शनिवार, 11 अगस्त 2012

योगिराज श्रीकृष्ण का अवतरण


 पृथ्वी पर सभ्यता और संस्कृति के आविर्भाव तथा विकास की दृष्टि से भारतीय और यूनानी संस्कृति और सभ्यता प्राचीनतम है। भारत और ग्रीक दोनों स्थलों की सृष्टि की उत्पत्ति और विकास अलग-अलग रूप से चित्रित किए गए हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में सृष्टि का विकास और ब्रह्म के अवतारवाद की विचारधारा ईश्वरवादी दृष्टिकोण से की गई है। इसी दृष्टिकोण में हमारे विश्वास में धार्मिक और वैज्ञानिक-दोनों आधारों का समावेश देखा जा सकता है।
युगों-युगों से चली आ रही मान्यता ऐसी है कि सृष्टि के आदि में आदिरूप भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। इस आदिपुरुष में दस इंद्रियां, एक मन और पाँच भूत और सोलह कलाएँ थीं।

उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। इस प्रकार जो अजन्मा है, जो भगवान आदि रूप हैं—उनसे ही भगवान का वह विराट् रूप उत्पन्न हुआ। उस महारूप के अंग-प्रत्यंग में...
ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है। वही है भगवान् की विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप।
जो योगी हैं उन्हें भगवान के इसी रूप का दर्शन मिलता है, जिसे वे अपनी साधना द्वारा उपलब्ध करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण—उसमें हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएं हैं। वस्तुतः वे सृष्टि में निहित अनेक रूपों, शक्तियों एवं क्रियाओं आदि का प्रतीक हैं।

भगवान का वह आदिरूप पुरुष है, वह महापुरुष, वह विराट पुरुष है जिसे नारायण कहते हैं, जो अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इसी रूप के छोटे-से-छोटे अंश से पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनियों की सृष्टि होती है अर्थात यह उर्जा का वह महाकोष है जिसके ऊर्जांश असंख्य रूपों में गति भर सकते हैं।
हमारी चिंतन परंपरा के अनुसार भगवान कृष्ण का अवतार भगवान विष्णु का आठवां, अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवतार है।

चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद पर आधारित आरक्षण की गंदी राजनीति

प्राचीन भारत की चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा वास्तव में व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुणों के आधार पर कर्म अथवा व्यवसाय के चयन की व्यवस्था थी, जो सभी व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास हेतु सपर्पित संपूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था थी, तथा जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, तथा सही रूप में जिसका पालन कर आज भी सभी व्यक्ति एवं समाज का सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास संभव है । परन्तु मध्यकालीन भारत में चतुर्वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा की गलत व्याख्या कर उच्च वर्ग के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने जातिवाद की गंदी राजनीति कर छुआ- छुत को बढावा दिया तथा चतुर्वर्ण व्यवस्था एवम जाति प्रथा का विकृत रूप समाज में पेश किया, जिसका अनुचित लाभ उठाकर वर्त्तमान भारत के परम स्वार्थी दुष्ट राजनीतिज्ञों ने स्वतंत्र भारत में जाति की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकना शुरु कर दिया और धर्म, नियम, कानून और जनतंत्र के मूल सिद्धान्त, संविधान की मूल आत्मा, स्वतंत्रता आंदोलन के महान उद्देश्य, मानवाधिकार के सिद्धान्त तथा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध "जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण" का गंदा खेल खेलना शुरु किया, जो बदस्तूर अब भी जारी है, जिसका खामियाजा सभी व्यक्ति और समाज को ही नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र और मानव जाति को भुगतना पडा है और भुगतना पड रहा है तथा समाज के एक बहुत बडे वर्ग की शक्ति, सामर्थ्य, क्षमता, योग्यता एवं प्रतिभा व्यर्थ चली गयी तथा व्यर्थ चली जा रही है। "जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण" का गंदा खेल भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन) की समस्या को जन्म दे रहा है, भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा कर रहा है, वैमनस्य का विष घोल रहा है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित कर रहा है।

