शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

धर्म-पुस्तकें टूरिस्ट-गाईड की तरह हैं, जो केवल उस राह का इशारा देती हैं | संत नाम के जहाज को भरकर जीवों को ले जानी वाली हस्तियाँ हैं, जिनके पास से पासपोर्ट या टिकट लेकर (दीक्षित होकर) उनके नाम या शब्द रूपी जहाज पर सवार होकर, जिसके वे स्वयं कप्तान हैं, मालिक के देश पहुंचा जा सकता है |

धर्म-पुस्तकों का विचार निसंदेह अच्छा है, पर ले जानी वाली शक्ति केवल गुरु और शब्द या राम-नाम ही है | जब तक वे न मिलें, मालिक के धुर-धाम पहुँचना असम्भव है | यदि हम सिर्फ रास्ता ही पूछते ही रहे और मंजिल की तरफ एक कदम भी न रखें तो केवल विचारों के ख्याली पुलाव या तर्क-वितर्क से कैसे उस परवरदिगार के देश में पहुँच सकते हैं ? भाई गुरदास जी फरमाते हैं:

पूछत पथिक तिहं मारग न धारै पग, प्रीतम कै देस कैसे बातन से जाईये || (कवित्त-सवैये ४३९)
...
उस मार्ग पर ग्रन्थ-पोथीयाँ पढ़कर अपने आप जाने की कोशिश करना गुमराही का कारण बनता है, जिसके लिए इनसान को पछताना पड़ता है | यदि गुरु का संग प्राप्त हो जाये तो जीव मालिक के देश में आसानी से पहुँच जाता है | गुरु अर्जुन साहिब पूछते हैं की अगर मालिक से मिलना हमारे वश में है तो अभी तक हम बिछुड़े न रहते:

आपण लीआ जे मिलै बिछुड़ी किउ रोवंनी ||
साधू सांगू परापते नानक रंग माणनि || (आदि ग्रन्थ, प्र. १३४)

जिस चीज़ को हमें ढूँढना हो वह हो तो कहीं परन्तु हम उसकी तलाश किसी और जगह करें तो वह कैसे मिल सकती है ? जब हम भेदी को साथ ले लें तो हम उस वास्तु को अवश्य पा लेते हैं, करोडो जन्मों का रास्ता पल भर में पूरा हो जाता है | कबीर साहिब फ़रमाते हैं:

वस्तु कहीँ ढूँढें कहीँ, केही विधि आवै हाथ |
कहैं कबीर तब पाइए, जब भेदी लीजे साथ ||
भेदी लीन्हा साथ कर, दीन्ही वास्तु लखाय |
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाये || (कबीर साखी संग्रह, प्र. ५)

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