गुरुवार, 29 सितंबर 2011

स्वर से ‘अक्षर’ की अनुभूति

पुराणों में एक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने एक बार लंबे समय तक यह जानने के लिए प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है ? वे जहाँ भी गए, प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये, जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् से पूछकर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चल पड़े।
आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्टसाध्य हैं, भगवन् ! नारद ने वहाँ पहुँचकर विष्णु से प्रश्न किया-ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें ?
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
नारद संहिता
हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।

इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहाँ गाँव गाँव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था

मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो

जय माँ जगदम्बे
दैत्य संघारन वेद उचारन दुष्टन को तुम्ही खलती हो,
खड्ग त्रिशूल लिये धनुबान औ सिंह चढ़े रण में लड़ती हो,
दास के साथ सहाय सदा सो दया करि अनी फते करती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

आदि की ज्योति गणेश की मातु क्लेश सदा जन के हरती हो,
की कहूँ दैत्यन युद्ध भयो तहं शोणित खप्पर लै भरती हो,
की कहूँ देवन याद कियो तहं धाय त्रिशूल सदा धरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

सेवक से अपराध परयो कछु अपने चित्त में ना धरती हो,
दास के काज सवारन को निज जन जानि दया की मया करती हो,
शत्रु के प्राण संघारन को जग तारन को तुम सिन्धु सती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

मारि दियो महिषासुर को हरि केहरि को तुमही पलती हो,
मधु कैटभ दैत्य विध्वंस कियो नर देवन को तुम्हीं तरती हो,
दुष्टन मारि आनंद कियो निज दासन के दुःख को हरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

साधु समाधि लगावत है तिन तिन का तुम्हीं तरती हो,
जो जन ध्यान धरै तुम्हरो, तिनको प्रभुता दै सकती हो ,
तेरो प्रताप तिहूँ पुर में तुलसी जन की मनसा भरती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,

देव तुम्हारी करै विनती उनका तुम काज तुरत करती हो,
ब्रम्हा विष्णु महेश कि हो रथ हाँकि सदा जग में फिरती हो,
चंडहि मुंडहि जाय बधेव तब जायकै शत्रु निपात गती हो,
मोहि पुकारत देर भई जगदम्ब बिलम्ब कहाँ करती हो,


लेखक -यतिंदर  चतुर्वेदी

जहां पांडवों ने की थी शास्त्रों की पूजा

जहां पांडवों ने की थी शास्त्रों की पूजा
करनाल में नीलोखेडी का पूजम गांव महाभारत की यादें समेटे हुए है। यह वह ऐतिहासिक गांव है जहां महाभारत युद्ध से पहले पांडवों ने कौरवों पर विजय हासिल करने के लिए शस्त्रों की पूजा की थी। इसी पूजा से ही इस स्थान का नामकरण पूजम हुआ।

महाभारत काल की स्मृतियों से जुडा होने के कारण गांव के मंदिर में स्थापित शिवलिंग के प्रति लोगों की गहरी आस्था है। यहां पर प्राचीन ताल...ब ने आधुनिक रूप ले लिया है। ग्रामीणों का कहना है कि इस गांव की धरती पर कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों का युद्ध शुरू होने से पहले पांडवों ने शस्त्रों की पूजा की थी। गांव के बाहर एक शिवलिंग स्वयं प्रकट हुआ। बाद में इसको उखाडने की कोशिश की गई तो यह टस से मस नहीं हुआ। ग्रामीणों का कहना है कि प्राचीनकाल में यहां कुम्हार मिट्टी लेने आया करते थे। एक दिन मिट्टी निकालते समय यहां शिवलिंग निकला। किसी ने कस्सी व कुल्हाडी से शिवलिंग को काटने का प्रयास किया किंतु विफल रहा। इन औजारों के लगने के निशान आज भी शिवलिंग पर दिखाई देते हैं।
लोगों के अनुसार इस स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने चरण रखे थे। इस स्थान पर कई वर्ष पूर्व बाबा राम गिर आकर रहने लगे। बाबा राम गिर सर्दियों में तालाब में पूजा करते थे और गर्मियों में अपने चारों ओर धुना लगाकर तपस्या करते थे। बाद में ग्रामीणों ने इस स्थान पर मंदिर बनवाया। मंदिर के साथ ही महाभारत कालीन प्राचीन तालाब है। तालाब का जीर्णोद्धार करके इसे आधुनिक रूप दिया गया है। बाबा राम गिर की याद में अप्रैल महीने में तथा शिवरात्रि पर्व पर यहां विशाल मेला लगता है। मंदिर के महंत बाबा पवन गिर का कहना है कि दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग यहां मन्नत मांगने आते हैं। मेले में काफी भीड लगती है।