 जो व्यक्ति जातिवाद को गालिया देता है और जातिवाद के खिलाफ नारे लगता है, वही व्यक्ति अपने निहित स्वार्थ और फायदे के लिए जातिवाद को समाप्त नहीं होने देता | भारतीय सविधान में अम्बेडकर इफ्फेक्ट और जातिवाद की गंदी राजनीति पर आधारित आरक्षण पद्धति का दुष्परिणाम है कि यदि किसी को मुंह से दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार कह दिया जाये तो वह जघन्य अपराध और नॉन बेलेबुल ऑफेन्स हो जायेगा, लेकिन जाति पर आधारित आरक्षण का लाभ उठाने के लिए वही व्यक्ति घुस देकर भी दुसाध, चमार, धोबी या कुम्हार होने का लिखित प्रमाणपत्र बनवाता है |

प्राचीन भारत में सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में बांटा गया था, यथा- ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग), क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग), वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) तथा शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) । सभ्य समाज को व्यवसाय के आधार पर चार प्रमुख वर्ग या वर्ण में वर्गीकरण को ही चतुर्वर्ण व्यवस्था अथवा वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया । ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) के लोग मुख्य रूप से शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को ब्राह्मण वर्ण (बुद्धिजीवी वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अपने बुद्धिबल से समाज को नियंत्रित कर सभी वर्ग के व्यक्ति, समाज, राज्य, राष्ट्र, समग्र मानव जाति तथा संपूर्ण विश्व के सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास के लिये निरंतर कार्य करते हुए निःस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में समर्पित हुआ करते थे । इसी प्रकार क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) के लोग मुख्य रूप से राजा, शासक, सैनिक, सेनापति, रक्षक, जन – रक्षक, युद्ध – कला में दक्ष महान योद्धा का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को क्षत्रिय वर्ण (योद्धा वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज में शांति एवम कानून एवम व्यवस्था बनाये रखने हेतु समाज पर शासन करते थे तथा बाह्य आक्रमण से राज्य के लोगों को सुरक्षा प्रदान किया करते थे । ठीक इसी प्रकार वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) के लोग मुख्य रूप से किसान, पशु पालक, लोहार, सोनार, तेली, बनिया, बढई, बुनकर, दुकानदार, व्यापारी का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को वैश्य वर्ण (कमाऊ वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो अर्थोपार्जन कर संपूर्ण समाज तथा समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को धन, भोजन, वस्त्र एवम दैनिक उपयोग की समस्त वस्तु उपलब्ध कराया करते थे । इसी प्रकार शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) के लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर, औद्योगिक मजदूर, घरेलु नौकर – दाई, कुली, सेवक, अनुसेवक, श्रमिक, सहायक आदि का पेशा या व्यवसाय धारण करते थे तथा इस प्रकार के पेशा या व्यवसाय को धारण करनेवाले समस्त लोगों को शूद्र वर्ण (श्रमिक वर्ग) की संज्ञा दी गयी, जो समाज के सभी वर्ण या वर्ग के लोगों को उनके कार्य मे सहायता प्रदान किया करते थे तथा जो समस्त प्रकार के कृषि, उद्योग, व्यवसाय एवम वाणिज्य व्यापार को आधार प्रदान किया करते थे । इसीलिये उपरोक्त चार वर्णों को उनके कर्मों तथा समाज में उनकी भूमिका एवम उपयोगिता के अनुसार ही ब्राह्मण वर्ण को समाज रूपी शरीर का मस्तक (मस्तिष्क), क्षत्रिय वर्ण को समाज रूपी शरीर की भुजा, वैश्य वर्ण को समाज रूपी शरीर का धड (मुख्य शरीर अर्थात दिल, सीना, पेट, पाचन तंत्र एवम मल – मूत्र विसर्जन तंत्र) तथा शूद्र वर्ण को समाज रूपी शरीर का आधार स्तंभ पैर अथवा पांव (समाज की संपूर्ण शारीरिक ढांचा का आधार स्तंभ) की संज्ञा दी गयी ।
इस सम्बंध में गीता में भगवान कृष्ण का निम्न कथन प्रासंगिक हैः-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥
अर्थात् हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न उनके गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं । गीता- १८.४१

