शनिवार, 11 अगस्त 2012

योगिराज श्रीकृष्ण का अवतरण


 पृथ्वी पर सभ्यता और संस्कृति के आविर्भाव तथा विकास की दृष्टि से भारतीय और यूनानी संस्कृति और सभ्यता प्राचीनतम है। भारत और ग्रीक दोनों स्थलों की सृष्टि की उत्पत्ति और विकास अलग-अलग रूप से चित्रित किए गए हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में सृष्टि का विकास और ब्रह्म के अवतारवाद की विचारधारा ईश्वरवादी दृष्टिकोण से की गई है। इसी दृष्टिकोण में हमारे विश्वास में धार्मिक और वैज्ञानिक-दोनों आधारों का समावेश देखा जा सकता है।
युगों-युगों से चली आ रही मान्यता ऐसी है कि सृष्टि के आदि में आदिरूप भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। इस आदिपुरुष में दस इंद्रियां, एक मन और पाँच भूत और सोलह कलाएँ थीं।

उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। इस प्रकार जो अजन्मा है, जो भगवान आदि रूप हैं—उनसे ही भगवान का वह विराट् रूप उत्पन्न हुआ। उस महारूप के अंग-प्रत्यंग में...
ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है। वही है भगवान् की विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप।
जो योगी हैं उन्हें भगवान के इसी रूप का दर्शन मिलता है, जिसे वे अपनी साधना द्वारा उपलब्ध करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यंत विलक्षण—उसमें हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएं हैं। वस्तुतः वे सृष्टि में निहित अनेक रूपों, शक्तियों एवं क्रियाओं आदि का प्रतीक हैं।

भगवान का वह आदिरूप पुरुष है, वह महापुरुष, वह विराट पुरुष है जिसे नारायण कहते हैं, जो अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इसी रूप के छोटे-से-छोटे अंश से पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनियों की सृष्टि होती है अर्थात यह उर्जा का वह महाकोष है जिसके ऊर्जांश असंख्य रूपों में गति भर सकते हैं।
हमारी चिंतन परंपरा के अनुसार भगवान कृष्ण का अवतार भगवान विष्णु का आठवां, अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवतार है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें