शुक्रवार, 17 मई 2013

श्री आदि शंकराचार्य

अद्वेत दर्शन के महान् आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव ७८० ईस्वी में हुआ। केरल प्रदेश में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में महान् भक्त शिव गुरु के घर माता विसिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया। शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा। आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया। गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले। तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे। मणिकर्णिका पर यह बाल-आचार्य वृद्ध शिष्यों को 'मौन व्याख्यान' देता था। काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें 'अद्वेत' का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे। सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।

प्रयाग में कुमारिल भ से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।

भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है। उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था। अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। धर्म संस्थापना के उनके इस कार्य को देख कर यह विश्वास दृढ़ हो उठता है कि वे साक्षात् शंकर के अवतार थे -

"शंकरो शंकर: साक्षात्"।

उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वेतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वेतवाद का प्रवर्त्तक माना जाता है। ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है। उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए और ३२ वर्ष की आयु में तिरोहित हुए। उनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल ५ को हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।

उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है। पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये। वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।

एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया। माँ हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा। माँ ने आज्ञा दे दी। जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा। घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये। गुरु की आज्ञा से वे काशी आये। यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।

बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे। वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे। उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भट्ट से भेंट की। कुमारिल भट्ट के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये। उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया। अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।

उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिखे हैं। उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं - ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।

ज्ञान का भंडार कभी भी भरता नहीं
एक बार स्वामी शंकराचार्य समुद्र किनारे बैठकर अपने शिष्यों से वार्तालाप कर रहे थे कि एक शिष्य ने चाटुकारिता भरे शब्दों में कहा, ''गुरुवर! आपने इतना अधिक ज्ञान कैसे अर्जित किया, यही सोचकर मुझे आश्चर्य होता है। शायद और किसी के पास इतना अधिक ज्ञान का भंडार न होगा!''

''मेरे पास ज्ञान का भंडार है, यह तुझे किसने बताया? मुझे तो अपने ज्ञान में और वृद्धि करना है।''-शंकराचार्य बोले।

फिर उन्होंने अपने हाथ की लकड़ी को पानी में डुबाया और उसे उस शिष्य को दिखाते हुए बोले, ''अभी-अभी मैंने इस अथाह सागर में यह लकड़ी डुबायी, किंतु उसने केवल एक बूंद ही ग्रहण की। बस यही बात ज्ञान के बारे में है। ज्ञानागार कभी भी भरता नहीं, उसे कुछ न कुछ ग्रहण करना ही होता है। मुझसे भी बढ़कर विद्वान् विद्यमान हैं। मुझे भी अभी बहुत कुछ ग्रहण करना है।''

तरुण संन्यासी के पाँव पर मत्था टेका

"देवी! इस नगरी में मण्डन मिश्र कहाँ रहते हैं?"
मार्ग में जा रही कुछ स्त्रियों को देखकर एक पथिक ने प्रश्न किया। पथिक युवा है, काषायवेषधारी संन्यासी। ब्रह्मचर्य का तेज उसके भव्य मुखमंडल पर दीप्त हो रहा है। ऑंखों में आत्मतेज का प्रकाश। उस स्वस्थ, सुशील, सुदर्शन युवक की वाणी मे जैसे चमत्कार मुखर था। मार्ग चल रहीं वे स्त्रियाँ विरम गयीं। वे मण्डन मिश्र के घर की ही सेविकाएं थीं। एक ने प्रसन्न हो राही के प्रश्न का उत्तर दिया-

''स्वत:प्रमाणं परत:प्रमाणं
कीरांगना यत्र गिरागिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर-सन्निरुद्धा
जानीहि तन्मंडन पण्डितौक:॥''
(वेद अपने आप में स्वयंप्रमाण हैं या उन्हें अन्य प्रमाण अपेक्षित हैं- यह तर्क जहाँ पिंजरस्थ मैनाएं करती हों, आप समझ जाइएगा, वही पं. मण्डन मिश्र का आवास है।)
संन्यासी को हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ। अच्छा, तो इस मनीषी के द्वार पर टँगी मैनाएं भी शास्त्रार्थ करती हैं! और ये महिलाएं यद्यपि देखने में सेविकाएं जैसी प्रतीत होती हैं, ऐसी सुन्दर छन्दोबद्ध संस्कृत बोल सकती हैं! पूछा- 'भद्रे! आप का परिचय?'