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, आभ्यंतर शौच एवम बाह्य शौच का पालन कर आंतरिक एवम बाह्य शुद्धि निरंतर बनाये रखना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल बनये रखना; समस्त प्रकार के वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि का सम्यक् ज्ञान रखना तथा उनमें श्रद्धा रखना, वेद शास्त्रों का अध्ययन – अध्यापन (पठन – पाठन) करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना – ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४२

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
अर्थात् शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव – ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४३

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
अर्थात् कृषि (खेती), गोपालन और क्रय – विक्रय का व्यापार स्वरूप सत्य व्यवहार – ये सब के सब ही वैश्य के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । इसी प्रकार सभी वर्ण के लोगों की सेवा कर उनके कार्यों में हर संभव सहयोग करना शूद्र के स्वाभाविक गुणों पर आधारित कर्म हैं । गीता – १८.४४

यहां यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि ब्राह्मण वर्ण के साथ साथ सभ्य समाज के सभी वर्ग के सभी लोगों को आभ्यंतर शौच (आन्तरिक शुद्धि) एवम बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) – दोनों प्रकार के शौच (शुद्धि) का पालन करना चाहिये । ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, पूर्वाग्रह, पक्षपात, भय, घृणा और अहंकार – इन दस प्रकार के मानव दुर्गुणों से मुक्त होना ही आभ्यंतर शौच (आंतरिक शुद्धि) कहलाता है । हाथ, पैर, मुंह, नाक, दांत, जीभ, चेहरा, माथा, जननांग, मल – मूत्र विसर्जन अंग, सम्पूर्ण शरीर, वस्त्र, बिछावन, निवास स्थान आदि की नित्य प्रति निरंतर सफाई ही बाह्य शौच (बाहरी शुद्धि) कहलाता है ।

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था अथवा चतुर्वर्ण व्यवस्था के अतिरिक्त पेशा अथवा व्यवसाय के नाम के अनुसार जाति व्यवस्था भी प्रचलित थी । वस्तुतः पेशा अथवा व्यवसाय के नाम को ही जाति की संज्ञा दी गयी थी, जिसके अनुसार लोहा का काम करने वाले को लोहार, चमडा का काम करने वाले को चमार (चर्मकार), लकडी का काम करने वाले को बढई, मिट्टी का बर्तन बनाने वाले को कुम्हार (कुम्भकार), गाय (गौ) पालन करने वाले को ग्वाला की संज्ञा दी गयी ।

यह बात एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि माता – पिता के सद्गुण एवम दुर्गुण आनुवंशिक (जेनेटिक) रूप से उनके पुत्र एवम पुत्रियों में हस्तांतरित हो जाते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के समस्त गुण और व्यक्तित्व का ३० % निर्धारित करते हैं, व्यक्ति के शेष ३० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनके परिवार का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं, तथा व्यक्ति के शेष ४० % गुण एवम व्यक्तित्व के निर्धारण में उनकी शिक्षा एवम शैक्षणिक संस्थान का माहौल तथा उनके इर्द गिर्द सामाजिक परिवेश का माहौल (वातावरण, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, नैतिक मूल्य, परंपरा, संस्कृति) मुख्य भूमिका निभाते हैं । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि जो व्यक्ति जिस परिवार मे पैदा होता है, उस परिवार में माता – पिता के पेशा एवं व्यवसाय के कार्यों को बचपन से ही देखते समझते तथा उन कार्यों में सहयोग करते करते १८ – २० साल की उम्र होते – होते वह व्यक्ति बिना किसी विशेष शिक्षण अथवा प्रशिक्षण के, अपने परिवार के व्यवसाय मे तथा व्यावसायिक दक्षता में उस स्तर की पूर्ण महारत हासिल कर लेता है, जिसे कोइ दूसरे व्यवसाय को धारण करने वाले दूसरे परिवार मे जन्मा व्यक्ति ५ – ६ साल की विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद भी हासिल नहीं कर सकता । यह बात भी एक निर्विवाद त्रिकाल सत्य है कि प्रत्येक माता – पिता की चाहत होती है कि जिस व्यवसाय को उसने अपनाया है तथा जिस व्यवसाय को सफल बनाने और उसे अधिकतम संभव ऊंचाई तक ले जाने के लिये उसने जीवन भर कठिन परिश्रम किया है, उस व्यवसाय को उसके उत्तराधिकारी वंशज भी अपनायें तथा उसे और आगे बढायें । इसीलिये पीढी – दर – पीढी निरंतर लोग अपने परिवार मे माता – पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगे तथा व्यावसायिक कार्यों में परस्पर सहयोग एवम सहुलियत के लिये लोग अपने ही पेशा या व्यवसाय (जाति) के लडका – लडकी से विवाह करने लगे तथा समान पेशा या व्यवसाय के लोग एक साथ एक मोहल्ला या टोली बनाकर रह्ने लगे, जिससे भिन्न - भिन्न पेशा या व्यवसाय के लोगों ने अपनी विशेष प्रकार की व्यावसायिक कार्य संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जाति प्रथा का विकास हुआ और इसी जाति प्रथा के कारण भारत मे समस्त प्रकार के उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सम्पूर्ण विश्व की सर्वोत्कृष्ट सभ्यता - संस्कृति का विकास हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व में उच्च स्तरीय ज्ञान – विज्ञान, कला – तकनीक एवम सभ्यता – संस्कृति को विकसित किया तथा सम्पूर्ण विश्व की सभ्यता – संस्कृति को प्रभावित किया ।

