रविवार, 4 नवंबर 2012

वैदिक सन्ध्या


दिन और रात्रि के, रात्रि और दिन के तथा पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में एकाग्रचित्त होकर जो उपासना की जाती है, उसे संध्या कहते हैं। अथवा उपर्युक्त संधिकाल में विहित उपासना में किए जानेवाले कार्यकलाप को भी संध्या कहते हैं। इस प्रकार सायंकाल, प्रात:काल और मध्यान्हकाल में यह उपासना की जाती है। इन्हीं नामों से तीन संध्याएँ प्रचलित हैं। सूर्यास्त के समय से नक्षत्रोदय पर्वत सायंकाल की संध्या का, अरुणोदय से सूर्योदय पर्यंत प्रात:काल की संध्या का और पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में मध्याह्लकाल को संध्या का समय प्रशस्त है। विधि यह उपासना प्रति दिन करनी चाहिए। द्विजमात्र(ब्रा० क्ष० वैश्य) को इस उपासना का अधिकार है। इस अनुष्ठान से अनजाने में भी किए गए पाप का लोप होता है। उपर्युक्त किसी तरह का पाप यदि दिन में विहित हो तो सायंकाल की संध्या से दूर होता है। प्रत्येक वेद की संध्या का विधान विभिन्न गृह्यसूत्रों द्वारा प्रतिपादित है। इस अनुष्ठान के द्वारा दिव्यज्योति, सूर्य या ब्रह्म की उपासना की जाती है। इसका प्रारंभ करने से पूर्व उषाकाल में निद्रा का विसर्जन कर उठ बैठना चाहिए। सर्वप्रथम अपने इष्टदेव का स्मरण ओर वंदन करना चाहिए। अनंतर दैनिक दैहिक कृत्य से निवृत्त होकर संविधि स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करे। पवित्र आसन पर बैठकर तिलक लगावे और शिखाबंधन करे। सायंकाल की संध्या पश्चिम दिशा की ओर और प्रात:काल, मध्यान्हकाल की संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। जिस दिन यज्ञोपवीत होता है उसी दिन से इसका अनुष्ठान प्रारंभ होता है। यह उपासना प्रति दिन और यावज्जीवन अनुष्ठेय है। संध्या के अंग इस संध्या की उपासना के प्रकरण में इसके आठ अंग महत्वपूर्ण बतलाए गए हैं। उनके नाम तथा क्रम इस प्रकार हैं - प्राणायाम, मंत्र आचमन, मार्जन, अघमर्षण, सूर्यार्घ, सूर्योपस्थान, गायत्रीजप और विसर्जन। प्राणायाम एक प्रकार का श्वास का व्यायाम है। इसके तीन अंग बतलाए हैं - पूरक, कुंभक और रेचक। पूरक करते समय दाहिने हाथ की दो अँगुलियों से नाक के बाँए छिद्र का बंद करके दाहिने छिद्र से धीरे-धीरे श्वास खींचना चाहिए। गायत्री मंत्र का जप करते रहना चाहिए। साथ ही अपने नाभिप्रदेश में ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए। कुंभक करने के समय दाहिने हाथ की दो अँगुलियों से नाक के बाएँ छिद्र को और हाथ के अँगूठे से नाक के दाहिने छिदे का बंद करके पूरक द्वारा भरे हुए श्वास को अपने शरीर में रोकना चाहिए। साथ-साथ अपने हृदयप्रदेश में विष्णु का ध्यान करना चाहिए। रेचक करने में दाहिने हाथ के अँगूठे से नाक के दाहिने छिद को बंद करके बाएँ छिद्र से रोके हुए श्वास को धीरे-धीरे अपने शरीर में से बाहर निकालना चाहिए। इन तीनों ही क्रियाओं को करते हुए एक बार, कुंभक करते हुए चार बार और रेचक करते हुए दो बार मंत्र का आवर्तन करना चाहिए। इस प्रकार किया हुआ कृत्य प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम करने से शरीर के भीतरी अंगों की शुद्धि तथा पुष्टि होती है। बुद्धि निर्मल होकर शांति मिलती है। इसको करनेवाले सभी प्रकार के रोगों से मुक्त रहते हैं। प्राचीन काल में ऋषि लोग इसी प्राणायाम के सेवन से अनेकविध अलौकिक कार्यो