'हम उन्हीं पंडितप्रवर की परिचारिकाएं हैं।'

और वह पथिक पंडितजी के मकान की खोज में चल पड़ा। क्यों कर रहा है वह उन कर्मकाण्डी पंडितजी की तलाश?
कुमारिल भट्ट ने प्रयाग में तुषाग्रि में जीवित जलने की तैयारी करते हुए उसे इन पंडितजी का पता-ठिकाना बताया था, बड़ी प्रशंसा की थी और कहा था, 'वैदिक धर्म-तत्पर, सुकर्म-निरत, प्रवृत्ति शास्त्र के समर्थक वे मण्डन मिश्र लोगों में 'विश्वरूप' नाम से विख्यात हैं।''

''सदावदन योगभंद च साम्प्रतं
स विश्वरूप: प्रथितो महीतले।
महागृही वैदिक धर्म-तत्पर:
प्रवृत्तिशास्त्रे निरत: सुकर्मत:॥''

वे महान गृहस्थ निवृत्तिमार्ग के घोर विरोधी हैं, इसीलिए वह संन्यासी उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें अपने पथ का पथिक बनाना चाहता है। कारण, संपूर्ण भारत में वैचारिक-सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का महाव्रत उसने इतनी अल्पायु में ही लिया है।

इसी उद्देश्य से महान मीमांसक कुमारिल भट्ट से भी भेंट करने गया था प्रयाग, परन्तु वे स्वेच्छया देह-त्याग के लिए भूसी की आग की चिता सजा कर बैठे मिले।

कहा, 'हम तो जा रहे हैं, आप यदि इस अद्वैत का प्रसार दिग्दिगन्त में करने के आग्रही हैं तो सुधीश्वर मण्डन मिश्र को अवश्य जीतिए क्योंकि उन्हें जीत लेने पर सभी को आप ने जीत लिया है, यह माना जायेगा।
''अयं च पन्था यदि ते प्रकाश्य:
सुधीश्वरो मण्डन मिश्र नामा।
दिगन्तविश्रान्त यशो विजेयो
यस्मिन् जिते सर्वमिदं जितं स्यात्।।"

किन्तु वे पंडितजी महाराज निवृत्तिमार्ग (संन्यास) को तनिक भी सम्मान या समर्थन नहीं देते; इसीलिए आप पहले उन्हें अपना अनुवर्ती-वशवर्ती बनाइए, तभी आप सफल-मनोरथ हो सकेंगे अन्यथा वह आप के विरोध में लगा रहेगा और अद्वैत मत के प्रसार में बाधा आयेगी। आज शीघ्र ही उन से जाकर मिलिए।
"निवृत्तिशास्त्रे न कृतादर: स्वयं
केनाप्युपायेन वशं स नीयताम्।
वशं गते तत्र भवेन्मनोरथ-
स्तदन्तिकं गच्छतु मा चिरं भवान्।"

और फिर उन पंडितजी को घेरने की एक युक्ति भी संकेत में उन्हें बता दी। कहा, जब मंडन मिश्र से आपका शास्त्रार्थ हो तो उसका निर्णायक बनाइए उनकी विदुषी भार्या भारती को। पंडितजी की उसी प्रियतमा, प्रेयसी को आप साक्षी बनायें, मध्यस्थ।
''सर्वासु शास्त्रसरणीषु स विश्वरूपो,
मत्तोऽधिक: प्रियतमश्च मदाश्रयेषु।
तत्प्रेयर्सी रामधनेन्द विधाय साक्ष्ये,
वादे विजित्य तमिमं कुसुमं विदेहि।''

तभी उस संन्यासी ने कुमारिल भट्ट को तारक मंत्र का उपदेश दिया और वह मीमांसक तुषाग्नि की चिता में देह-त्याग करने के लिए जा बैठा। संन्यासी ने मण्डन मिश्र की खोज में माहिष्मती नगरी का पथ पकड़ा। ये मण्डन मिश्र कुमारिल भट्ट के शिष्य थे।
माहिष्मती पहुँचकर वह तरुण माहिष्मती नगर के बहिरंग में अवस्थित एक अमराई में टिक गया। अपराह्न में वह पंडित के घर की तलाश में चला और फिर राह चलती दासियों से उस घर का पता पाकर वह एक ऐसे ही मकान के आगे ठहर कर क्या सुनता है कि पिंजड़ों में छ: मैनाएं परस्पर शास्त्रार्थ कर रही हैं कि 'वेद स्वत: प्रमाण हैं या परत:प्रमाण्य?'