शिवलिङ्ग (शिवलिंग)

दो अक्षरों का मंत्र शिव परब्रह्मस्वरूप एवं तारक है।
तारकंब्रह्म परमंशिव इत्यक्षरद्वयम्। नैतस्मादपरंकिंचित् तारकंब्रह्म सर्वथा॥
शिवलिङ्ग (शिवलिंग), का मतलब है भगवान शिव का यौन अङ्ग। शिवलिंग के पूजन के प्रारम्भ के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है। दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिव जी का भाग नहीं रखा, जिससे कुपित होकर जगज्जननी सती दक्ष के यज्ञ मण्डप में योगाग्नि द्वारा जल कर भस्म हो गई। माता सती के शर...ीर त्याग की सूचना प्राप्त होते ही भगवान शिव अत्यन्त क्रुद्ध हो गए और वे नग्न हो कर पृथ्वी में भ्रमण करने लगे। एक दिन वह उसी अवस्था में ब्राह्मणों की बस्ती में पहुंच गए। शिव जी को उस अवस्था में देख कर वहाँ की स्त्रियां मोहित हो गईं। यह देख कर ब्राह्मणों ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनका लिंग तत्काल शरीर से अलग हो कर भूमि पर गिर जाए। ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से शिव का लिंग उनके शरीर से अलग होकर गिर गया, जिससे तीनों लोकों में उत्पात होने लगा। समस्त देव, ऋषि, मुनि व्याकुल हो कर ब्रह्मा की शरण में गए।
ब्रह्मा ने योगबलसे शिवलिंग के अलग होने का कारण जान लिया और वह समस्त देवताओं, ऋषियों और मुनियों को अपने साथ लेकर शिव जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा ने शिव जी की स्तुति वन्दना की और उन्हें प्रसन्न करते हुए उनसे लिंग धारण करने का निवेदन किया। तब भगवान शिव ने कहा कि आज से सभी लोग मेरे लिंग की पूजा प्रारम्भ कर दें तो मैं पुनः उसे धारण कर लूंगा। शिव जी की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम स्वर्ण का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा की। तत्पश्चात् देवताओं, ऋषियों और मुनियों ने अनेक द्रव्यों के शिवलिंग बनाकर पूजन किया। तभी से शिवलिंग के पूजन की परिपाटी प्रारम्भ हो गई। शिवलिंग के महात्म्यका वर्णन करते हुए शास्त्रों ने कहा है कि जो मनुष्य किसी तीर्थ की मृत्तिका से शिवलिंग बना कर उनका हजार बार अथवा लाख बार अथवा करोड बार विधि-विधान के साथ पूजा करता है, वह शिवस्वरूप हो जाता है। जो मनुष्य तीर्थ में मिट्टी, भस्म, गोबर अथवा बालू का शिवलिंग बनाकर एक बार भी सविधि पूजन करता है, वह दस हजार कल्पों तक स्वर्ग में निवास करता है। शिवलिंग का सविधि पूजन करने से मनुष्य सन्तान, धन, धन्य, विद्या, ज्ञान, सद्बुद्धि, दीर्घायु और मोक्ष की प्राप्ति करता है। जिस स्थान पर शिवलिंग की पूजा होती है, वह तीर्थ न होने पर भी तीर्थ बन जाता है। जिस स्थान पर सर्वदा शिवलिंग का पूजन होता है, उस स्थान पर मृत्यु होने पर मनुष्य शिवलोक जाता है।
See more

       
       
     

