शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

रोचक जानकारी


आप सभी ने " मनु " के बारे में बहुत सुना है.उनके बारे में कुछ रोचक जानकारी आपको देता हूँ, इस विश्वास के साथ की ये जानकारी आपका ज्ञान वर्धन जरूर करेगी : - मनु एवं सतरूपा की एक पुत्री थी थी नाम था देवहुति और उनके चार पुत्र थे - आहुति,प्रस्तुति,प्रियव्रत एवं उत्तानपाद. देवहुति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ जिनसे नौ पुत्री एवं एक पुत्र कपिल मुनि हुए.कर्दम ऋषि की नौ पुत्रियों का विवाह, आर्यावर्त के समकालीन सर्वश्रेष्ट ऋषि,मुनियों से हुआ जिनके वंशजो ने आगे चलकर आर्यावर्त में आर्यों के इतिहास का निर्माण किया. इसी वंश के अगस्त ऋषि ने वृहत्तर आर्यावर्त को आयाम दिया जिसकी सीमा विन्ध्याचल पर्वत को लाँघ कर द्रविण देश होते समुद्र पर बाली - जावा से लेकर श्याम तक फैली थी. आज भी कृतग्य आर्य पित्रपक्ष का प्रथम तर्पण ऋषि अगस्त को अर्पित करता है. कर्दम ऋषि की पुत्रियों का विवाह : - १. प्रथम पुत्री कला का विवाह मरीचि ऋषि से हुआ जिनके पुत्र कश्यप ऋषि हुए. २. द्वितीय पुत्री अनसूया का विवाह अत्री ऋषि से हुआ जिनके तीन पुत्र हुए - दुत्तामेय,दुर्वासा और चन्द्रमा. ३. तृतीय पुत्री श्रृद्धा का विवाह अंगीरा ऋषि से हुआ जिनके दो पुत्र उत्ति एवं बृहस्पति और चार पुत्रिया हुई. ४. च्चातुर्थ पुत्री हविर्भू का विवाह पुलस्त ऋषि से हुआ जिनके दो पुत्र हुए - अगस्त एवं विश्रवा .रावण इन्ही विश्रवा मुनि का पुत्र था. ५. पांचवी पुत्री गति का विवाह पुलह मुनि से हुआ. ६. छठी पुत्री क्रिया का विवाह्क्रतु ऋषि से हुआ जिनसे वृहत ऋषि उत्पन्न हुए. ७. सातवी पुत्री अरूंधती का विवाह मुनि वशिस्ठ से हुआ जिनसे सात ब्राह्मर्शी उत्पन्न हुए. ८. आठवी पुत्री शांति का विवाह अथर्व ऋषि से हुआ जिनके पुत्र दधिची हुए. ९. नौवी पुत्री ख्याति का विवाह भृगु ऋषि से हुआ.इन्ही के वंश में आगे चलकर शुक्राचार्य एवं रिचिक ऋषि एवं उनके पुत्र जमदग्नि उत्पन्न हुए.जमदग्नि के पुत्र भगवान परशुराम थे.