परंतु फिर देखा, पंडितजी के घर श्राद्धकर्म संपन्न हो रहा है। ऐसे में संन्यासी का घर में प्रवेश वे वर्जित मानते होंगे, अत: पिछवाड़े से वह मकान में प्रविष्ट हुआ और आंगन में जहाँ पंडित मण्डन मिश्र खड़े थे, जा पहुँचा। पंडितजी कुपित। उसकी प्रत्यक्ष अवमानना करते पूछा-''कुत्तो मुण्डी? (अरे ओ मुण्डित मस्तक!) यहाँ कैसे घुस आये? देखते नहीं, श्राद्ध हो रहा है?''

और बस, वहीं दोनों में तर्क-वितर्क (शास्त्रार्थ) प्रारंभ हो गया। शर्त रखी गयी कि कौन जीता और कौन हारा। पंडितजी को उस में क्या आपत्ति हो सकती थी! भारती आखिर उनकी प्राणोपम प्रेयसी थी, प्रणयिनी। उन दोनों में पूर्व-प्रणयभाव प्रतिष्ठित रहने से ही विवाह-बंधन में बँधे थे और सद्गृहस्थ के रूप में प्रख्यात थे।

प्रणय भी इसलिए हो सका उनमें कि पं. विष्णुमित्र की बेटी भारती सर्वशास्त्र-निष्णाता परम विदुषी के नाते चतुर्दिक प्रशंसित थी और मंडन मिश्र भी अच्छे शास्त्रज्ञ तथा तर्कशास्त्री थे। दोनों बिहार में जन्मे। मण्डन मिश्र के पिता हिम मिश्र राजगृह में रहते थे, भारती का राजगृह के समीप सोन नदी-तटवर्ती एक ग्राम में वास था। दोनों परस्पर प्रणयपाश में आबद्ध हुए तो घर वालों ने भी खुशी-खुशी उनका विवाह संपन्न करा दिया। भारती जैसे सरस्वती का प्रतिरूप हो, वह मंडन मिश्र की प्रेरणा, पथ का स्फुरण बनी रही। दोनों एक ही पथ के पथिक, एक ही कर्म-विचार में निष्ठावान। न कभी कलह, न क्लेश। एकरस सुखी जीवन बीत रहा था। ऐसे में वह संन्यासी बीच में आ गया है। भारती सोच रही है: प्रभु की इच्छा से शायद कुछ अघटित घटने वाला है, तभी तो यत ने मुझे ही निर्णायिका बना दिया। यह कठिन कर्तव्य मैं पूरी सच्चाई से निभा सकूँ, हे भगवान्! वह शक्ति मुझे प्रदान करना।

मण्डन मिश्र प्रौढ़वयी हैं, संन्यासी अभी उनके सामने बालकतुल्य, फिर भी शास्त्रार्थ जब पूर्ण हो गया तो भारती ने निर्णय उस संन्यासी के पक्ष में दिया- पति को पराजित घोषित करने में उसने किंचित् भी हिचक नहीं अनुभव की। श्रोतागण चकित-स्तंभित कि भारती ने पति का तनिक भी पक्ष नहीं लिया। पूर्ण निष्पक्षता आचरित की उसने। वह जानती थी, शास्त्रार्थ की निर्धारित शर्त के अनुसार पति को हार जाने पर संन्यासी जीवन ही जीना-बिताना होगा, घर-गृहस्थी त्याग देनी होगी। तभी भारती ने टोका,

'यतिवर! आपने पति को तो जीत लिया परंतु वह विजय अपूर्ण है अभी, क्योंकि मैं उनकी अर्धांगिनी अभी अपराजिता ही हूँ। मुझे भी जीत सको तो यह विजय पूर्णता प्राप्त कर सकेगी।'

संन्यासी संकट में पड़ गया। संन्यास व्रत लेकर स्त्री से कैसे उलझे? परंतु भारती मानी नहीं। भारती ने गृहस्थ जीवन के कुछ ऐसे रहस्यात्मक निगूढ़ प्रश्न किये थे जिनसे वह बाल-ब्रह्मचारी नितान्त अनभिज्ञ था। अत: उसने भारती से मोहलत ली और अमरुक नाम के एक मृत नरेश की देह में प्रवेश कर राजमहलों के गृहस्थाश्रम के अनुभव प्राप्त किये। तब तक अपनी देह एक नीरव गुहा में डाल रखी। जानकारी लेकर राजा अमरुक के शरीर से उस संन्यासी का जीवात्मा पुन: अपनी देह में स्थित हुआ और माहिष्मती आकर भारती के प्रश्नो के उत्तर देकर उसे भी पराजित किया। भारती ने हार मान ली।