शनिवार, 13 अगस्त 2011

ब्राह्मण होने का तात्पर्य


ब्राह्मण एक ऐसे निर्धन व्यक्ति की संज्ञा है, जिसे मुद्रा पर नहीं, अपितु विद्या पर आस्था है । यही उसका सर्वोत्तम आदर्श है । ब्राह्मïण के लिए तो भिक्षा ही धन है । आदिकाल से ब्राह्मïण भिक्षा पर जीने का विश्वासी रहा है । जगन्नाथ महाप्रभु ने अपने ब्राह्मïण भक्त की श्रद्धा पर रीझते हुए जो संस्कार दिया । उसका सार है - ब्राह्मण मुझे मो आहार । लक्ष्मी को ब्राह्मïण के घर आनंदानुभूति कहां होती है ।

ब्राह्मण निर्धन हुआ तो क्या हुआ, एक वही है जो पवित्र पैतृकता में जन्म लेता है, पवित्र आचरण करता है,यश कमाता है और लोगों को पाठ पढ़ाकर उन्हें पूर्णता की ओर उन्मुख करता है । वह सनातन परंपरा का संपोषक रहा है। सोलह संस्कारों का साक्षी एवं संचालक । ब्राह्मïण होने का मतलब सूर्य बनना है, जिसके उदय होते ही रात की कलुषताओं का रंग विलीन हो जाता है । ब्राह्मïण होने का अर्थ सामाजिक परिसरों का शुद्धीकरण है, जहां न प्रतिशोध के लिए जगह है और न ही दमन के लिए, ब्राह्मïण का आशय है विशाल समुद्र है जो कभी नहीं घटता है । सदा से ही ब्राह्मïण का धर्म और कर्म कुव्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष को दिशा देना रहा है । तभी तो ज्ञान, चेतना, विद्या, वाणी तथा अभिव्यक्ति का पवित्रतम् उत्तरदायित्व उसके नाम है ।

राजा को ही भुसूर नहीं कहा जाता, ब्राह्मïण ही भुसूर कहलाते हैं । ब्राह्मïण बिना राजा के रह सकता है, किन्तु एक राजा ब्राह्मïण के बिना कदापि नहीं । ब्राह्मïण सर्वथा, सर्वदा शांति का पुजारी रहा है । वह समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों की प्रसन्नता के लिये गीत गाता रहा है । जो समय आने पर आयुध भी धारण कर लेता है । वह चाणक्य बनकर नंदवंश की यातना सेप्रजा को मुक्ति दिलाने में भी पीछे नहीं हटता । वह ब्राह्मïण ही है, जो कभी द्रोणाचार्य बनकर कौरव वंश को समूल नष्टï करने का गुरू मंत्र पांच पांडवों को देता है । कभी वह अश्वत्थामा बनकर युद्ध की रणभेरी बजाता है, तो कभी वह परशुराम बनकर विध्नकारी शक्तियों को नामोनिशान मिटा देता है ।

ब्राह्मण पंडित है और पांडित्य उसकी पहचान । वह अग्रजन्मा है, इसलिए वह सभी भाईयों का मार्गदर्शक भी है । वह द्विज है, इसलिए उसे दुनिया के अनुभवों का दोहरा लाभ प्राप्त होता है । ब्राह्मïण सर्वश्रेष्ठï विद्यार्थी है और सर्वश्रेष्ठï प्राध्यापक भी । हमारी खुबिया हमारी पहचान है । हमारे युवा आज के इंटरनेट मोबाईल युग कर लो दुनिया मुी में के विपरीत दुनिया के मुी में समाते जा रहे हैं । एक ब्राह्मïण चाणक्य एवं एक परशुराम बनकर सम्पूर्ण समाज का उद्धार किया करता था, पर आज हम भीड़ में गुम होते जा रहे हैं ।

