गुरुवार, 20 जून 2024

भारतीय बुद्धिमता की चमक . .

भारतीय बुद्धिमता की चमक . .======================= ======================= . .विदेशी इतिहासकारों का यह कथन महत्वपूर्ण है कि सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व भी विदेशों से विद्यार्थी भारत स्थित तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे। इस के विपरीत भारत के स्नात्क शिक्षा का प्रसारण करने के लिये ही विदेशों में जाते थे।भारत की समृद्धि तथा विकास के चर्चे तो यूनान तथा स...भी देशों में सिकन्दर के भारत आगमन से पूर्व ही थे। सिकन्दर भारत के सीमावर्ती पंजाब क्षेत्र के तक्षशिला विश्व विद्यालयसे अति प्रभावित था। उसी से प्रेरणा ले कर सिकन्दर ने मिस्त्र में सिकन्दरिया (एलेग्ज़ेन्डरिया) नाम के विश्व विद्यालय का निर्माण करवाया था जो कालान्तर भारतीय तथा यूनानी विद्या प्रसार के केन्द्र के तौर पर विकसित हो गया। इस के पश्चात ही सिकन्दर ने मिस्त्र, ऐशिया माईनर, ईरान, बेकटीरिया तथा उत्तर पश्चिमी भारत के प्रान्तों को मिला कर अपनी हैलेनिस्टिक ऐम्पायर स्थापित की थी जिस के माध्यम से भारतीय कलाओं और ज्ञान विज्ञान का यूनान की ओर निर्यात बढ गया।
प्रचुर संख्या में भारतीय ग्रन्थों का यूनानी भाषा में अनुवाद किया गया तथा उन्हे सिकन्दरिया के पुस्कालय में रखा गया। सिकन्दर अपने साथ कई बुद्धिजीवियों और ब्राह्मणों को भी यूनान ले गया था । कालान्तर सिकन्दरिया मैडिटरेनियन प्रदेश में ऐक महत्वशाली महानगर के रूप में विकसित हुआ। वहाँ का पुस्कालय तथा पुरातत्वालय योरुप का प्रथम अन्तराष्ट्रीय विद्याध्यन केन्द्र बन गया था। योरुपीय देशों की प्रथम जागृति की शुरात यहीं से हुयी थी।
सिकन्दर के यूनानी सिपाहियों ने भारतीय तथा ईरानी महिलाओं से विवाह भी किये थे और उन्हें अपने साथ स्वदेश ले गये थे। दोनो देशों के बीच व्यापारिक तथा राजनैतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गये थे। सिकन्दर के उत्तराधिकारी सैल्युकस ने तो अपनी पुत्री का विवाह सम्राट चन्द्रगुप्तमौर्य से कर दिया था और उसी के फलस्वरूप यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने लगा था। मैगस्थनीज़ ने भारत के गौरवशाली वातावर्ण के इतिहास पाश्चात्य बुद्धजीवियों के लिये लिखछोडा है।
पाईथागोरस
य़ोरुप में विद्या के आधुनिकीकरण की नींव पाईथागोरस ने भारतीय गणित को यूनान में प्रसारित कर के डाली थी। पाईथागोरस की जीवनी उस की मृत्यु के लगभग दो शताब्दी पश्चात टुकडों में उजागर हुयी जिस से पता चलता है कि उस का जन्म ईसा से 560 वर्ष पूर्व ऐशिया माईनर के ऐक दूीप सामोस पर हुआ था। संगीत और जिमनास्टिक की प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वह मिस्त्र चला गया और बेबीलोन तथा उस के आसपास के क्षेत्रों में कुछ काल तक रहा था। उस क्षेत्र में भारतीय दर्शन ज्ञान, उपनिष्दों, गणित तथा रेखागणित का प्रसार और प्रभाव था सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय स्थापित होने से पूर्व ही था। भारतीय संगीत के धरातल पर ही पाईथागोरस ने पाशचात्य संगीत पद्धति की आधार शिला बनाई थी।
जब पाईथागोरस भारतीय प्रभाव के क्षेत्र में था तब ईरान ने मिस्त्र पर आक्रमण किया। पाईथागोरस को भी बन्दियों के साथ ईरान ले जाया गया । कालान्तर पाईथागोरस ईरान से पंजाब तक भारत में भी गया जहाँ उस ने यूनानीरीति रिवाज और वस्त्र त्याग कर भारत के पहाडी ढंग के टराउजर्स की तरह के परिधान अपना लिये थे। उसी तरह का परिधान पहने महारज कनिष्क को भी ऐक प्रतिमा में दिखाया गया है जो अफगानिस्तान में पाई गई थी। प्रतिमा में सम्राट कनिष्क को डबल ब्रेस्टिड कोट के साथ टराउजर्स पहने दिखाया गयाहै। यूनान में उस समय तक टराउजर्स नहीं पहनी जाती थीँ। टराउजर्स की ही तरह के पायजामे और सलवारें भारत ईरानघाटी में पहने जाते थे। अतः पाईथागोरस ने भारतीय रेखागणित के साथ साथ भारतीय वेश भूषा भी योरुप में प्रचिल्लत की थी।