प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति अत्यन्त ही उन्नत, सार्थक एवम पूर्णरूपेण व्यावहारिक थी । सुप्रसिद्ध ॠषियों (प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) द्वारा घने जंगलों में प्राकृतिक वातावरण में चलाये जाने वाले ॠषि आश्रम (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला)) में सुयोग्य व्यक्तियों को समस्त शस्त्र एवम शास्त्र (धर्म शास्त्र, व्यवहार विज्ञान, नीति शास्त्र, राजनीति शास्त्र, गणित, विज्ञान, खगोल शास्त्र, युद्ध कला, धनुर्विद्या, सैन्य शास्त्र आदि) की शिक्षा एवम व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर सभी छात्रों को व्यावहारिक जीवन की समस्त परिस्थितियों का सामना करते हुए सफल जीवन जीने की कला में पारंगत किया जाता था तथा ॠषि आश्रम में ब्राह्मण ॠषि द्वारा निःस्वार्थ भाव से सभी धनी एवं गरीब छात्रों को बिना किसी भेद भाव के एक समान निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवम प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था । ॠषि आश्रमों में छात्र – छात्राओं के समस्त अन्तर्निहित गुणों, शारीरिक एवम मानसिक शक्तियों तथा उनकी प्रतिभा का समग्र रूप में विकास कर उन्हें व्यावहारिक जीवन की परिस्थितियों का तथा दुष्ट प्रकृति के राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम बनाया जाता था । इसीलिये समाज में ब्राह्मण (बुद्धिजीवी शिक्षक) एवम ॠषि (आदर्श शिक्षण संस्थान, शोध संस्थान एवम वैज्ञानिक प्रयोगशाला के संचालक सुप्रसिद्ध प्राध्यापक, शिक्षाविद, चिकित्सक, वैज्ञानिक एवम दार्शनिक) को बहुत ही आदर की दृष्टि (नजर) से देखा जाता था तथा प्रत्येक प्रकार के पूजा- पाठ एवम यज्ञ की समाप्ति के समय ब्राह्मण एवम ॠषि को आवाहन (सादर आमंत्रित) कर के समाज के सभी वर्ग के लोग यथा संभव सर्वाधिक चल एवम अचल सम्पत्ति तथा नकद धन राशी उन्हें समर्पित करते थे ।

