गुरुवार, 18 जुलाई 2013

ब्राह्मण को समझे

-महर्षि मनु के अनुसार
विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥
अर्थात- शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं'' (मनु; 11-35)।

-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार
"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो"
(सन्दर्भ ग्रन्थ - महाभारत)

-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार
"जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे."
(सन्दर्भ ग्रन्थ - शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति)

-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार
"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे"

-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार
"ब्राह्मण वही हे जो "पुंस्त्व" से युक्त हे. जो "मुमुक्षु" हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे"
(सन्दर्भ ग्रन्थ - शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक)
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किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन शकता हे यह भी उतना ही सत्य हे.
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे.....

(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
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मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी. वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.
"कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम" साकारित करे.
सर्वं खल्विदं ब्रह्मं. ओम.
-समर्पण त्रिवेदी.


ब्राह्मण  वैदिक  किताबों से  और उसका अर्थ

वैदिक सनातन धर्म में मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों को “ वेद ”-नाम

से कहा गया है—

“ मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ”—कात्यायन+आपस्तम्ब |

ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति है—“ ब्रह्मणो—मन्त्रात्मकस्य वेदस्य इदम्—

यज्ञक्रियादितद्बोधकमन्त्र व्याख्यानस्वरूपप्रतिपादकं प्रवचनं ब्राह्मणम् “ |


ब्रह्म अर्थात मन्त्रामक जो संहिता भाग है उससे सम्बद्ध अर्थात् यज्ञादि कर्मों

एवं उनके बोधक मन्त्रों  के व्याख्यानात्मक स्वरूप का प्रतिपादक प्रवचन ब्राह्मण

कहा जाता है |


ब्रह्म का अर्थ “ मन्त्र ” वेद से ही ज्ञात होता है—ब्रह्म वै मन्त्रः

                                       —शतपथ ब्राह्मण-७/१/१/५,


भट्टभास्कर जैसे भाष्यकार कहते हैं कि जिस ग्रन्थ में यज्ञादि कर्म

और उनसे सम्बद्ध मन्त्रों का व्याख्यान हो उसे ब्राह्मण कहते हैं—


“ ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणांच व्याख्यानग्रन्थः “—तै०सं०—१/५/१,


अब प्रकृत में आयें |


स्वामी दयानंद ब्राह्मण भाग के वेदत्व का खंडन करने के लिए

लिखते हैं—

“लौकिकास्तावद् गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति |

वैदिकाः खल्वपि “ शन्नो देवीरभीष्टये , इषे त्वोर्जे वा ,अग्निमीले

पुरोहितम्,अग्न आयाहि वीतये इति | यदि ब्राह्मणभागस्यापि

वेदासंज्ञाsभीष्टाभूत्तर्हि तेषामप्युदाहणणमदाद् महाभाष्यकारः |

--“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि

तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “|

              --------------ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका—वेदसंज्ञाविचारप्रकरण, 