भारतीय विचारघारा का प्रसार
लगभग बीस वर्षों तक पूर्वी देशों मेंरहने के उपरांत पाईथागोरस योरुप वापस जा कर इटली के क्रोटोन प्रान्त में रहने लगा। वहाँ पर यूनानी भाषा का प्रचार भी था। उस ने अपने मित्रों तथा शिष्यों की ऐक मणडली बनाई। उस टोली ने संसार को विश्व स्तरीय परिवार – वसुदैव कुटम्बकम् के अनुरूप प्रचार किया तथा निजि जीवन में अनुशासित रहने पर भी बल दिया।
पाईथागोरस ने पुनर्जीवन में विभिन्नशरीर पाने के भारतीय विचार को भी व्यक्त किया। उस ने अपने पुनर्जन्मों के समर्ण रखने का दावा किया तथा सभी जीवों में ऐकीकरण का भारतीय सिद्धान्त दोहराया। अपनी टोली के सदस्यों को जीवों के प्रति दया और अहिंसा का बर्ताव करने को कहा। पाईथागोरस का कथन था कि जो जीवों के साथ हिंसात्मक व्यवहार करे गा वह पुनर्जन्म अनुसार अगला जन्म पशु योनि में लेगा।
पाईथागोरस के प्रचार के फलस्वरूप यूनान में बुद्धिजीवियों का समाज जिन में सुकरात, अफलातून, अरस्तु (क्रमशः सोक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टोटल) आदि तथा कई अन्य उस के विचारों का उनुमोदन करने लगे। उन्हों ने भारतीय परम्परा के चार महाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुका अनुमोदन तो किया किन्तु आकाश का यथार्थ नहीं समझ पाये। अतः यूनानी बुद्धिजीवियों ने आकाश तत्व का प्रतिपादन महाभूतों में नहीं किया।
योरूपीय जागरुक्ता के प्रेरक
जिन ग्रन्थों और सिद्धान्तों ने सिकन्द्रीया विश्वविद्यालय के माध्यम से पाश्चात्य जगत में विचार क्रान्ति को प्रोत्साहन दे कर योरुप वासियों की प्रथम चेतना या प्रथम जागृति ( फर्स्ट अवेकनिंग ) को जगाया उन में से कुछ मुख्य भारतीय विषय इस प्रकार हैं –
*. सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में काम करने वाले ऐक यूनानी खगोल शास्त्री अरिस्टारक्स ने 300 –250में सौर मण्डल का सिद्धान्त घोषित किया जो कालान्तर शताब्दियों पश्चात कोपरनिकस नें भी अपनाया और उसे विकसित किया।
*. सिकन्द्रीया के पुरात्तवालय में ही काम करने वाले ऐक अन्य यूनानी खगोल शास्त्री इराटोस्थनीज ने 250-200 में आकाश का ऐक मानचित्र बनाया जिस में 675 तारे दिखाये। उस ने पृथ्वी का व्यास भी नापा जो लगभगआधुनिक आँकडों के समीप मिलता जुलताथा।
*. रोमन सैना के साथ काम करने वाले ऐक य़ूनानी चिकित्साशास्त्री डियोकोरिडिस 01 –100 ने वनस्पतियों का अध्ययन कर के उन से औषधि तैयार करने पर शोध किया और डी माटेरा मैडिका नाम का ऐक ग्रन्थ रचा जिसे बाद में अरब वासियों ने भीसंरक्षित किया। वह योरुप का प्रथम औषधि ग्रन्थ था तथा उस में 600 पौधों और 1000 औषधियों का उल्लेख किया गया था।
*. मिस्त्र में खगोल शास्त्री पटोल्मी (127 ईस्वी) ने पटोल्मी सिद्धान्त की व्याख्या कर के पृथ्वी को स्थिर और ग्रहों को पृथ्वी की परिक्रमा करते उल्लेखित किया। पाश्चात्य जगत में पटोल्मी सिद्धान्त का यही भ्रमात्मिक सिद्धानत 16 वी शताब्दी तक मान्य रहा। इस भ्रम का निकोलस कोपरनिकस ने खण्डन किया था और कहा कि सौर मण्डल का केन्द्र पृथ्वी नहीं, अपितु सूर्य है जो केन्द्र में स्थिर है। वास्तव में तो यह सिद्धान्त भी प्राचीन भारतीय उल्लेखों के सामने अधूरा ही था क्यों कि भारतीय अपने सूर्य को भी अस्थिर घोषित कर चुके थे और कोटि कोटि ब्रह्माण्डों की घोषणा भी कर चुके थे।