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

एकम् सत् विप्रा बहुदा वदन्ती


एकम् सत्।विप्रा बहुदा वदन्ती॥ "The truth is one. The wise address it with different names". ॐ असत्यबाट सत्य तर्फ, अंध्यारोबाट उज्यालो तर्फ । मृत्युबाट जीवन तर्फ, ॐ शान्ति शान्ति शान्ति । Om Lead Us From Untruth To Truth, Lead Us From Darkness To Light. Lead Us From Death To Immortality, Om Let There Be Peace Peace Peace निर्वाणषटकम मनोबुध्यहंकार चिताने नाहं । न च श्रोतजिव्हे न च घ्राणनेत्रे । न च व्योमभूमी न तेजू न वायु । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ १ ॥ न च प्राण संज्ञो न वै पंचवायुः । न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोश । न वाक् पाणी पादौ न चोपस्य पायु । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ २ ॥ न मे द्वेष रागो न मे लोभ मोहौ । मदे नैव मे नैव मात्सर्यभाव । न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ३ ॥ न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् । न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः । अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ४ ॥ न मे मृत्यू न मे जातीभेदः । पिता नैव मे नैव माता न जन्मः । न बंधुर्न मित्रं गुरू नैव शिष्यः । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ५॥ अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो । विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेंद्रियाणां । सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बंध । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ६ ॥ - द्वारा आदिगुरू श्री शंकराचार्य I am not mind, wisdom, pride, and heart. Neither I am ear and tongue nor I am nose and eyes. Neither I am sky or earth nor I am power or wind. I am the eternal happiness or bliss state, I am Shiv, I am Shiv.||1|| I am not the state of being alive or the five type of Vayu. Neither I am the seven elements constituting the body (Dhatu) nor I am the five sheaths which invest the soul. Neither I am voice, hand, or leg nor I am the portion at the bottom of waist (anus or Linga). I am the eternal happiness or bliss state, I am Shiv, I am Shiv.||2|| I am not the state of envy and passion or the emotions of greed and attachment. Neither I am intoxication nor I am the emotion of jealousy. And I am not even the four Purushartha — Dharma, Artha, Kama, and Moksha. I am the eternal happiness or bliss state, I am Shiv, I am Shiv.||3|| I am not Punya (good deed), Paap (Sin), Saukhya (friendship), or Dukha (Grief). Neither I am chants (Mantra) or Shrine (Teertha) nor I am the Veda or the sacrifice and oblation. Also, I am not the food, or the one that should be eaten, or the eater. I am eternal happiness or bliss state, I am Shiv, I am Shiv.||4|| Neither I am the fear of death nor I am the difference between races. Neither I am [any relation like] father, mother, nor I am born. Also, I am not a relative, a friend, a teacher (Guru), or a student (Shisya). I am the eternal happiness or bliss state, I am Shiv, I am Shiv.||5|| I am free from changes, and lack all the qualities and form. I envelope all forms from all sides and am beyond the sense-organs. I am always in the state of equality — there is no liberation (Mukti) or captivity (Bandha). I am the eternal happiness or bliss state, I am Shiv, I am Shiv.||6|| एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति ब्रह्म मात्र छन्, दोश्रो केही छैन । ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या ब्रह्म सत्य संसार झुठा । ब्रह्म नन्दम् परम सुखदम् केवलम् ज्ञान मूर्तिम् द्वन्द्वतीतम् गगन सदृश्यम् तत्वम् अस्यदि लक्षम् एकम् नित्यम् विमलमाचलम् सर्वधी साक्षी भूतम् भवतीतम् त्रिगुण रहितम् सद्गुरू त्वम् नमामी ईशावास्योपनिषद्, मन्त्र4,परमात्मा की विलक्षण शक्तिमत्ता अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत् । तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ||४|| वह ईश्वर, अनेजत्– कम्पनरहित है ,सर्वत्र व्याप्त होने से कहीं जाने के लिए कोई भी कम्पन नही करना पड़ता, मनसो –मन से ,जवीयः –अत्यधिक वेगशाली है, अर्थात् मन के द्वारा उसे नहीं पकड़ा जा सकता , यशोदा जी जिस कान्हा को पकड़ने दौड़ीं उसे तपश्चर्या से शुद्ध संवृद्ध योगियों का मन भी नहीं प्राप्त कर सका – गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः । –भागवत-10/9/9, वह परमात्मा निष्कम्प -निश्चल और मन से अधिक वेगशाली है –ऐसा सुनने में विरोध की गन्ध प्रतीत होती यदि पूर्वोक्त पद्धति से अर्थ नहीं किया जाता । एकं–वह एक है अर्थात् उसके समान या उससे अधिक कोई नहीं है – न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते –श्वेताश्वतर–6/8, न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो–गीता –11/43/43, ऐसा यह ब्रह्म, पूर्वं–पहले ही सृष्टि के आरम्भ में, अर्षत् –देवताओं को प्राप्त कर लिया था । सृष्टिकाल में वैकारिक अहंकार से मन और 10 देवता उत्पन्न हुए –दिशा ,वायु,सूर्य,वरुण,अश्विनीकुमार,अग्नि,इन्द्र,विष्णु,मित्र और प्रजापति – वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश । दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ।। –भागवत–2/5/30, इन देवताओं को तो भगवान् ने सृष्टिकाल में ही प्राप्त कर लिया किन्तु ये ,देवा –देवता ,एनत् –इन भगवान् को ,आज तक,न–नही,आप्नुवन् –प्राप्त कर पाये । अमर्षत् ऋषी गतौ गत्यर्थक ऋष् धातु का भूतकालबोधक रूप है। गति का अर्थ ज्ञान और प्राप्ति भी है । जो जिसको प्राप्त होता है वह भी उसे प्राप्त हो जाता है जैसे सीता जी श्रीराम को प्राप्त हुईं तो श्रीराम भी उन्हे प्राप्त हो गये । पर यहां स्थिति भिन्न है । भगवान् ने तो देवताओं को प्राप्त कर लिया पर ये देवता आज तक उन्हें प्राप्त न कर सके । यह एक वैशिष्ट्य है प्रभु का । वैसे प्राप्ति संयोगविशेष रूप है फिर देवताओं ने उन्हें कैसे प्राप् नही किया क्योंकि संयोग तो द्विष्ठ (दो में रहने वाला)ही है - इसका उत्तर यह है कि यद्यपि ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से उनके हृदय में विराजमान होने से उन्हे भी प्राप्त ही है पर ऐसी प्राप्ति से दुःखं का समूल विनाश नही हो सकता – अस प्रभु हृदय अछत अविकारी । सकल जीव जग दीन दुखारी ।। –मानस, जैसे सोने का खजाना खेत में छिपा है किन्तु उसका ज्ञान न होने से उसके ऊपर चलनेमात्र से उसको नही प्राप्त कर सकते ।देखें छान्दोग्य-8/3/2, वैसे ही हृदय में परमात्मा के रहने पर भी गुरु के उपदेश के विना अपनी बुद्धि से उसे नही जान सकते। यही स्थिति देवतओं की है । अतः वे हमारे पुनीत भारतभमि में जन्म की उत्कट लालसा से प्रार्थना करते रहते हैं – अहो अमीषां किमाकारि शोभनं –यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे –भागवत-5/19/21से28तक, तिष्ठत्–सर्वत्र विद्यमान, तत्–वे परमात्मा,अन्यान्–दूसरे,धावतः–दौड़ने वालों वायु,गरुड़ आदि का ,अत्येति–अतिक्रमण कर जाते हैं । अर्थात् जहां जहां ये गतिशील वायु आदि पहुंचते हैं वहां वे पहले से ही वर्तमान हैं ।
सीधा शब्दार्थ लेने पर तिष्ठत् और धावतः अत्येति में विरोध होता जो इस अर्थ में अब नही है । तस्मिन्–उन सर्वाधार सर्वव्यापक परमात्मा में, स्थित होकर ही, मातरिश्वा–वायुदेव, अपो–जल, अप् शब्द यहां उपलक्षण है जो अपना बोध कराते हुए दूसरों का भी बोध कराये उसे उपलक्षण कहते हैं - स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम् । अर्थात् जल पृथिवी ग्रह नक्षत्रादि जितने भी पदार्थ हैं उन सबको ,दधाति –धारण करते हैं । परमात्मा की ही शक्ति से वायु अग्नि आदि सभी शक्तिमान् हैं। इसलिए उनकी इच्छा के विरुद्ध एक तिनका को भी न तो वायुदेव उड़ा सके न ही अग्निदेव जला सके । देखें- केनोपनिषद् ,तृतीय खण्ड, अत एव सभी परमात्मा की शक्ति से ही उनकी इच्छानुसार कार्य करते हैं । सभी वस्तुएं दूसरों से धारण की हुई दिखने पर भी वे भगवान् से ही धारण की जा रही हैं — द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः । वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः । । इस प्रकार परमात्मा विचित्र शक्तियों का आश्रय है – पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च-श्वेताश्वतर-6/8, येशक्तियां स्वाभाविकी हैं औपाधिकी नही । विशेष–इस