इतिहास साक्षी है - दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज की हर व्यवस्था का दुरुपयोग किया है, तथा जिस किसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को समाज के लोगों ने सम्मान दिया, उसी जाति, पेशा, व्यवसाय, रूप, वस्त्र या पह्नावा को धारण कर ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों ने हमेशा ही समाज को तथा समाज के भोले भाले लोगों को ठगा है और यह प्रक्रिया आज भी बदस्तुर जारी है । पूर्व काल में चूंकि समाज में ब्राह्मण और ॠषि को लोग बहुत आदर कि दृष्टी से देखते थे, इसलिये दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये ब्राह्मण और ऋषि क रूप धारण किया करते थे । ठीक उसी प्रकार आज के जमाने में भी दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्व हमेशा समाज में आदर पाने के लिये तथा समाज के लोगों की आंखों मे धूल झोंककर अपने गलत इरादों को और गलत कार्यों को अन्जाम देने के लिये दुष्ट प्रवृत्ति के अदूरदर्शी परम स्वार्थी तत्व वर्त्तमान व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर बुद्धिजीवी वर्ग (अर्थात् शिक्षक, प्राध्यापक, प्राचार्य, शिक्षाविद, शोधकर्त्ता, वैज्ञानिक, न्यायविद, न्यायाधीश, कानूनी सलाहकार, नीति निर्धारक, चिकित्सक, मंत्री, प्रधान मंत्री, कवि, लेखक, दार्शनिक, समाज सेवक एवम संस्कृतिकर्मी आदि) का पेशा अपना कर हर बात की गलत व्याख्या कर लोगों को उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं तथा समाज में विष वमन कर समाज मे वैमनस्य फैला रहे हैं ।

अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वतंत्र भारत में शासन चलाने के लिये सत्ता में दुष्ट प्रवृत्ति के परम स्वार्थी तत्वों का समावेश हो गया, जो सस्ती लोकप्रियता बनाये रखने और निरंतर सत्ता मे अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाते रहे तथा जाति और मजहब की अग्नि सुलगाकर राजनीति की रोटियां सेंकने में निरंतर भिडे रहे और आज भी भिडे हुए हैं । स्वतंत्र भारत में अलग – अलग मजहब के लोगों के लिये अलग अलग कानून बनाये गये – हिन्दू एवम मुसलमान के लिये अलग अलग कानून की व्यवस्था की गयी तथा हर क्षेत्र में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जिसे भारतीय संविधान में “अम्बेडकर इफेक्ट” के रूप मे जाना जाता है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, जो धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है, जो पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है, जो अयोग्यता एवं अक्षमता को प्रोत्साहित करता है, जो प्रतिभाशाली व्यक्तियों की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, शक्ति एवम दक्षता को कुंठित करता है तथा उनका समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सदुपयोग नहीं होने देता है तथा जो प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की समस्या का जन्मदाता है, जो समाज एवम राष्ट्र के सर्वतोमुखी सतत् निरंतर विकास में सबसे बडी बाधा है ।

जो भी व्यक्ति विकास की दौड में पीछे रह गये हैं, जो शैक्षणिक, सामाजिक एवम आर्थिक रूप से पिछडे हुए हैं, उन सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत पिछडेपन के आधार पर तमाम प्रकार की हर संभव सुविधा प्रदान कर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल कर उनके सर्वतोमुखी सतत निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये । परंतु किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव नहीं किया जाना चाहिये । किसी भी रूप में जाति, सम्प्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, रंग, स्थान, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेद- भाव अथवा जाति पर आधारित आरक्षण की पद्धति भारतीय संविधान की मूल आत्मा के विरूद्ध है, धर्म, न्याय एवम जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों के विरूद्ध है तथा पंथ निरपेक्षता (सेक्युलरिज्म) के सिद्धान्तों के विरुद्ध है, जो भारतीय जनमानस के बीच भेद – भाव पैदा करता है तथा वैमनस्य का विष घोलता है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को विखंडित करता है।

कृष्ण बल्लभ शर्मा “योगीराज”
(“चतुर्वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा तथा जातिवाद की गंदी राजनीति” नामक पुस्तक से उद्धृत)

विचार

स्वागत करो मृत्यु का
सजग होकर अपने जीवन को देखना एक कला है। इस प्रतिक्रिया में अपने आप समाधि लग जाती है। एक ऐसी समाधि जिसमें आदमी को स्वयं का बोध हो जाता है और संसार की फालतू बातें छूट जाती हैं। संसार का जो अनर्गल है वह हमें बहुत भारी बना देता है। जब हम दूर खड़े होकर तटस्थ भाव से अपने ही जीवन को देखने लगते हैं तो सब कुछ बहुत हल्का हो जाता है।

