गुरुवार, 19 जुलाई 2012

कैसे हुई स्थूल जगत की रचना

 जल तत्त्व
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चेतन, आकाश, वायु तथा तेज द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न एक द्रव विशेष ही जल है। दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग आक्सीजन के मेल से उत्पन्न द्रव पदार्थ जल(H २O ) है।
... गुण – शुक्र, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार ये पाँच जल तत्त्व के गुण हैं। शरीर संचालन हेतु वायु के समान ही रक्त की भी आवश्यकता होती है और रक्त जल के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। यही कारण है कि संचालन में जलतत्त्व की भी एक विशेष भूमिका होती है।
रस - जल तथा जल से युक्त वस्तु की यथार्थतः पहचान करने वाले विषय को रस कहते हैं।
यह बात भी सत्य है कि आकाश, वायु, तथा तेज इन तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के मेल से उत्पन्न चौथा पदार्थ जल (H २O ) है। इसी कारण यह भी सत्य है कि तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के गुण व विषय भी जल पदार्थ में समाहित हों अर्थात् जल की जानकारी शब्द, स्पर्श, रूप आदि के माध्यम से भी इनकी अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा हो सकती है परन्तु स्पष्टतः पहचान रस से ही होगी क्योंकि रस जल मात्र का ही अपना विशेष विषय है।
अतः “जलतत्त्व की यथार्थतः पहचान कराने वाला विषय मात्र ही रस है।”
रसना (जीभ)- जल तथा जल से युक्त पदार्थ की यथार्थ जानकारी तथा पहचान कराने वाले रस को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही रसना है। चूंकि जल में आकाश, वायु तथा तेज तत्त्व भी समाहित रहता है क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इन उपर्युक्त तीनों पदार्थों के गुण व विषय का होना स्वाभाविक ही है। इसलिए जल को हम शब्द, स्पर्श रूप के माध्यम से कर्ण, त्वचा, चक्षु के द्वारा भी जान सकते। अतः रस व रसना ही जल का अपना विषय व ज्ञानेन्द्रिय है जिसके माध्यम से ही जल की यथार्थता की जानकारी व पहचान होती है अन्य से नहीं।
लिंग- यह वह इन्द्रिय है जो जल के माध्यम से शरीर की गंदगी को साफ करते हुये गंदगी से युक्त जल (शुक्र, मूत्र आदि) को बाहर कर देती है। इसीलिए इसे कर्मेन्द्रिय कहते हैं। यह (लिंग) जल तथा जल से युक्त पदार्थों के त्याग के द्वारा अपने प्रधान ज्ञानेन्द्रिय रसना को जल की शुद्धता-अशुद्धता के ज्ञान तथा ग्रहण करने में सहयोग प्रदान करता है। चूंकि लिंग का अभीष्ट देवता प्रजापति होता है, इसलिए यह शुक्र के त्याग द्वारा प्रजाओं की उत्पत्ति में भी एक मात्र सहयोगी का कार्य करता है जो सामान्य स्थिति में इसके बिना असम्भव होता है।
 

पृथ्वी तत्त्व
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“चेतन, आकाश, वायु, तेज, जल द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न ठोस पदार्थ ही पृथ्वी तत्त्व है।”
... पृथ्वी वह पदार्थ है जो उपर्युक्त चारों पदार्थों तथा उन चारों की संयुक्त क्रियाशीलता से उत्पन्न पाँचवाँ पदार्थ जो ठोस रूप में ही हो, साथ ही जिसमें सभी विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गन्ध से युक्त हो तथा जिसकी जानकारी में भी समस्त इंद्रियाँ सहयोगी हों, वही पदार्थ पृथ्वी तत्त्व है।

गुण- शरीर में अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी और रोम ये पाँच गुण पृथ्वी तत्त्व के हैं।

गन्ध- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित विषयों की यथार्थ जानकारी एवं पहचान कराने वाला विषय ही गन्ध है। हालांकि जानकारी के सभी विषय- शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस भी गन्ध में समाहित होते हैं फिर भी गन्ध के बिना पृथ्वी तत्त्व की जानकारी व पहचान पूर्ण नहीं मानी जा सकती क्योंकि इसका अपना विशेष विषय गन्ध ही है। इसलिए जब तक गन्ध की स्वीकारोक्ति नहीं होती, तब तक पृथ्वी तत्त्व को उसकी मान्यता नहीं मिल सकती।

नाक- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित वस्तुओं की जानकारी और पहचान कराने वाले विषय (गन्ध) को पकड़ने वाली (जानकारी कराने वाली) इन्द्रिय ही नाक है। यह इन्द्रिय मात्र जानकारी करने-कराने का ही कार्य करती है। इसीलिए इसे ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम एवं पाँचवाँ स्थान है।
नाक गन्ध लेने के अतिरिक्त एक ऐसा कार्य भी करती है जो शरीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है, वह कार्य है स्वास लेना व छोड़ना। स्वास-प्रस्वास वह क्रिया है जिसके माध्यम से शक्ति (प्राण-शक्ति) शरीर में प्रवेश करती व बाहर आती-जाती रहती है। जिससे समस्त प्राणियों का जीवन कायम रहता है, यह स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया नाक से ही होती रहती है जिसको योगी, ऋषि-महर्षि आदि साधना के माध्यम से स्वांस-प्रस्वांस से प्रवेश व निकास वाली शक्ति को अनुभव के द्वारा पकड़ते हैं, जो अजपा-जप या अजपा गायत्री रूप हँसो, सोsहं है तथा वैज्ञानिकगण उसी प्राण वायु को मात्र बाह्य जानकारी के आधार पर आक्सीजन (O २) और कार्बन डाई आक्साइड (C O २) बताते हैं। परन्तु दोनों आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ही एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं की जीवनी-शक्ति (जीवन) हेतु शरीर में स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्रिया है जो नाक द्वारा होती है।
अतः समस्त ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम व पाँचवाँ स्थान होने के बावजूद भी अपना एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। जिसके कारण महत्व एवं श्रेणी में रखने पर नाक समस्त ज्ञानेन्द्रियों में अन्तिम होने के बावजूद भी प्रथम स्थान पर है। इसे प्रथम कहा जाय या अन्तिम अथवा अन्तिम कहा जाय या प्रथम दोनों ही उपयुक्त हैं।

गुदा- गुदा वह कर्मेन्द्रिय है जिसका पृथ्वी तथा पृथ्वी तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं से सार रहित तथा विकार से युक्त पदार्थ (मल) को शरीर से बाहर करना होता है जिससे कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु सार युक्त पदार्थ पुनः पहुँचकर अपना कार्य करता रहे।
क्रमशः .......
---------संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
 

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