदि मनुष्य साँपों को मारे तो चूहे बढ़ जाते हैं और अनाज नष्ट करने लगते हैं। इसी तरह कई प्रकार से यह फूड चेन ऐसा सिलसिला चाहती है जिसे बीच में न तोड़ा जाए। जैव-विविधता से ही संसार चलता है। दुश्मन भी प्रकारांतर से मित्र ही है। संतुलन जरूरी है।

सामाजिक तौर पर देखें तो परिवारों में भी यह जरूरी है कि अलग-अलग मिजाजों, अभिरुचियों, स्वभावों के बावजूद लोग हिल-मिलकर रहें। यह तभी संभव है जब सदस्यों में एक-दूसरे की व्यक्तिगतता के लिए सम्मान हो। एक-दूसरे को स्पेस दिया जाए। अपनी सोच दूसरों पर थोपी या जबर्दस्ती मनवाई न जाए। असहमति के लिए जगह हो, विषमताओं के बावजूद तालमेल हो। मुखिया व अन्य परिपक्व सदस्यों में गले में गरल थामे रखने का धीरज हो। सबको साथ लेकर चलने की आकांक्षा हो।

भारत जैसे नागरिकों की 'बायोडायवर्सिटी' वाले देश में भी विसंगतियों, विभिन्नताओं और विविधताओं के बीच एकता व संतुलन 'शिव' के परिवार की तरह जरूरी है।

ॐ-ब्रह्मप्राप्ति

ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुंडकोपनिषत् में लिखा है:
प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।।
कठोपनिषत् में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।
वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध तथा जैन संप्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है। प्रणव शब्द का अर्थ है–प्रकर्षेणनूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणव:।
प्रणव का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। यहाँ प्रसिद्ध आगमों की प्रक्रिया के अनुसार विश्लेषण क्रिया का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना। इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं। प्रकारांतर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। प्लुत तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है। यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है। विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है। एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एम मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है। तदुपरांत क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़वा संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। इसका थोड़ा सा आभास मांडूक्य उपनिषद् में मिलता है।
बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।
योगी संप्रदाय में स्वच्छंद तंत्र के अनुसार ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारणजगत् का वाचक है मकार। कारण सलिल में विधृत, स्थूल आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है। म पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।
तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि बिंदु अशेष वेद्यों के अभेद ज्ञान का ही नाम है और नाद अशेष वाचकों के विमर्शन का नाम है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है। उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है। अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही सिद्ध है।
इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है। स्वच्छंद तंत्र में यह दिखाया गया है कि ऊर्ध्व गति में किस प्रकार कारणों का परित्याग होते होते अखंड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है। "अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता। भ्रूमध्य में बिंदु का त्याग होता है। नाद सदाशिवरूपी है। ललाट से मूर्धा तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है। इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है। इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रहप्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।
इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।