मन्त्र में तथा इससे पूर्व ईशावास्यमिदं से जो आरम्भ है वह ईश्वर का ही है –ईशा शब्द यही सूचित करता है । वेदान्त में स्पष्टतया जीव और ब्रह्म का वर्णन रूपक के ढंग से किया गया है कि दो पक्षी शरीररूपी वृक्ष में निवास करते हैं उनमें एक स्वादिष्ट भोजन खाता है और दूसरा विना खाये ही प्रकाशित रहता है– द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति। । ,श्वेताश्वतर-4/6, वहीं पर कहा गया है कि जब जीव अपने से भिन्न ईश्वर को देखता है तो शोकरहित हो जाता है – जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः –मुण्डक-3/2, इन मन्त्रों से जीव और ब्रह्म पृथक् पृथक् तत्त्व कहे गये हैं । अन्यत्र जीव का परिमाण भी बतलाया गया है कि बाल के अग्रभाग के सौवें भाग का सौववां भाग किया जाय वही भाग जीव का परिमाण है– बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते । । –श्वेताश्वतर–5/9, इससे जीव की अतिसूक्ष्मता बतलायी गयी है । एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः –मुण्डक-3/19, से जीव का अणु परिमाण स्पष्ट ही कहा गया है । ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः -गीता से भी जीव की सत्ता पारमार्थिकी ही सिद्ध होती है कल्पित नही । जीव को अणु मानने पर ही स्वर्गादि लोकों में उसका गमनागमन सम्भव है । विभु -सर्वव्यापक मानने पर गमनागमन असम्भव हो जाने से – ये वै के चाऽस्माल्लोकात् प्रयन्ति चन्द्रमसमेव ते सर्वे गच्छन्ति –कौषी01/2, एष आत्मा निष्क्रामति –बृहदारण्यक-4/4/2, इत्यादिश्रुतिवाक्यों से विरोध होगा । यह आत्मा हृदय में रहता है –हृदि ह्येष आत्मा-प्रश्नोपनिषद् -3/6, ऐसी स्थिति में अणु आत्मा पादादि में होने वाली वेदना का अनुभव कैसे करेगा ? इसका उत्तर है कि दीपक जैसे एक स्थान में रहकर भी अपनी प्रभा से दूर की वस्तुओं का भी ज्ञान करा देता है वैसे ही जीव एक भाग में रहकर भी अपने ज्ञान गुण से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर सुखादि का अनुभव कर लेगा । इस विषय पर ब्रह्मसूत्र के अध्याय2/3/19 से 33 तक खूब विचार हुआ है । यह आत्मा ज्ञानस्वरूप होने पर भी ज्ञान के आश्रयरूप से प्रतीत होता है -अहं घटं जानामि -मैं घड़े को जानता हूं । ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव और- एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः-प्रश्नोपनिषद्4/9, आत्मा को द्रष्टा श्रोता आदि बतलाने वाली उपनिषद् से आत्मा ज्ञान का आश्रय है ,केवल ज्ञप्ति (ज्ञान)स्वरूप नहीं । कुछ लोग कहते हैं कि आत्मा तो ज्ञानस्वरूप ही है । किन्तु अहंकार अपने आश्रय के रूप में उसे अभिव्यक्त करता है । व्यञ्जकों का यह स्वभाव है कि वे अपने आश्रय के रूप में ही अभिव्यंग्य को अभिव्यक्त करते हैं। जैसे मुख को अभिव्यक्त करने वाला दर्पण अपने आश्रय के रूप में ही उसे प्रकाशित करता है । शीशे मे मुख की प्रतीति आपामर को होती है । इसी प्रकार जड़ अहंकार स्वाश्रयतया आत्मा को प्रकाशित करता है-घटमहं जानामि -मैं घड़े को जानता हूं । यदि अहं आत्मा का धर्म होता तो सुषुप्ति में इसकी प्रतीति होनी चाहिए थी। चूंकि सुषुप्ति में अहं की प्रतीति नही होती है । इसलिए यह आत्मा का धर्म नही है। जड़ अहंकार का धर्म है । पर यह कथन ठीक नहीं क्योंकि जो आत्मा को मात्र ज्ञानस्वरूप मानते हैं वे उसे स्वयं प्रकाश भी मानते हैं । जड़ अहंकार जो स्वयं अपना प्रकाश नहीं कर सकता वह आत्मत्वेन अभिमत ज्ञप्ति का प्रकाश क्या करेगा ? और यदि ज्ञप्ति को अहंकार से व्यंग्य–प्रकाश्य माने तो ज्ञप्ति परप्रकाश्य घट पटादि की भांति अननुभूति (अनुभूति से भिन्न)सिद्ध हो जायेगी । इसलिए आत्मा ज्ञाता और ज्ञानस्वरूप भी है । परमात्मा भी सर्वज्ञ होने से ज्ञान का आश्रय है – यः सर्वज्ञः स सर्ववित् । सम्पूर्ण जीव और प्रकृति उसके शरीर हैं । वह एक है। एकं से बतलाया गया कि उसके समान या अधिक दूसरा नही है । यहां जीव या प्रकृति की सत्ता का अपलाप एकं से नही किया जा रहा । जैसे कक्ष में एक ही व्यक्ति है -कहने से दूसरे व्यक्ति का अभाव बतलाया जा रहा है न कि उस व्यक्ति के वस्त्र रूप गुण या अन्य किसी वस्तु का अभाव । वैसे ही यहां भी एकं से परमात्मा के समान या अधिक कोई वस्तु नही है -यही बतलाया जा रहा है ।

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

इलाहाबाद कुंभ मेला:त्रिवेणी संगम पर ही क्यो स्नान पर्व ?