हमारी खामियां हमें समाज में पीछे धकेल रही है, अभी मैं एक सामाजिक संगठन की बैठक में भाग लेने गया था वहां भी खूब चिंतन हुआ, कहा गया कि आज आईएएस में 5 प्रतिशत भी ब्राह्मïण नहीं रहे । मेरिट लिस्टों से हमारे नाम विलुप्त हो रहे हैं यह क्या हो रहे हैं हमें ? हम कहां जा रहे हैं ? क्या आरक्षण हमें खा रहा है ? क्या हमारी योग्यता कम हो गयी है ? क्या हमारी बुद्धि की धार थोथी हो गयी है ? क्या हमें राजनीति निगल रही है ? बड़ों को चिंता और चिंतन करना है । उनके भाषण को राशन समझ हमें भरपेट खाना होगा । इन समस्यों से हमें स्वयं दो -चार होना होगा । हमें ही गोस्वामी बनना होगा, तभी हमारा उद्धार होगा ।

कुछ युवाओं को तो अपने अमूल्य क्षण देने ही होंगे । भारत को विश्व गुरू बनाने और समग्र विकास की कल्पना केवल हम ही कर सकते हैं । हमें ही लोभ, मोह, माया, ईष्र्या नहीं है । हम हैं यज्ञ, तप और साधना की उत्पत्ति । हमें समाज की कमान अपने हाथों में लेनी होगी तभी
सही दिशा में नेतृत्व चल पायेगा ।

vivek mishra


























गुरुवार, 11 अगस्त 2011

"जय हिंद" - जोशीले नारे की रोचक कहानी

subhashवैसे तो जय हिन्द नारे का सीधा सम्बन्ध नेताजी से है मगर सबसे पहले प्रयोगकर्ता नेताजी सुभाष नहीं थे. आइये देखें यह किसके हृदय में पहले पहल उमड़ा और आम भारतीयों के लिए जय-घोष बन गया.

“जय हिन्द” के नारे की शुरूआत जिनसे होती है उन क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई का जन्म 15 सितम्बर 1891 को थिरूवनंतपुरम में हुआ था. गुलामी के के आदी हो चुके देशवासियों में आजादी की आकांक्षा के बीज डालने के लिए उन्होने कॉलेज के अभ्यासकाल के दौरान “जय हिन्द” को अभिवादन के रूप में प्रयोग करना शुरू किया.

1908 में पिल्लई आगे के अभ्यास के लिए जर्मनी चले गए.अर्थशास्त्र में पी.एच.डी करने के बाद जर्मनी से ही अंग्रेजो के विरूद्ध क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरू की. प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उन्होने जर्मन नौ-सेना में जूनियर अफसर का पद सम्भाला. 22 सितम्बर 1914 के दिन “एम्डेन” नामक जर्मन जहाज से चेन्नई पर बमबारी की. पिल्लई 1933 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना में नेताजी सुभाष से मिले तब “जय हिन्द” से उनका अभिवादन किया. पहली बार सुने ये शब्द नेताजी को प्रभावित कर गए.

इधर नेताजी आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना करना चाहते थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने जिन ब्रिटिश सैनिको को कैद किया था, उनमें भारतीय सैनिक भी थे. 1941 में जर्मन की क़ैदियों की छावणी में नेताजी ने इन्हे सम्बोधित किया तथा अंग्रेजो का पक्ष छोड़ आजाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया. यह समाचार अखबारों में छपा तो जर्मन में रह रहे भारतीय विद्यार्थी आबिद हुसैन ने अपनी पढ़ाई छोड़ नेताजी के सेक्रेट्री का पद सम्भाल लिया. आजाद हिन्द फौज के सैनिक आपस में अभिवादन किस भारतीय शब्द से करे यह प्रश्न सामने आया तब हुसैन ने”जय हिन्द” का सुझाव दिया. अंतः 2 नवम्बर 1941 को “जय-हिन्द” फौज का युद्धघोष बन गया. जल्दी ही भारत भर में यह गूँजने लगा, मात्र कॉंग्रेस पर तब इसका प्रभाव नहीं था.

1946 में एक चुनाव सभा में जब लोग “कॉग्रेस जिन्दाबाद” के नारे लगा रहे थे, नेहरूजी ने लोगो से “जय हिन्द” का नारा लगाने के लिए कहा. अब तक “वन्दे-मातरम” ही कॉंग्रेस की अहिंसक लड़ाई का नारा रहा था, अब सुभाष बोस की लड़ाई जिसमें हिंसा का विरोध नहीं था के नारे “जय हिन्द” में भेद खत्म हो गया.