*. ईसा के 200 वर्ष पश्चात पलोटिनस नें अपनी रचना इनीडस में जगत को ऐक ही स्त्रोत्र से व्यक्त हो रही श्रंखलाओं की कडी बताया। उस का कथन हिन्दू मतानुसार यय़ार्थ के अधिक निकट था।
सिकंद्रिया का विनाश
47 ईस्वी में जुलियस सीजर तथा पोम्पीमहान के बीच युद्ध हुआ जिस के फलस्वरूप सिकन्द्रीया पुस्तकालय जल गया। ज्ञान के क्षेत्र में यह मानवताके लिये बहुत बडी दुर्घटना थी क्यों कि इस विनाश में 40,000 से अधिक ग्रन्थ अग्नि में क्षति ग्रस्त हो गये थे।
दूसरी शताब्दी में रोम ऐक महाशक्ति के रूप में उजागर हुआ। नये नये ईसाई रंग में डूबे रोम-वासियों ने यूनानी सभ्यता के सभी चिन्हों और उन की अर्जित अथवा संकलित की हुई ज्ञान सम्पदा का विनाश कर दिया। रोम वासियों ने अपने राज्य का विस्तार उत्तरी अफरीका, ऐशिया माईनर तथा दक्षिणी योरूप तक फैला दिया जिस के फलस्वरूप ज्ञान विज्ञान के सभी अंश जो चर्च की सम्मति से मेल नहीं खाते थे नष्ट कर दिये गये। यूनानी नगर ध्वस्त कर दिये गये, ज्ञान अर्जन – सर्जन रुक गये तथा बुद्धिजीवी मार डाले गये। कुछ थोडे यूनानी बुद्धिजीवी जान बचा कर योरुप के अन्यभागों में छिप सकने में सफल हो गये थे। वह कुछ ग्रंथों को अपने साथ ले जापाये थे और चोरी छिपे बिजेन्टिन काल तक गुप्त ढंग से शोध कार्य करते रहै।
529 ईस्वी में जसटिन लेन ले ऐथेंस (यूनान) में अफलातून (प्लेटो) की अकादमी के बचे खुचे अवशेष भी नष्ट कर दिये और यूनानी ज्ञान भण्डार योरुप से पूर्णत्या मिट गये। ईसाईयो ने पेगनिज्म फैलाने का आरोप लगा कर बुद्धिजीवियों को मार डाला और उन के ग्रन्थ नष्ट कर दिये। इस प्रकार आज ज्ञान विज्ञान का ढिंढोरा पीटने वाले ईसाईयों ने ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अपना विनाशात्मिक योगदान दिया जो इतिहास के पृष्टों परसुरक्षित है।
जो यूनानी बुद्धिजीवी संयोगवश बच सके थे उन्हों ने ईरान में शरण ली तथावनवास में ही उन्हों ने अपनी अकादमी स्थापित कर के निजि ज्ञान यात्रा जारी रखी।
योरुपीय जागृति
आधुनिक विज्ञान का पुनर्जन्म योरुप में 14-15 वीं शताब्दी में हुआ जिसे उन के अपने इतिहास में पुनर्जागृति (रिनेसाँ) कहा जाता है। प्राचीन ग्रंथ फिर से खोज निकाले गये जिन में से युक्लिड की ज्योमैट्री, पटोल्मी की जियोग्राफी तथा गालेन की मेडिसन मुख्य थीं। यह वह समय था जब भारत में तुगलक तथा लोधी वंशजकों का राज्य था और उत्तर – पश्चिम दिशा से मुगलों के आक्रमण भी हो रहे थे। राजनैतिक उथल पथल तथा राजकीय संरक्षण के अभाव के कारण भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान भी लुप्त अवस्था में पहुँच चुका था।
यह वह काल था जब पूर्व में सूर्यास्त हो कर पश्चिम दिशा से उदय हो रहा था। भारत में मुसलिम शासकों ने अन्धकार युग फैला दिया था। हिन्दू ज्ञान विज्ञान ग्रन्थों के ढेर कुफर के नामसे जलाये जा रहे थे तथा हिन्दू बुद्धजीवियों का कत्ले आम साधारण दिनचर्या की बात बन चुकी थी। सभी वर्गों से सर्वाधिक शोषण ब्राह्मणोंका हो रहा था।
सौभाग्य से उस समय कुछ ग्रन्थ विनाश से बचा लिये गये थे। कुछ भारत से बाहरले जाये जा चुके थे और वहाँ भी बचा लिये गये थे। उन्हीं ग्रन्थों से आधुनिक विज्ञान के अंकुर ने योरुप में पुनर्जन्म लिया और उस को रिनेसाँका नाम दिया गया। जैसे जैसे योरुपीय उपनेषवाद फैला तो योरुपीय संयोजकों ने उसी ज्ञान को अपना व्याख्यात कर के उन पर नये स्रजनकर्ताओं के नाम लिख दिये। भारतीय विद्या भण्डारों का हस्तान्तिकरण हो गया

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