सुकरात के जीवन की एक कथा है। जब उनका अंतिम समय आया, शिष्य रोने लगे। तब सुकरात ने कहा, ‘‘रोना बंद करें। मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। लेकिन मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं कि मैं अपनी इस मृत्यु को होशपूर्वक देखूं। अब सब कुछ छूट रहा है। जितना छूटेगा उतना ही स्वयं बच जाएगा। जगत का बोध समाप्त होगा और स्वयं का बोध जागने लगेगा। सुकरात ने कहा कि मैं आज मृत्यु को प्राप्त नहीं हो रहा, सिर्फ यह देख रहा हूँ कि मरना होता क्या है ? यह मौका मुझे आज मिला है, इसलिए आप लोग रोते हुए मेरी समाधि में व्यवधान पैदा न करें, और सचमुच तो बचते चले गए मौत होती चली गई। वे संदेश दे गए मृत्यु प्रतिदिन निकट आ रही है और जिंदगी प्रतिदिन घट रही है। इसलिए मृत्यु का भय न करें, उसके स्वागत की तैयारी की जाए।’’

सूखा नारियल अपनी खोल के भीतर पक जाता है। खोलने पर वह पूरा बाहर आता है। किंतु जो गीला नारियल होता है उसक फोड़ने पर वह अपनी खोल से चिपका रहता है। कई बार तो उसको निकालने के लिए उसके टुकड़े हो जाते हैं। ऐसा ही शरीर और आत्मा के साथ हैं। स्वयं शरीर से अलग हो जाने का अर्थ है पका हुआ होना, अपने आत्मभाव में पहुंच जाना और शरीर से चिपकते हुए मृत्यु वरण का अर्थ है गीलें खोल की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर पिलपिले होना। इसलिए शांति से जीवन में इस बोध को लाना बड़ा उपयोगी होता है।

सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है

वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नद पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू, और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं।
प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म मेंगाणपतय, शैव वैष्णव,शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे।गाणपतयगणेशकी वैष्णव विष्णु की, शैव शिव की और शाक्त शक्ति और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थ...
ों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरूओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ,उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है। कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की। जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।
सनातन धर्म हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है

भैरव का अर्थ

।। ॐ हंषंनंगंकंसंखं महाकाल भैरवाय नम:।।
भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। ऐसा भी कहा जाता है कि भैरव शब्द के तीन अक्षरों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति समाहित है। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जात  है। भैरव का जन्म : काल भैरव का आविर्भाव मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को प्रदोषकाल में हुआ था। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। भगवान भैरव को असितांग, रुद्र, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहार नाम से भी जाना जाता है। भगवान शिव के पाँचवें अवतार भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व है। बटुक भैरव : 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उक्त आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।। काल भैरव : यह भगवान का साहसिक युवा रूप है। उक्त रूप की आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय की प्राप्ति होती है। व्यक्ति में साहस का संचार होता है। सभी तरह के भय से मुक्ति मिलती है। काल भैरव को शंकर का रुद्रावतार माना जाता है। काल भैरव की आराधना के लिए मंत्र है- ।।ॐ भैरवाय नम:।। भैरव आराधना : एकमात्र भैरव की आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है। आराधना का दिन रविवार और मंगलवार नियुक्त है। पुराणों के अनुसार भाद्रपद माह को भैरव पूजा के लिए अति उत्तम माना गया है। उक्त माह के रविवार को बड़ा रविवार मानते हुए व्रत रखते हैं। आराधना से पूर्व जान लें कि कुत्ते को कभी दुत्कारे नहीं बल्कि उसे भरपेट भोजन कराएँ। जुआ, सट्टा, शराब, ब्याजखोरी, अनैतिक कृत्य आदि आदतों से दूर रहें। दाँत और आँत साफ रखें। पवित्र होकर ही सात्विक आराधना करें। अपवि‍त्रता वर्जित है। भैरव तंत्र : योग में जिसे समाधि पद कहा गया है, भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष 112 विधियों का उल्लेख
किया है..............................