15 अगस्त 1947 को नेहरूजी ने लाल किल्ले से अपने पहले भाषण का समापन “जय हिन्द” से किया. तमामjai-hind-new-delhi डाकघरों को सुचना भेजी गई की डाक टिकट चाहे राजा ज्योर्ज की मुखाकृति की उपयोग में आये उस पर मुहर “जय हिन्द” की लगाई जाये. यह 31 दिसम्बर 1947 तक यही मुहर चलती रही. केवल जोधपुर के गिर्दीकोट डाकघर ने इसका उपयोग नवम्बर 1955 तक जारी रखा. आज़ाद भारत की पहली डाक टिकट पर भी “जय हिन्द” लिखा हुआ था.

“जय हिन्द” अमर हो गया मगर क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई इतिहास में कहीं खो गए


शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान है।
हितोपदेश

निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है।
महात्मा गांधी

अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है।
वेद व्यास

जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं।
पतंजलि

मनुष्य जिस समय पशु तुल्य आचरण करता है उस समय वह पशुओं से भी नीचे गिर जाता है।
रवींद्रनाथ

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

घाघ

घाघ (सं0-1753) अन्तर्वेद के प्रसिद्ध कवि हैं। घाघ अपनी कथोक्तियों, लोकोक्तियों तथा नीति सम्बंधी रचनाओं के कारण लोकविख्यात हैं। इनकी रचनाएँ सामाजिक और ग्रामीण बोलचाल की भाषा में हैं|
कृषि पंडित एवं व्यावहारिक पुरुष होने के नाते घाघ का नाम भारतवर्ष के, विशेषत: उत्तरी भारत के, कृषकों के जिह्वाग्र पर रहता है।
चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटना, घाघ की कहावतें उनका पथप्रदर्शन करती हैं। ये कहावतें मौखिक रूप से प्रायः भारत भर में प्रचलित हैं।
घाघ के जन्मकाल एवं जन्मस्थान के संबंध में बड़ा मतभेद है। शिवसिंह सरोज का मत है कि इनका जन्म सं. 1753 में हुआ था, किंतु पं.रामनरेश त्रिपाठी ने बहुत खोजबीन करके इनके कार्यकाल को सम्राट अकबर के राज्यकाल में माना है। इनकी जन्मभूमि कन्नौज के पास चौधरीसराय नामक ग्राम बताई जाती है। ये दुबे ब्राह्मण थे। कहा जाता है, अकबर ने प्रसन्न होकर इन्हें सरायघाघ बसाने की आज्ञा दी थी, जो कन्नौज से एक मील दक्षिण स्थित है।
अभी तक घाघ की लिखी हुई कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं हुई। हाँ, उनकी वाणी कहावतों के रूप में बिखरी हुई है, जिसे अनेक लोगों ने संग्रहीत किया है। इनमें रामनरेश त्रिपाठी कृत "घाघ और भड्डरी" (हिंदुस्तानी ऐकेडेमी, 1931 ई.) अत्यंत महत्त्वपूर्ण संकलन है।
घाघ के कृषिज्ञान का पूरा पूरा परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। उनका यह ज्ञान खादों के विभिन्न रूपों, गहरी जोत, मेंड़ बाँधने, फसलों के बोने के समय, बीज की मात्रा, दालों की खेती के महत्व एवं ज्योतिष ज्ञान, शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है। घाघ का अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है, जिसमें किसान भूमि को स्वयं जोतता है :
किस मास में किधर से हवा चले तो कितनी वर्षा हो, अथवा किस मास की वर्षा से खेती में कीड़े लगेंगे, इसका अच्छा व्यावहारिक ज्ञान उन्हें था। आज भी किसान उनकी ऐसी कहावतों से लाभान्वित होते हैं।
बैल ही खेती का मूलधार है, अत: घाघ ने बैलों के आवश्यक गुणों का सविस्तार वर्णन किया है। हल तैयार करने के लिये आवश्यक लकड़ी एवं उसके परिमाण का भी उल्लेख उनकी कहावतों में मिलता है।
उपलब्ध कहावतों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि घाघ ने भारतीय कृषि को व्यावहारिक दृष्टि प्रदान की। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी और उनमें नेतृत्व की क्षमता भी थी। उनके कृषि संबंधी ज्ञान से आज भी अनेकानेक किसान लाभ उठाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से उनकी ये समस्त कहावतें अत्यत सारगर्भित हैं, अत: भारतीय कृषिविज्ञान में घाघ का विशिष्ट स्थान हैं।

