गुरुवार, 19 जुलाई 2012

पतंजलि द्वारा निरूपित ईश्वर

महर्षि ने पहले यह बताया था कि भजन बैराग और अभ्यास, बिना उकताए हुए चित्त से, सांगोपांग निरंतर करने प्रर दृढ स्थिति वाला होता है | इससे चित्त वृत्तियाँ शांत और निरुद्ध हो जाती हैं, किन्तु यह नहीं बताया कि अभ्यास में चित्त को ठहराएं कहाँ ? आरम्भ कहाँ से करें ? क्या मूर्ती पूजा ( दुर्गा, हनुमान या शिव लिंग कि पूजा) या हवन करें ? नहीं | कहा कि

ईश्वर प्रानि...धानाद्वा ||योग दर्शन - १ / २३ ||

ईश्वर के प्रति समर्पण से समाधि शीघ्र ही सिद्ध होती है | किन्तु ईश्वर को तो हमने देखा नहीं | ईश्वर का स्वरूप क्या है ? इस पर कहते हैं कि ----

क्लेशाकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:|| योग दर्शन १ / २४ ||

क्लेश, कर्म, विपाक और आशय - इन चारों से जो सम्बन्धित नहीं है, "अप्राराम्रिष्ट:" - पूर्णत: निर्लेप है, परे है, जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह पुरुष विशेष ईश्वर है | यही ईश्वर कि परिभाषा है | संसार क्लेश, कर्म, कर्मों के संग्रह और आशय से बंधा है, इन सबसे अत्यंत परे ( जैसे कोई सम्बन्ध था ही नहीं - इतना परे) विशेष पुरुश ईश्वर है |
क्लेश अर्थात अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश जो जीव के दु:ख का कारण है, शुभ-अशुभ मिश्रित एवं शुभाशुभरहित कर्म उनके परिणाम और उन कर्म-संस्कारों कि वासना से जो सर्वथा उपराम है, वही ईश्वर है |
अर्थात उसके अर्थस्वरूप उन परमेश्वर का ध्यान करें | उनके प्रति श्रद्धा स्थिर करें | किन्तु ईश्वर को हमने देखा नहीं तो तब चिंतन कैसे करे? पहले ध्यान श्रद्धा से ही होता है, क्रमश: ईश्वर ही बोध करा देता है कि सदगुरु कोन है | ध्यान सदगुरु का ही किया जाता है | सदगुरु अव्यक्त ईश्वर स्वरूप है, मानव-तन के आधार वाला होता है | गीता ९/११ में श्री कृष्ण कहते हैं कि "मै परम का स्पर्श करके परमभाव में स्थित हूँ किन्तु हूँ मनुष्य शरीर के आधारवाला |" यही सदगुरु का स्वरूप है | जब सदगुरु का परिचय मिल जाएगा तब ध्यान और स्पष्ट हो जाएगा |

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