  स्वामी जी यहाँ कह रहे हैं कि महाभाष्यकार पतंजलि ब्राह्मण भाग को वेद

नही मानते ,क्योंकि उन्होंने लिखा है कि लौकिक लोग गौः, अश्वः, पुरुषः,

हस्ती, शकुनिः,मृगः,ब्राह्मणः—ऐसा प्रयोग करते हैं और वैदिक लोग –

“ शन्नो देवी---वीतये “ ऐसा प्रयोग |


यदि महाभाष्यकार को ब्राह्मणभाग की वेदसंज्ञा अभीष्ट होती तो उसका

भी उदाहरण ऋग्वेद आदि के मन्त्रों की तरह देते, किन्तु दिए नही, अतः

महाभाष्यकार को मन्त्रभाग की ही वेदसंज्ञा अभिमत है,इसीलिये उन्होंने

मन्त्रभाग के ही प्रथम मंत्र के प्रतीक को लेकर उदाहरण के रूप में प्रस्तुत

किया |


आचार्य सियारामदास नैयायिक—वाह स्वामी जी ! आपकी तर्कोपस्थापनकला

अद्भुत है और महाभाष्य का अध्ययन भी गजब |

क्योंकि “ महाभाष्य के पस्पशाह्निक में ही महाभाष्यकार ब्राह्मणभाग के उन

वाक्यों को प्रस्तुत करते हैं जिन पर आप जैसे महामनीषी की दृष्टि ही नही गयी—

“ वेदे खल्वपि –‘ पयोव्रतो ब्राह्मणः-यवागूव्रतो राजन्यः-आमिक्षाव्रतो वैश्यः ‘

इत्युच्यते |---बैल्वः खादिरो वा यूपः स्यात् |

--अग्नौ कपालान्यधिश्रित्याभिमन्त्रयते “|

--यहाँ भगवान भाष्यकार ने “ वेदे “ इस शब्द से वेद का नाम लेकर

“ पयोव्रतो ब्राह्मणः—इत्यादि से जिन वाक्यों को प्रस्तुत किया है वे

ब्राह्मणभाग के ही तो हैं | मन्त्रभाग में तो उनका दर्शन ही दुर्लभ है |

और स्वामी जी ! आपकी पुस्तक “ संस्कार विधि “ के पृष्ठ ७९ के अनुसार

“ पयोव्रतः “ शतपथ ब्राह्मण का वचन है | “ बैल्वाः खादिरो वा “—ऐतरेय

ब्राह्मण की द्वितीय पंचिका के आरम्भ में है |


यदि ब्राह्मणभाग महाभाष्यकार को वेद मान्य नही होता, तो वे वेद का

नाम लेकर ब्राह्मणभाग के वाक्यों को क्यों उद्धृत करते ?


ऐसे ही अनेक स्थलों में महाभाष्यकार ने ब्राह्मणभाग के वाक्यों को

उद्धृत किया है, हम “ स्थालीपुलाक ” न्याय से एक स्थल को दिखाकर

आगे बढ़ेंगे-–


आचारे नियमः—आचारे पुनर्ऋषिर्नियमं वेदयते –“ तेsसुरा हेलयो हेलय

इति कुर्वन्तः पराबभूवुः “ इति |--पस्पशाह्निक,


यहाँ ऋषिः का अर्थ महावैयाकरण कैयट वेद लिखते हैं –ऋषिः –वेदः—प्रदीप |


  और यह वाक्य आप कहीं भी मन्त्रभाग में नहीं दिखा सकते | ऐसे बहुत से

ब्राह्मणभाग के वाक्य महाभाष्यकार द्वारा वेदत्वेन उल्लिखित हैं |


अतः महाभाष्यकार भी ब्राह्मणभाग को वेद मानते हैं |


स्वामी दयानन्द पर आपत्ति—आपने ब्राह्मणभाग के वेदत्व का खण्डन करते

हुए जो यह लिखा—


“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि

ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “ |


-- जो गौः अश्वः इत्यादि लौकिक उदाहरण दिए गए हैं वे ब्राह्मण आदि

ग्रन्थों में ही घटते हैं, क्योंकि उन्ही में ऐसे शब्दप्रयोग देखे जाते हैं |


यहाँ “ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते “—वाक्य में एवकार का प्रयोग

आपके मानसिक इलाज की और संकेत कर रहा है , क्योंकि महाभाष्यकार

ने जिन ७ गौः आदि प्रयोगों का नाम लिया है क्या उतने ही  लोक में प्रयुक्त

होते हैं? या उससे अधिक ?


प्रथम कल्प अंगीकार्य नही हो सकता ,क्योंकि उनसे भिन्न घटः, पटः,

राजा ,रक्षान्सि,पिशाचाः,इन्द्रः,हव्यवाहम्,आदि बहुत से प्रयोग हैं जो लोक में

प्रयुक्त होते हैं |


यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार करें,तो उनका प्रयोग मन्त्रभाग में भी प्रचुर मात्रा

में मिलने से

“ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “

कथन की धज्जी उड़ जायेगी |


देखें उनकी कुछ झलक-- “ रक्षान्सि,पिशाचाः—अथर्ववेद—१/६/३४/२,

इन्द्रः-ऋग्वेद—५/७/९/१,हव्यवाहम्—ऋग्वेद-८/१/१२,  ,हिरण्यम्,दुहिता—

शुक्ल यजुर्वेद-१९/४, आदि --ये प्रयोग मन्त्रभाग में भी मिलते हैं |


इतना ही नही महाभाष्यकार द्वारा प्रदर्शित सभी लौकिक प्रयोग मन्त्रभाग

में मिलते हैं | देखें—गौः+अश्वः –ये दोनो शब्द यजुर्वेद में आये है | पुरुषः+ब्राह्मण

—शब्द यजुर्वेद, हस्ती शब्द –अथर्ववेद-३/४/२२/३,, शकुनि+मृग--शब्द–ऋग्वेद,


अतः केवल अहंकार से आक्रान्त आपके अनुसार अब तो मन्त्रभाग भी वेद नही

कहा जा सकता क्योंकि वे प्रयोग यहाँ भी मिल रहे हैं |


चले थे ब्राह्मणभाग के वेदत्व  का खंडन करने, उलटे संहिताभाग के वेदत्व से ही

हाथ धो बैठे—“ चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनकर लौटे “ कहावत चरितार्थ हो गयी |


>>>>>जय श्रीराम, जय वैदिक सनातन धर्म<<<<<  


 --ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का क्रमशः खण्डन-- आचार्य सियारामदास नैयायिक