यतीन्द्र नाथ चतुर्वेदी YATINDRA NATH CHATURVEDI

शनिवार, 16 जुलाई 2011

भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंग है

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥


भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंग है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।
स्थल
ज्योतिर्लिंग स्थल, भारत के मानचित्र पर


1. श्री सोमनाथ काठियावाड़ (गुजरात) के अंतर्गत प्रभास क्षेत्र में विराजमान है।


सर्वप्रथम एक मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया । आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी । प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी । अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया ।

१०२४ के डिसम्बर महिनेमें मुहमद गजनवी ने कुछ ५,००० साथीयों के साथ लूट चलाकर स्वम इस मंदिर के लिंग के नाश करने में महत्व का भाग लिया। ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे ओर किसीने सामना नहीं किया। प्रायः सभी की कत्ल कर दी गई। लूट के माल के साथ लिंग के पत्थरों के टुकडे ग़ज़नी ले गया ओर मस्जिद में सीढ़ियों में लगवा दिये गये। [१][२]

इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया । सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया । मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया । इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया ।

2. श्रीशैल पर्वत आन्ध्र प्रदेश प्रांत के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तटपर है, इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। यहां श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं।


श्रीशैलम (श्री सैलम नाम से भी जाना जाता है) नामक ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश के पश्चिमी भाग में कुर्नूल जिले के नल्लामल्ला जंगलों के मध्य श्री सैलम पहाडी पर स्थित है। यहाँ शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है। मंदिर का गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नही जा सकते। इस कारण यहाँ दर्शन के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी होती है। स्कंद पुराण में श्री शैल काण्ड नाम का अध्याय है। इसमें उपरोक्त मंदिर का वर्णन है। इससे इस मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। तमिल संतों ने भी प्राचीन काल से ही इसकी स्तुति गायी है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने जब इस मंदिर की यात्रा की, तब उन्होंने शिवनंद लहरी की रचना की थी। श्री शैलम का सन्दर्भ प्राचीन हिन्दू पुराणों और ग्रंथ महाभारत में भी आता है।

3. श्री महाकालेश्वर मालवा क्षेत्र (मध्यप्रदेश) में क्षिप्रा नदी के तटपर उज्जैन नगर में विराजमान है, उज्जैन को अवंतिकापुरी भी कहते हैं।


भारत के मध्यप्रदेश प्रान्त में स्थित उज्जैन नगर के दर्शनीय स्थलों में महाकालेश्वर का मंदिर प्रमुख है। यह देश के १२ ज्योतिर्लिगों में से एक है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यंत पुण्यदायी महत्ता है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है। १२३५ ई. में अलतमस के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंश करने के बाद से यहां जो भी शासक रहे, उन्होंने इस मंदिर का जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया है इसीलिए मंदिर अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। प्रतिवर्ष और सिंहस्थ के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है।

इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। लेकिन १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहां दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी- पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया।

मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ीदार रास्ता है। इसके ठीक उपर एक दूसरा कक्ष है जिसमें ओंकारेश्वर िशवलिंग स्थापित है। मंदिर का क्षेत्रफल १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर है। महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा एक छोटा सा जलस्रोत है जिसे ``कोटितीर्थ`` कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि अलतमस ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी। सन १९६८ के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया है। इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया है। लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा १९८० के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया गया है। महाकालेश्वर मंदिर की व्यवस्था के लिए एक प्रशासनिक समिति का गठन किया गया है जिसके निर्देशन में यहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है।