इलाहाबाद कुम्भ मेला : त्रिवेणी संगम पर ही क्यों स्नान पर्व? इलाहाबाद में सिविल लाइंस से लगभग 7 किमी की दूरी पर स्थित है संगम तट। यहां पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का संगम है, इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। यहीं कुम्भ मेला आयोजित किया जाता है जहां पर लोग स्नान करते हैं। इस पर्व को स्नान पर्व भी कहते हैं। यही स्थान तीर्थराज कहलाता है। ... गंगा और यमुना का उद्‍गम हिमालय से होता है जबकि सरस्वती का उद्‍गम अलौकिक माना जाता है। मान्यता है कि सरस्वती का उद्‍गम गंगा-यमुना के मिलन से हुआ है जबकि कुछ ग्रंथों में इसका उद्‍गम नदी के तल के नीचे से बताया गया है। इस संगम स्थल पर ही अमृत की बूंदें गिरी थी इसीलिए यहां स्नान का महत्व है। त्रिवेणी संगम तट पर स्नान करने से शरीर और आत्मा शुद्ध हो जाती है। यहां पर लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान भी करते हैं। इलाहाबाद कुम्भ मेला 2013 : मुख्य स्नान तिथियां जब सूर्य एवं चंद्र मकर राशि में होते हैं और अमावस्या होती है तथा मेष अथवा वृषभ के बृहस्पति होते हैं तो प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग होता है। मुख्य स्नान तिथियों पर सूर्योदय के समय रथ और हाथी पर संतों के रंगारंग जुलूस का भव्य आयोजन होता है। पवित्र गंगा नदी में संतों द्वारा डुबकी लगाई जाती है। ... विक्रम संवत् 2069 में प्रयागराज (इलाहाबाद) में पड़ने वाले महापर्व में निम्न शाही स्नान और सामान्य स्नान की तिथियां यहां प्रस्तुत हैं - स्नान सूची पर्व नाम दिनांक वार स्नान महत्व प्रथम स्नान मकर संक्रांति 14 जनवरी 2013 सोमवार शाही स्नान द्वितिय स्नान पौष पूर्णिमा 27 जनवरी 2013 रविवार शाही स्नान तृतीय स्नान एकादशी 6 फरवरी 2013 गुरुवार सामान्य स्नान चतुर्थ स्नान मौनी अमावस्या 10 फरवरी 2013 रविवार शाही स्नान पंचम स्नान बसंत पंचमी 15 फरवरी 2013 शुक्रवार शाही स्नान छठवां स्नान रथ सप्तमी 17 फरवरी 2013 रविवार सामान्य स्नान सप्तम स्नान भीष्म एकादशी 18 फरवरी 2013 सोमवार सामान्य स्नान अष्टम स्नान माघी पूर्णिमा 25 फरवरी 2013 सोमवार शाही स्नान नवम स्नान महाशिवरा‍त्रि 10 मार्च 2013 रविवार सामान्य स्नान