सोमवार, 30 जुलाई 2012

महादेव का दुग्धाभिषेक...................महात्मय.....................

शिव महापुराण के अनुसार सृष्टि निर्माण से प...हले केवल शिवजी का ही अस्तित्व बताया गया है। भगवान शंकर ही वह शक्ति है जिसका न आदि है न अंत... इसका मतलब यही है कि शिवजी सृष्टि के निर्माण से पहले से हैं और प्रलय के बाद भी केवल महादेव का ही अस्तित्व रहेगा... अत: इनकी भक्ति मात्र से ही मनुष्य को सभी सुख, धन, मान-सम्मान आदि प्राप्त हो जाता है...

शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर को "भोलेनाथ" कहा गया है... अर्थात् शिवजी अपने भक्तों की आस्था और श्रद्धा से बहुत ही जल्द प्रसन्न हो जाते हैं। 'शिवजी के प्रसन्न' होने के अर्थ यही है कि भक्त को सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति हो जाती है। भोलेनाथ को प्रसन्न करने के कई उपाय बताए गए हैं। इनकी पूजा, अर्चना, आरती करना श्रेष्ठ मार्ग हैं। प्रतिदिन विधिविधान से शिवलिंग का पूजन करने वाले श्रद्धालुओं को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है...

शिवजी को जल्द ही प्रसन्न के लिए शिवलिंग पर प्रतिदिन कच्चा गाय का दूध अर्पित करें। गाय को माता माना गया है अत: गौमाता का दूध पवित्र और पूजनीय है। इसे शिवलिंग पर चढ़ाने से महादेव श्रद्धालु की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

दूध की प्रकृति शीतलता प्रदान करने वाली होती है और शिवजी को ऐसी वस्तुएं अतिप्रिय हैं जो उन्हें शीतलता प्रदान करती हैं। इसके अलावा ज्योतिष में दूध चंद्र ग्रह से संबंधित माना गया है। चंद्र से संबंधित सभी दोषों को दूर करने के लिए प्रति सोमवार को शिवजी को दूध अर्पित करना चाहिए। मनोवांछित फल प्राप्त करने के लिए यह भी जरूरी है कि आपका आचरण पूरी तरह धार्मिक हो। ऐसा होने पर आपकी सभी मनोकामनाएं बहुत ही जल्द पूर्ण हो जाएंगी।

ॐ नमः शिवाय...
उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। शिवगणों में म...ुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय 'चिंतामणि' प्रदान की। चंद्रसेन ने इसे गले में धारण किया तो उसका प्रभामंडल तो जगमगा ही उठा, साथ ही दूरस्थ देशों में उसकी यश-कीर्ति बढ़ने लगी। उस 'मणि' को प्राप्त करने के लिए दूसरे राजाओं ने प्रयास आरंभ कर दिए। कुछ ने प्रत्यक्षतः माँग की, कुछ ने विनती की।

चूँकि वह राजा की अत्यंत प्रिय वस्तु थी, अतः राजा ने वह मणि किसी को नहीं दी। अंततः उन पर मणि आकांक्षी राजाओं ने आक्रमण कर दिया। शिवभक्त चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गया। जब चंद्रसेन समाधिस्थ था तब वहाँ कोई गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन हेतु आई।

बालक की उम्र थी पाँच वर्ष और गोपी विधवा थी। राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव की पूजा हेतु प्रेरित हुआ। वह कहीं से एक पाषाण ले आया और अपने घर के एकांत स्थल में बैठकर भक्तिभाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा। कुछ देर पश्चात उसकी माता ने भोजन के लिए उसे बुलाया किन्तु वह नहीं आया। फिर बुलाया, वह फिर नहीं आया। माता स्वयं बुलाने आई तो उसने देखा बालक ध्यानमग्न बैठा है और उसकी आवाज सुन नहीं रहा है।

तब क्रुद्ध हो माता ने उस बालक को पीटना शुरू कर दिया और समस्त पूजन-सामग्री उठाकर फेंक दी। ध्यान से मुक्त होकर बालक चेतना में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकर बहुत दुःख हुआ। अचानक उसकी व्यथा की गहराई से चमत्कार हुआ। भगवान शिव की कृपा से वहाँ एक सुंदर मंदिर निर्मित हो गया। मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा यथावत थी। उसकी माता की तंद्रा भंग हुई तो वह भी आश्चर्यचकित हो गई।

राजा चंद्रसेन को जब शिवजी की अनन्य कृपा से घटित इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी उस शिवभक्त बालक से मिलने पहुँचा। अन्य राजा जो मणि हेतु युद्ध पर उतारू थे, वे भी पहुँचे। सभी ने राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा माँगी और सब मिलकर भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन करने लगे। तभी वहाँ रामभक्त श्री हनुमानजी अवतरित हुए और उन्होंने गोप-बालक को गोद में बैठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया।

ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्‌॥
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम्‌ वाप्तवान्‌।
एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः
इह भुक्तवा खिलान्‌ भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥
अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः।
प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्‌॥

अर्थात 'शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है। इस गोप बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है। यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा।

इसी के वंश का आठवाँ पुरुष महायशस्वी 'नंद' होगा जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण 'कृष्ण' नाम से प्रतिष्ठित होंगे। कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। महाकाल साक्षात राजाधिराज देवता माने गए हैं।