टीका टिप्पणी

वक्र: पंथा यदपि भवन प्रस्थिताचोत्तराशाम
सौधोत्संग प्रणयोविमखोमास्म भरूज्जयिन्या:।
विद्युद्दामेस्फरित चकितैस्त्र पौराड़गनानाम
लीलापांगैर्यदि न रमते लोचननैर्विंचितोसि।। - कालिदास

4. मालवा क्षेत्र में ही ॐकारेश्वर स्थान नर्मदा नदी के तट पर है। उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोरटक्का नामक स्टेशन है, वहां से यह स्थान 10 मील दूर है। यहां ॐकारेश्वर और अमलेश्वर के दो पृथक-पृथक लिङ्ग हैं, परन्तु ये एक ही लिङ्ग के दो स्वरूप हैं।


ॐकारेश्वर एक हिन्दू मंदिर है। यह मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है। यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगओं में से एक है। यह यहां के मोरटक्का गांव से लगभग 12 मील (20 कि.मी.) दूर बसा है। यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है। यहां दो मंदिर स्थित हैं।

* ॐकारेश्वर
* अमरेश्वर

ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। यह नदी भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है, और अब इस पर विश्व का सर्वाधिक बड़ा बांध परियोजना का निर्माण हो रहा है।

जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है।

इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108 प्रभावशाली शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ममलेश्वर (अमलेश्वर) के रूप में विराजमान हैं।

देवी अहिल्याबाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है। ओंकारेश्वर नगरी का मूल नाम 'मान्धाता' है।

राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं।

नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में 15 दिन का स्नान तथा गंगाजी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्यफल नर्मदाजी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।

ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।

नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी लाखों भक्तों द्वारा 1 हजार 780 मील की लंबी परिक्रमा की जाती है। नियम से उक्त परिक्रमा 108 दिनों में संपन्न की जाती है।

5. महाराष्ट्र के पासे परभनी नामक जंक्शन है, वहां से परली तक एक ब्रांच लाइन गयी है, इस परली स्टेशन से थोड़ी दूर पर परली ग्राम के निकट श्रीवैद्यनाथ नामक ज्योतिर्लिङ्ग है। परंतु शिवपुराण में वैद्यनाथं चिताभूमौ ऐसा पाठ है, इसके अनुसार संथाल परगना (झारखंड) में जसीडीह स्टेशन के पासवाला वैद्यनाथ नामक ज्योतिर्लिङ्ग सिद्ध होता है, क्योंकि यही चिताभूमि है। परंपरा और पौराणिक कथाओं से भी देवघर में ही श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग का प्रमाण मिलता है।


यह ज्*योतिर्लिंग झारखंड के देवघर नाम स्*थान पर है। कुछ लोग इसे वैद्यनाथ भी कहते हैं। देवघर अर्थात देवताओं का घर। बैद्यनाथ ज्*योतिर्लिंग स्थित होने के कारण इस स्*थान को देवघर नाम मिला है। यह ज्*योतिर्लिंग एक सिद्धपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस लिंग को 'कामना लिंग' भी कहा जाता हैं।

इस लिंग स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही ािा शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-ज्यों कर दिये और फिर वरदान मांगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा मांगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ कि यदि मार्ग में इस पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगां अंतोगत्वा वहीं हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला, पर मार्ग में यहा चिताभूमि में आने पर उसे लघुशंका निवृत्तिा की आवश्यकता हुई और वह उस लिंग को एक अहीर को थमा लघुशंका-निवृत्ता के लिये चला गया। इधर उस अहीर से उसे बहुत अधिक भारी अनुभवकर भूमिकर रख दिया। बस, फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अंगूठा गड़ाकर लंका को चला गयां इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की और शिवजी का दर्शन करके उनकी वहीं प्रतिष्ठा की और स्तुति करते हुए स्वर्ग चले गये। यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग महान् फलों का देनेवाला है।

बैद्यनाथ का मुख्य मंदिर सबसे पुराना है जिसके आसपास अनेक अन्य मंदिर भी हैं। शिवजी का मंदिर पार्वती जी के मंदिर से जुड़ा हुआ है।

बैद्यनाथ की यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) शुरु होती है। सबसे पहले तीर्थयात्री सुल्तानगढ़ में एकत्र होते हैं जहां वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र जल भरते हैं। इसके बाद वे बैद्यनाथ और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे।

बासुकीनाथ अपने शिव मंदिर के लिए जाना जाता है। बैद्यनाथ मंदिर की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक बासुकीनाथ में दर्शन नहीं किए जाते। यह मंदिर देवघर से 42 किमी. दूर जरमुंडी गांव के पास स्थित है। यहां पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। इसके इतिहास का संबंध नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। बासुकीनाथ मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी हैं।

बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मंदिर भी हैं। इन्हें बैजू मंदिर के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था। प्रत्येक मंदिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है।
 हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।

अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।

सावन के महीने में भगवान शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस दौरान पूजन की शुरूआत महादेव के अभिषेक के साथ की जाती है। अभिषेक में महादेव को जल, दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, गंगाजल, गन्ना रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक के बाद बेलपत्र, समीपत्र, दूब, कुशा, कमल, नीलकमल, ऑक मदार, जंवाफूल कनेर, राई फूल आदि से शिवजी को प्रसन्न किया जाता है। इसके साथ की भोग के रूप में धतूरा, भाँग और श्रीफल महादेव को चढ़ाया जाता है।

महादेव का अभिषेक करने के पीछे एक पौराणिक कथा का उल्लेख है कि समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकलने के बाद जब महादेव इस विष का पान करते हैं तो वह मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी दशा देखकर सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं और उन्हें होश में लाने के लिए निकट में जो चीजें उपलब्ध होती हैं, उनसे महादेव को स्नान कराने लगते हैं। इसके बाद से ही जल से लेकर तमाम उन चीजों से महादेव का अभिषेक किया जाता है।

भगवान शिव को भक्त प्रसन्न करने के लिए बेलपत्र और समीपत्र चढ़ाते हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार जब 89 हजार ऋषियों ने महादेव को प्रसन्न करने की विधि परम पिता ब्रह्मा से पूछी तो ब्रह्मदेव ने बताया कि महादेव सौ कमल चढ़ाने से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना ही एक नीलकमल चढ़ाने पर होते हैं। ऐसे ही एक हजार नीलकमल के बराबर एक बेलपत्र और एक हजार बेलपत्र चढ़ाने के फल के बराबर एक समीपत्र का महत्व होता है।

सावन मास में शिव मंदिरों में विशेष सजावट की जाती है। शिवभक्त अनेक धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। साथ ही महादेव को प्रसन्न करने के लिए किसी ने नंगे पाँव चलने की ठानी, तो कोई पूरे सावन भर अपने केश नहीं कटाएगा। वहीं कितनों ने माँस और मदिरा का त्याग कर दिया है।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

सुंदरकाण्ड

क्यों रखा गया सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर?...............>

रामचरितमानस के इस पाँचवें सौपान को लेकर लोग चर्चा करते हैं कि इसका नाम सुंदरकाण्ड क्यों रखा गया। जबकि मानस के अन्य काण्ड का नाम व्यक्ति या स्थितियों के नाम पर रखे गए हैं।

बाललीला का बालकाण्ड, अयोध्या की घटनाओं का अयोध्या काण्ड, जंगल के जीवन का अरण्य काण्ड, किष्किंधा राज्य के कारण क...िष्किंधा काण्ड, लंका के युद्ध की चर्चा लंका काण्ड में और जीवन के प्रश्नों का उत्तर फिलॉसफी के साथ उत्तरकाण्ड में दिया गया है।

फिर अचानक सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर क्यों रखा गया? दरअसल, लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी हुई थी। तीन पर्वत थे - पहला सुबैल, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा, नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत जहां अशोक वाटिका निर्मित थी और यहीं हनुमानजी और सीताजी के मिलन की प्रमुख घटना घटी थी इसलिए इसका नाम सुंदरकाण्ड है।
 

उपनिषद

उपनिषद वेद के अंतिम भाग हैं, और इसलिए उन्हें वेद-अंत या वेद का अंत कहा जाता है, एक संप्रदाय जो यह सुझाव देता है कि उनमें वैदिक शिक्षा का सार...