मण्डल मिश्र ने संन्यासी के पाँवों पर माथा टेक कर कहा, ''गुरुदेव! आपके करुणा-कटाक्ष से मैं धन्य हुआ।''

साथ ही उन्होंने गृहस्थी त्याग दी, संन्यासी के अनुगामी होकर अद्वैत के प्रचार-प्रसार में शेष जीवन खपाया। वे विजेता संन्यासी थे आद्य शंकराचार्य।

विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) कृत 'शंकर दिग्विजय' के अनुसार संन्यासी जीवन में मण्डन मिश्र का नाम 'सुरेश्वराचार्य' प्रसिद्ध हुआ-इन्होंने एक 'वार्तिक' लिखा, जिसमें १२ सहस्र श्लोक हैं। यह वार्तिक शंकराचार्य के 'बृहदारण्यक भाष्य' पर है। अन्य ग्रंथ का नाम है 'नैष्कर्म्य सिद्धि', जो गृहस्थ जीवन में प्रवृति मार्ग के समर्थन में लिखे गये इनके अपने पूर्व-ग्रंथ 'ब्रह्मसिद्धि' के नितान्त विपरीत मत का है और जो सिद्ध करता है कि संन्यासी होकर इन्होंने अपने सभी पूर्वाग्रह तथा मतवाद तिनके की भाँति त्याग दिये।

सात साल की उम्र में वेदों के ज्ञाता
आदि गुरू शंकराचार्य भारतीय दर्शन जगत के सबसे प्रमुख स्तंभों में माने जाते हैं। उन्हें हिंदू धर्म को पुन: स्थापित एवं प्रतििष्ठत करने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने न केवल हिंदू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया बल्कि जनमानस में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य भी साबित करने का प्रयास किया।
शंकराचार्य असाधारण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने केवल सात साल की उम्र में वेदों के अध्ययन-मनन में पारंगता हासिल कर ली थी। उनका जन्म विक्रम संवत ७८८ को श्रृंगभेटी में हुआ था। यह जगह तुंगभद्रा नदी के किनारे है। केवल तीन साल की उम्र में उनके पिता शिवगुरू का निधन हो गया। इसके बाद माता आर्याम्बा ने उनका लालन-पोषण किया। जन्म के बाद उनके परिवार की हालत ठीक नहीं थी इसलिए उनका बचपन विपरीत परिस्थितियों में बीता। शंकराचार्य यज्ञोपवीत के बाद गुरू घर में पढ़ने चले गए। इसी समय धर्म के प्रति उनकी दिलचस्पी जगी। वे छोटी-सी उम्र में ही संन्यास लेना चाहते थे किंतु माता इस बात की अनुमति नहीं देतीं। माता द्वारा संन्यास की अनुमति देने के संबंध में एक कथा भी प्रचलित है। माना जाता है कि एक दिन बालक शंकर नदी स्नान को गए। इस दौरान माता भी उनके साथ थीं। नदी में बालक शंकर का पांव मगरमच्छ ने पकड़ लिया और गहरी धारा में उन्हें खींचने लगा। उनके जीवित रहने की आशा बिल्कुल न थी। तब बालक शंकर ने कहा कि माता यदि तुम मुझे संन्यास की अनुमति दे दो तो शायद मुझे जीवनदान मिल जाए। इस विकट परिस्थिति में माता ने उन्हें संन्यास की अनुमति दे दी और आश्चर्य कि इसके बाद मगर ने भी पैर छोड़ दिये। उस समय उनकी उम्र केवल आठ साल थी। संन्यास के बाद वे गुरू की खोज में मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर पहुंचे। वहां उनकी मुलाकात गोविन्द भगवता प्रसाद भट्ट से हुई जिनसे उन्होंने गुरूदीक्षा ली। गुरू दीक्षा के बाद उन्होंने भारत की पदयात्रा शुरू की। शंकराचार्य केवल १२ साल की उम्र में सारे शास्त्रों में पारंगत हो चुके थे और १६ साल की आयु में उन्होंने ब्रह्मसूत्र-भाष्य रच दिया। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और सद्भाव के लिए देश के चार कोनों में चारधाम तथा द्वादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की। उन्होंने चार पीठ की भी स्थापना की। केवल ३२ साल की अल्पायु में केदारनाथ में उनका देहावसान हुआ लेकिन उनके जैसा दार्शनिक और धर्मज्ञानी विरले ही देखने में आते हैं।