शनिवार, 13 अगस्त 2011

ब्राह्मण होने का तात्पर्य


ब्राह्मण एक ऐसे निर्धन व्यक्ति की संज्ञा है, जिसे मुद्रा पर नहीं, अपितु विद्या पर आस्था है । यही उसका सर्वोत्तम आदर्श है । ब्राह्मïण के लिए तो भिक्षा ही धन है । आदिकाल से ब्राह्मïण भिक्षा पर जीने का विश्वासी रहा है । जगन्नाथ महाप्रभु ने अपने ब्राह्मïण भक्त की श्रद्धा पर रीझते हुए जो संस्कार दिया । उसका सार है - ब्राह्मण मुझे मो आहार । लक्ष्मी को ब्राह्मïण के घर आनंदानुभूति कहां होती है ।

ब्राह्मण निर्धन हुआ तो क्या हुआ, एक वही है जो पवित्र पैतृकता में जन्म लेता है, पवित्र आचरण करता है,यश कमाता है और लोगों को पाठ पढ़ाकर उन्हें पूर्णता की ओर उन्मुख करता है । वह सनातन परंपरा का संपोषक रहा है। सोलह संस्कारों का साक्षी एवं संचालक । ब्राह्मïण होने का मतलब सूर्य बनना है, जिसके उदय होते ही रात की कलुषताओं का रंग विलीन हो जाता है । ब्राह्मïण होने का अर्थ सामाजिक परिसरों का शुद्धीकरण है, जहां न प्रतिशोध के लिए जगह है और न ही दमन के लिए, ब्राह्मïण का आशय है विशाल समुद्र है जो कभी नहीं घटता है । सदा से ही ब्राह्मïण का धर्म और कर्म कुव्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष को दिशा देना रहा है । तभी तो ज्ञान, चेतना, विद्या, वाणी तथा अभिव्यक्ति का पवित्रतम् उत्तरदायित्व उसके नाम है ।

राजा को ही भुसूर नहीं कहा जाता, ब्राह्मïण ही भुसूर कहलाते हैं । ब्राह्मïण बिना राजा के रह सकता है, किन्तु एक राजा ब्राह्मïण के बिना कदापि नहीं । ब्राह्मïण सर्वथा, सर्वदा शांति का पुजारी रहा है । वह समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों की प्रसन्नता के लिये गीत गाता रहा है । जो समय आने पर आयुध भी धारण कर लेता है । वह चाणक्य बनकर नंदवंश की यातना सेप्रजा को मुक्ति दिलाने में भी पीछे नहीं हटता । वह ब्राह्मïण ही है, जो कभी द्रोणाचार्य बनकर कौरव वंश को समूल नष्टï करने का गुरू मंत्र पांच पांडवों को देता है । कभी वह अश्वत्थामा बनकर युद्ध की रणभेरी बजाता है, तो कभी वह परशुराम बनकर विध्नकारी शक्तियों को नामोनिशान मिटा देता है ।

ब्राह्मण पंडित है और पांडित्य उसकी पहचान । वह अग्रजन्मा है, इसलिए वह सभी भाईयों का मार्गदर्शक भी है । वह द्विज है, इसलिए उसे दुनिया के अनुभवों का दोहरा लाभ प्राप्त होता है । ब्राह्मïण सर्वश्रेष्ठï विद्यार्थी है और सर्वश्रेष्ठï प्राध्यापक भी । हमारी खुबिया हमारी पहचान है । हमारे युवा आज के इंटरनेट मोबाईल युग कर लो दुनिया मुी में के विपरीत दुनिया के मुी में समाते जा रहे हैं । एक ब्राह्मïण चाणक्य एवं एक परशुराम बनकर सम्पूर्ण समाज का उद्धार किया करता था, पर आज हम भीड़ में गुम होते जा रहे हैं ।

हमारी खामियां हमें समाज में पीछे धकेल रही है, अभी मैं एक सामाजिक संगठन की बैठक में भाग लेने गया था वहां भी खूब चिंतन हुआ, कहा गया कि आज आईएएस में 5 प्रतिशत भी ब्राह्मïण नहीं रहे । मेरिट लिस्टों से हमारे नाम विलुप्त हो रहे हैं यह क्या हो रहे हैं हमें ? हम कहां जा रहे हैं ? क्या आरक्षण हमें खा रहा है ? क्या हमारी योग्यता कम हो गयी है ? क्या हमारी बुद्धि की धार थोथी हो गयी है ? क्या हमें राजनीति निगल रही है ? बड़ों को चिंता और चिंतन करना है । उनके भाषण को राशन समझ हमें भरपेट खाना होगा । इन समस्यों से हमें स्वयं दो -चार होना होगा । हमें ही गोस्वामी बनना होगा, तभी हमारा उद्धार होगा ।

कुछ युवाओं को तो अपने अमूल्य क्षण देने ही होंगे । भारत को विश्व गुरू बनाने और समग्र विकास की कल्पना केवल हम ही कर सकते हैं । हमें ही लोभ, मोह, माया, ईष्र्या नहीं है । हम हैं यज्ञ, तप और साधना की उत्पत्ति । हमें समाज की कमान अपने हाथों में लेनी होगी तभी
सही दिशा में नेतृत्व चल पायेगा ।

vivek mishra