को करने में समर्थ होते थे। आचमन - दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर मंत्र का पाठ करके हथेली का जल पीना मंत्र आचमन है। इस मंत्र का तात्पर्य यह है कि मैंने मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और जननेंद्रिय के द्वारा जो कुछ पाप किया हो वह सकल पाप नष्ट हो। जल में गंदगी दूर करने की स्वाभाविक शक्ति है। इसमें सकल प्रकार की औषधियों का जीवन निहित है। अन्न के लिए यही प्राण है। इससे विद्युत् की उत्पत्ति देखी जाती है। दुर्भावना, दुर्वासना एवं हर प्रकार के पाप को यह दूर करता है। इसी उद्देश्य से यहाँ पर मंत्र विहित हैं। मार्जन - जिस क्रिया में वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए शारीरिक अंगों पर जल छिड़का जाता है उसे मार्जन कहते हैं। मार्जन करने से शारीरिक अंगों की शुद्धि होती है। अघमर्षण - इसके द्वारा मानव शरीर में विद्यमान दूषित वासनारूपी पापपुरुष को शरीर से पृथक् करना है। इसका विधान इस प्रकार है - दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए जलपूर्ण दाहिने हाथ को नाक के निकट ले जाना चाहिए। इसके साथ ही यह ध्यान करना चाहिए कि नाक के दक्षिण छिद्र से निकलकर पापपुरुष ने हथेली के जल में प्रवेश किया। इसके अनंतर हाथ का जल अपनी बाईं ओर भूमि पर फेंक देना चाहिए। इस क्रिया का लक्ष्य अपने शरीर से पापपुरुष को बाहर निकालकर मन को पवित्र करना और अपने को उपासना करने के योग्य बनाना है। इस विधान का विस्तार "भूत शुद्धि" प्रकरण में देखना चाहिए। सूर्यार्ध - इस क्रिया के द्वारा अंजलि में जल लेकर गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए खड़े होकर सूर्य को अर्ध दिया जाता है। यह अर्ध तीन बार देना आवश्यक है। यदि संध्या की उपासना का समय बीत चुका हो और यह उपासना विलंब से की जा रही हो तो प्रायश्चित्त के रूप में एक अर्ध अधिक देना चाहिए। किसी विशिष्ट व्यक्ति के आगमन के उपलक्ष में अर्ध देने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आती है। इसका मूल यही सूर्यार्ध है। "सूर्योपस्थान" - इस क्रिया में वैदिक मंत्रों का पाठ करते हुए खड़े होकर सूर्य का उपस्थान किया जाता है। प्रात:काल की सूर्य की किरणें मानव शरीर में प्रविष्ट होकर मानव को स्फूर्ति तथा आरोग्य प्रदान करती हैं। इन किरणों में अनेक रोग दूर करने की शक्ति विद्यमान है। विशेषकर हृदयरोग के लिए ये अत्यंत लाभ करनेवाली सिद्ध हुई हैं। इस समय विद्यमान सूर्यकिंरणचिकित्सा का यही मूल स्रोत है। गायत्रीजप - किसी मंत्र के निरंतर अवर्तन को जप कहते हैं। कायिक, वाचिक और मानसिक भेदों से जप तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें मानसिक जप उत्तम कहा है। जप करते हुए मन को एकाग्र और शरीर को निश्चत्त रखना आवश्यक है। जप करते समय मंत्र के देवता का ध्यान करते रहने से देवता के साथ उपासक की तन्मयता हो जाती है। जप के अनंतर सूर्य देवता को जप का समर्पण करना चाहिए। अंत में अपनी उपासना के निमित्त आवाहित देवता का विसर्जन करना चाहिए। इस प्रकार की हुई उपासना को सर्वव्यापी ब्रह्म को अर्पित कर देना चाहिए। इस विधान के अनुसार निरंतर उपासना करते रहने से मानव अपने शरीर में उत्पन्न होनेवाले समस्त रोगों से दूर रहता है, समस्त सुख प्राप्त करता है और अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करता है।