शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

भक्ति क्या है

विष्णु पुराण-में भक्ति की सर्वोत्तम परिभाषा दी गयी है
“ या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरत: सा मे हृदयान्मापसमर्पतु ॥"
‘‘हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे ।’’
सरल शब्दों में अपनी कमजोरियों को जानकर, मानकर व स्वीकार कर भगवान की शरण में जाना गहरे सुख व शांति देते हैं। ऐसी ही शरणागति के छ: उपाय शास्त्रों में बताए गए हैं-
प्रपत्तिरानुकूलस्य संकल्पोप्रतिकूलता।।
विश्वासो वरणं न्यास: कार्पण्यमिति षड्विधा।।
सार है कि छ: बातें स्मरण रख भगवान की शरण में जाएं -
- भगवान की भक्ति का संकल्प यानी उनके ही मुताबिक होने का मजबूत इरादा रखें। सद्गुणों, अच्छे विचार-व्यवहार को अपनाएं।
- भगवान के विपरीत न हों यानी अहंकार और अन्य सभी बुराईयों से दूर रहें।
- भगवान में गहरा विश्वास रखें।
- यह मानकर चलना कि भगवान हमारी रक्षा करेंगे।
- आप तन, मन या धन से कितने ही सबल हो, किंतु भगवान की भक्ति में दीनता का भाव रखें।
- भगवान के प्रति समर्पण का भाव।

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