शनिवार, 21 जुलाई 2012

धन्वन्तरी अवतार और मोहिनी अवतार

बारहवीं बार धन्वन्तरी के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेहरवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया धन्वंतरी को पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है। इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से। फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।

भगवान के सामने दीपक क्यों प्रज्वालित किया जाता है ?

हर हिंदू के घर में भगवान के सामने दीपक प्रज्वालित किया जाता है. हर घर में आपको सुबह, या शाम को या फिर दोनों समय दीपक प्रज्वालित किया जाता है. कई जगह तो अविरल या अखंड ज्योत भी की जाती है. किसी भी पूजा में दीपक पूजा शुरू होने के पूर्ण होने तक दीपक को प्रज्वालित कर के रखते है. प्रकाश ज्ञान का घोतक है और अँधेरा अज्ञान का. प्रभु ज्ञान के सागर और सोत्र है इसलिए दीपक प्रज्वालित कर प्रभु की अराधना की जाती है. ज्ञान अज्ञान का नाश करता है और उजाला अंधेरे का. ज्ञान वो आंतरिक उजाला है जिससे बाहरी अंधेरे पर विजय प्राप्त की जा सकती है. अत दीपक प्रज्वालित कर हम ज्ञान के उस सागर के सामने नतमस्तक होते है. कुछ तार्किक लोग प्रश्न कर सकते है कि प्रकाश तो बिजली से भी हो सकता है फिर दीपक की क्या आवश्यकता ? तो भाई ऐसा है की दीपक का एक महत्त्व ये भी है कि दीपक के अन्दर जो घी या तेल जो होता है वो हमारी वासनाएं, हमारे अंहकार का प्रतीक है और दीपक की लौ के द्वारा हम अपने वासनाओं और अंहकार को जला कर ज्ञान का प्रकाश फैलाते है. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि दीपक की लौ हमेशा ऊपर की तरफ़ उठती है जो ये दर्शाती है कि हमें अपने जीवन को ज्ञान के द्वारा को उच्च आदर्शो की और बढ़ाना चाहिए. अंत में आइये दीप देव को नमस्कार करे : शुभम करोति कलयाणम् आरोग्यम् धन सम्पदा, शत्रुबुध्दि विनाशाय दीपज्योति नमस्तुते ।। सुन्दर और कल्याणकारी, आरोग्य और संपदा को देने वाले हे दीप, शत्रु की बुद्धि के विनाश के लिए हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

शंख क्यों बजाया जाता है ?

शंख बजाने से ॐ की मूल ध्वनि का उच्चारण होता है. भगवान ने श्रष्टि के निर्माण के बाद सबसे पहले ॐ शब्द का ब्रहानाद किया था. भगवान श्री कृष्ण के भी महाभारत में पाञ्चजन्य शंख बजाय था इसलिए शंख को अच्छाई पर बुरे की विजय का प्रतीक भी माना जाता है. ये मानव जीवन के चार पुरुषार्थ में से एक धर्म का प्रतीक है. शंख बजाने का एक कारण ये भी है की शंख की ध्वनि से जो आवाज़ निकलती है वो नकारात्मक उर्जा का हनन कर देती है. आस पास का छोटा मोटा शोर जो भक्तो के मन और मस्तिष्क को भटका रहा होता है वो शंख की ध्वनि से दब जाता है और फिर निर्मल मन प्रभु के ध्यान में लग जाता है. प्राचीन भारत गाँव में रहता था जहाँ मुख्यत एक बड़ा मन्दिर होता था. आरती के समय शंख की ध्वनि पुरे गाँव में सुने दे जाती थी और लोगो को ये संदेश मिल जाता था कि कुछ समय के लिए अपना काम छोड़ कर प्रभु का ध्यान कर ले

क्यों नहीं है, भगवान जगन्नाथ के हाथ-पैर ?

अपने ही वरदान से हाथ-पांव गंवा बैठे भगवान जगन्नाथ ! भगवान जगन्नाथ तीनों लोकों के स्वामी हैं, इनकी भक्ति से लोगों की मनोकामना पूरी होती है ! लेकिन खुद इनके हाथ-पांव नहीं हैं !! जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ जी के साथ बलदेव और बहन सुभद्रा की भी प्रतिमाएं है ! जगन्नाथ जी की तरह इनके भी हाथ-पांव नहीं हैं ! तीनों प्रतिमाओं का समान रूप से हाथ-पांव नहीं होना अपने आप में एक अद्भुत घटना का प्रमाण है !! जगन्नाथ जी के अद्भुत रूप के विषय में यह कथा है कि मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में कहा, "समुद्र तट पर जाओ वहां तुम्हें एक लकड़ी का लट्ठा मिलेगा उससे मेरी प्रतिमा बनाकर स्थापित करो ! राजा ने ऐसा ही किया और उनको वहां पर लकड़ी का एक लट्ठा मिला !! इसी बीच देव शिल्पी विश्वकर्मा एक बुजुर्ग मूर्तिकार के रूप में राजा के सामने आये और एक महीने में मूर्ति बनाने का समय मांगा ! विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि जब तक वह खुद आकर राजा को मूर्तियां नहीं सौप दे तब तक वह एक कमरे में रहेगा और वहां कोई नहीं आएगा !! राजा ने शर्त मान ली, लेकिन एक महीना पूरा होने से कुछ दिनों पहले मूर्तिकार के कमरे से आवाजें आनी बंद हो गयी ! तब राजा को चिंता होने लगी कि बुजुर्ग मूर्तिकार को कुछ हो तो नहीं गया ! इसी आशंका के कारण उसने मूर्तिकार के कमरे का दरवाजा खुलावाकर देखा ! कमरे में कोई नहीं था, सिवाय अर्धनिर्मित मूर्तियों के, जिनके हाथ पांव नहीं थे !! राजा अपनी भूल पर पछताने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि यह सब भगवान की इच्छा से हुआ है ! इन्हीं मूर्तियों को ले जाकर मंदिर में स्थापित करो ! राजा ने ऐसा ही किया और तब से जगन्नाथ जी इसी रूप में पूजे जाने लगे !! विश्वकर्मा चाहते तो एक मूर्ति पूरी होने के बाद दूसरी मूर्ति का निर्माण करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और सभी मूर्तियों को अधूरा बनाकर छोड़ दिया ! इसके पीछे भी एक कथा है, बताते हैं कि एक बार देवकी रूक्मणी और कृष्ण की अन्य रानियों को राधा और कृष्ण की कथा सुना रही थी !! उस समय छिपकर यह कथा सुन रहे कृष्ण, बलराम और सुभद्रा इतने विभोर हो गये कि मूर्तिवत वहीं पर खड़े रह गए ! वहां से गुजर रहे नारद को उनका अनोखा रूप दिखा ! उन्हें ऐसा लगा जैसे इन तीनों के हाथ-पांव ही न हों !! बाद में नारद ने श्री कृष्ण से कहा कि आपका जो रूप अभी मैंने देखा है, मैं चाहता हूं कि वह भक्तों को भी दिखे ! कृष्ण ने नारद को वरदान दिया कि वे इस रूप में भी पूजे जाएंगे ! इसी कारण जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के हाथ-पांव नहीं हैं !! !! नमों नारायणाय !!